डिस्कवरी चैनल के डॉक्यूमेंट्री “कल्ट ऑफ फियर-आसाराम बापू” की खबर आने के बाद चैनल और उसमें काम करने वाले लोगों के पर हेट कमेंट्स की बारिश होने लगी। याचिकाकर्ता के अधिवक्ता अभिनव मुखर्जी ने कोर्ट में बताया कि चैनल के लिए कार्य करना और लोगों के लिए बाहर निकलना मुश्किल होता जा रहा है।
याचिकाकर्ताओं ने दावा किया कि आसाराम बापू पर बनाई गई डॉक्यूमेंट्री, जो बलात्कार के मामलों में जीवन भर की सजा काट रहे हैं, सार्वजनिक रिकॉर्ड, अदालत के आदेशों और गवाहों के बयान पर आधारित थी। डॉक्यूमेंट्री के डिस्कवरी+ओटीटी प्लेटफॉर्म पर रिलीज़ होने के बाद, धमकियां मिलनी शुरू हुई हैं।
इस मामले की गंभीरता को समझते हुए सुप्रीम कोर्ट ने अभी अंतरिम पुलिस सुरक्षा का आदेश तो दे दिया है परन्तु इस मामले ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं जिसके जवाब हमें सरकार से मांगने की ओर ध्यान देना चाहिए।
पहला सवाल यह है कि जो पुलिस सरकार के विरोध में लोकतांत्रिक रूप से डाले गए फेसबुक पोस्ट के आधार पर इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी कानून के तहत मुकदमा दायर कर दे रही है वह पुलिस न्यायालय द्वारा घोषित बलात्कारी पर सरकार द्वारा उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर बनाई गई डॉक्यूमेंट्री के खिलाफ कैंपेन पर कोई भी कार्यवाही क्यों नहीं कर पाई है?
दूसरा सवाल हमारी सरकार से सीधे तौर पर यह है कि जो सरकार दिन रात इंटरनेट में घुस कर नए-नए नियम और कानून बना रही है वह इस हेट कैंपेन के खिलाफ मौन क्यों है? तीसरा सवाल उस नागरिक समाज से भी है जिसकी प्रतिक्रिया एक खास तरीके से खास मुद्दे पर ही आ रही है और वह कहीं न कहीं खुद को कैसे वर्तमान राज्य की नीतियों और चरित्र से अलग कर पा रहा है? आखिरी वाला सवाल इस लेख का मुख्य बिंदु नहीं है।
मुझे दिशा रवि का मुद्दा हमेशा याद आता है जिन्हें पर्यावरण और कृषि के मुद्दे पर ग्रेट थनबर्ग के ट्वीट को रीट्वीट करने और उसकी कड़ी को बढ़ाने की बात को पुलिस ने टूलकिट का मुद्दा बना कर कुछ दिनों के अंदर ही गिरफ्तार भी कर लिया। इससे पहले भी मुंबई की एक लड़की को सरकार के विरोध में कमेंट करने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया था।
साल 2019 में प्रशांत कनौजिया के वीडियो, जिसमें उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के नीतियों और कार्यों के बारे में आलोचना करते हुए, निकाला तो उनके विरोध में सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 67 के साथ देशद्रोह के मुकदमे दायर किए गए।
प्रशांत के वीडियो में महिला योगी आदित्यनाथ का उनसे संबंध की बात कर रही है, जिसके निकलने के बाद पुलिस ने डिफेमेशन के मामले में उन्हें गिरफ्तार कर लिया। इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सर्वोपरि रखते हुए यह स्पष्ट किया कि “यह एक अलग बात है कि इस तरह के कंटेंट नहीं निकले जा सकते हैं पर गिरफ्तारी का कोई आधार नहीं बन सकता है। डिफेमेशन के आरोप में किसी भी व्यक्ति को सीधे गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है।”
यह सवाल फिर से सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 66A को कटघरे में लाता है, जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने श्रेया सिंघल मामले में गैर संवैधानिक घोषित कर दिया था। इस निर्णय में न्यायालय ने इस कानून की व्याख्या करते हुए यह बताया कि यह धारा काफी व्यापक और संवैधानिक रूप से निरर्थक है। इसमें सर्वोच्च न्यायालय ने अभिव्यक्ति के अधिकार को व्यापक रूप प्रदान करते हुए उसे तीन डिग्री में बांटने का प्रयास किया।
जिसमें कोर्ट ने कहा कि किसी भी व्यक्ति का किसी भी विचार को मानना या किसी भी तरह से अपने बोलने के अधिकार की संवैधानिक अधिकार का प्रयोग करना गलत नहीं है। किसी भी व्यक्ति का हिंसा के लिए बोलना भी गलत नहीं है। परन्तु अगर कोई व्यक्ति उसके बोलने पर हिंसक हरकत करता है तो उसे अभिव्यक्ति के अधिकार की अवहेलना मानी जाएगी।
वर्तमान में आईटी एक्ट में संशोधन के बाद लोगों के इंटरनेट पर की जा रही अभिव्यक्ति को एकतरफा रूप से सरकार द्वारा रोकने का कार्य किया जा रहा है जिसका एक उदाहरण वर्तमान में डिस्कवरी चैनल द्वारा चलाया जा रहा आशाराम बापू की डॉक्यूमेंट्री है।
इससे पहले भी असीम त्रिवेदी मामले (2012) में जब एक कार्टूनिस्ट द्वारा भारतीय संसद को कार्टून के रूप में मजाकिया रूप में दिखाया था। इसके बाद आरोपी को देशद्रोह और 66A के अंतर्गत गिरफ्तार कर लिया गया जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने उनके ऊपर से सारे मामले खारिज कर दिए।
अगर हम इस पूरे मामले को देखें तो सरकार की एकतरफा नीति स्पष्ट है जिसमें वह उन सारे लोगों को निशाना बना रही है जो वैचारिक या किसी स्तर पर उन्हें चुनौती दे रही है। आशाराम बापू जब गिरफ्तार हुए थे तब भी ब्राह्मणवादी विचारधारा के दूत उनके समर्थन में खड़े थे जब पूरे देश का एक संवेदनशील तबका उसके सजा का समर्थन कर रहा था। यह पूरी प्रक्रिया इस देश के सरकार का ब्राह्मणवादी चरित्र दिखाता है जहां ब्राह्मण कितना भी गलत हो वह कानून के दायरे के अंदर नहीं आ सकता है।
इसके अलावा हेट स्पीच की पराकाष्ठा करने वाले यति नरसिम्हानंद पर कानूनी रूप से कोई कार्यवाही नहीं की गई जिसने उत्तराखंड के हिंदू समारोह में मुस्लिमों के खिलाफ सीधे हमले के तैयारी की बात की। कोई महात्मा आकर यह कहता है कि जो महाकुंभ में नहीं जाएगा वो देशद्रोही है।
अगर हम इस देश के ब्राह्मणवादी प्रारूप को देखें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि देश की शासन व्यवस्था किस प्रकार से ऐसे लोगों को न केवल नजरअंदाज कर रहा है अपितु उसे विशेष सुरक्षा प्रदान की जा रही है।
चुनावी प्रक्रिया पर हमारी अत्यधिक निर्भरता और देश का नागरिक समाज जिस तरह से उससे उम्मीद बांधे हुए लोगों को लगातार भरोसा दिला रहा है कि इस प्रक्रिया से चीजें सुधर जाएंगी।
परन्तु यहां पर रुक कर सोचने की जरूरत है कि पिछले दिनों में हालात जिस तरह से बदतर हुआ है और नागरिक समाज खुद को अपने ही सीमाओं में चीजों को सही बताने की कोशिश कर रहा है, जहां जनता अपनी समस्या में लगातार धंसती जा रही है, वहीं नागरिक समाज ने खुद को आंदोलनों से पीछे खींचा है।
आज नागरिक समाज पूरे तरीके से सर्वोच्च न्यायालय की तरफ देख रहा है, जहां छत्तीसगढ़ में एक ईसाई को अपने पिता की लाश को दफ्न करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय जाना पड़ रहा है। यह एक सोचनीय विषय है जिसे गंभीरता से विचार करने की जरूरत है।
(निशांत आनंद कानून के छात्र हैं)
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