चील का नीड़ और उसके बच्चेः कुछ समझा और कुछ देखा हुआ

Estimated read time 1 min read


नई दिल्ली। यदि आप दिल्ली में हैं तब आप शाम को चीलों के झुंड को आसमान में गोल चक्कर मारते हुए देख सकते हैं। यदि मौसम खुशनुमा है तब आप उन्हें दोपहर में भी थोड़ा सा पंख मारकर ऊपर की ओर उठते और फिर अपने अन्य संगियों के साथ गोल गोल तैरते हुए देख सकते हैं। आज से लगभग दस साल पहले की बात है। सिर्फ मनमोहन सरकार विदा नहीं हुई थी और कांग्रेस के पतन की गहराई ही नहीं दिख रही थी, बल्कि मोदी सरकार जिस तरह से दिल्ली में विराजमान हो रही थी, उससे डरावना उत्साह का माहौल था। जिस गाड़ी का पहिया बदला जा रहा था उसके सवार हम नहीं थे। बस हम पहिये का बदलना देख रहे थे।

उस शाम हम मंडी हाउस चौराहे पर थे। फिक्की के ऑफिस के ऊपर बहुत सारी चीलें मंडरा रही थीं। उसके ठीक सामने सड़क के इस पार हम चाय पी रहे थे। मेरे पत्रकार मित्र ने कहा कि चीलें जिसके ऊपर मंडराती हैं, उसके अंत की घोषणा करती हैं, इनका भी अंत होना ही है। उन्होंने जिसके अंत की बात की, वह अब भी है। इसके बगल में जीवों के विकास का इतिहास बताने वाला म्यूजियम कुछ समय बाद आग में जलकर नष्ट हो गया। चीलों को लेकर यह मेरा पहला संवाद और उसकी उपस्थिति को शुभ-अशुभ के संकेत की तरह देखने का पहला अनुभव था।

ऐसा नहीं था कि चीलें हमारी नजरों से ओझल थीं। लेकिन, जॉन बर्जर की तरह ‘देखना’ एक अलग ही बात है। इस समय तक मेरे पास एक कैमरा हो गया था। 50एमएम के लेंस से चील को फोटो में उतारना आसान नहीं था। लेकिन, मैंने कुछ फोटो लिए थे और फेसबुक पोस्ट पर इसके लिए तारीफ भी आई थी। उस समय तक ये चीलें मेरे लिए उड़ान और गति की प्रतीक थीं। वे स्थिर गति से चलने वाली पक्षी थी जिसका फोटो उतारने में एक असानी थी।

भोजन की तलाश में चील

मेरा तीसरा परिचय गाजीपुर के कूड़े के विशाल भंडार के पास से गुजरते हुए हुआ। हजारों की संख्या में बदबू मारते इस कूड़े के पहाड़ के ऊपर ये चीलें मंडरा रही थीं। कुछ बैठ रही थीं, बाकी उड़ रही थीं। यह देखना, अब और भी कई बार हुआ। दिल्ली के बाहरी इलाकों से गुजरते हुए इन कूड़े के पहाड़ों पर उन्हें मंडराते हुए देखा जा सकता है। लेकिन, शाम के समय आईटीओ वाले यमुना के पुल के इस और उस पार उन्हें झुंड में जाते हुए देखना एक अजीब से अहसास से भर देता था। लगता था, वे भी काम से लौट रही हैं। उस समय तक मुझे कत्तई पता नहीं था कि वे सचमुच काम से लौट रही हैं। वे दिल्ली में लगातार जीना सीख रही हैं।

इसके बाद 2022 में एक डॉक्यूमेंटरी फिल्म आई ‘ऑल दैट ब्रेथ्स’। यह फिल्म संयोग से थोड़े समय के लिए हॉटस्टॉर पर उपलब्ध हो गई और मुझे इसे देखने का मौका मिल गया। लगभग डेढ़ घंटे की इस फिल्म में चील की ‘सूखे कंठ वाली चीखें’ एक संगीत की तरह बजती रहती हैं। यह भारत के उन चंद फिल्मों से एक है जो ऑस्कर में दिखाये जाने के लिए चुनी गई। इस फिल्म को पुरस्कार हासिल नहीं हुआ। ऑस्कर से नवाजे जाने वाली भारत की फिल्म बनी ‘द एलीफेंट व्हिस्पर’। लेकिन ‘ऑल द ब्रेथ्स’ की चर्चा खूब हुई। यह दो भाईयों द्वारा चीलों को बचाने, उनकी दवा करने आदि के प्रयासों को दिखाती है। दिल्ली की एक घनी बस्ती में एक छोटे से मकान में नदीम शहजाद और मुहम्मद सउद ने चीलों के लिए एक अस्पताल खोल दिया। पिछले 20 सालों में उन्होंने लगभग 26 हजार चीलों की रक्षा की है। वह घायल चीलों को अपने क्लिनिक में ले आते हैं और उनकी दवा करते हैं।

इस डाक्यूमेंटरी के एक दृश्य में यमुना के दूसरे तट पर एक चील पतंग की डोर में फंसी हुई है। कौए उस फंसी चील पर हमला कर उसे घायल कर रहे हैं। उस रात वह लोग नदी में उतरकर उस पार जाते हैं और उसे बचाते हैं। यह दृश्य मुझे देर तक बेचैन करता रहा। एक पक्षी को बचाने के लिए इस तरह के प्रयास के पीछे कौन सी प्रेरणा है? यह पर्यावरण बचाने की मुहिम से कुछ अलग था। यह एक पक्षी के जीवन को सिर्फ इज्जत बख्श देने वाली नेमत नहीं है, यह उन्हें अपनों के बीच के ही होने के एहसास से भर देता है। इस दृश्य में कौओं का शोर मेरे कानों में भर गया था। मैं अब चील को इन हासिल अनुभवों और कुछ पढ़ाई की नजर से देखने लगा था। मैं अब उन्हें हवा में उड़ने से अधिक तैरते हुए देखता था।

सेमल के पेड़ पर चील का घोसला

मैं जहां रहता हूं, वह संजय वन के पीछे बसे एक गांव किशनगढ़ में बना हुआ एक मकान है। मेरे मकान की बॉलकनी लठूरिया महाराज मंदिर के परिसर में खुलती है। इसमें एक सूखी हुई झील है जिसकी सीढ़ियों की बनावट इसके सैकड़ों साल पुराने होने की पता देती है। इसके साथ सटा हुआ गोशाला है और बड़े से कैंपस में खूब सारे पेड़ हैं। खूब सारे पक्षी यहां आते हैं, खासकर सुबह और शाम। रात में कई बार उल्लू पेड़ों से उतरते हुए दिखते हैं। इन्हीं पेड़ों में से दो पेड़ सेमल के हैं। एक बड़ा है जिस पर चील ने घोसला बनाया। मैं अक्सर सुबह में कौओं की कांव-कांव और चीलों की चीखें सुनता था। चील अक्सर ही सुबह छतों के ऊपर मंडराते हुए और दोपहर में कैंपस से लकड़ियां बिनकर पेड़ पर ले जाते हुए दिखती थीं। इस दौरान एक बुरा संयोग हुआ और मैं एक साल के लिए बीमार पड़ गया। ज्यादातर किराये के इस मकान में रहना पड़ रहा था। ऊब होने पर बॉलकनी में आ जाता।

आसमान में परवाज़ करता चील

सेमल के पेड़ पर चील और कौओं के बीच लगातार लड़ाई चल रही थी। चीखें आती रहतीं। मुझे इतना समझ में आया कि चीलें जो भोजन इकठ्ठा करती हैं उसे कौए चुरा रहे हैं। चील मांसाहारी होती है। कौओं को यह भोजन उनसे आसानी से मिल जा रहा था। लेकिन, थोड़ा और ध्यान देने पर यह बात समझ में आई कि एक चील अपने अंडों को छोड़कर हट नहीं सकती है। उसे कौओं से अपने अंडे भी बचाने थे। भोजन और रक्षा दोनों की जिम्मेवारी एक ही चील पर आ गई। लगभग महीने भर गुजरा। सेमल के पेड़ पर शांति छा गई। चील घोसले को साफ करते हुए तिनकों को गिरा रही थी। अंडा नष्ट हो चुका था। चील की उड़ान में एक बेचैनी दिख रही थी। थोड़ा समय और गुजरा, तब वे एक बार फिर घोसले का निर्माण कर रहे थे।

यह जाड़े का मध्य था। इस समय तक चीलों की संख्या में थोड़ा इजाफा दिख रहा था। कौओं की संख्या एक बार इस पेड़ के आसपास दिखने लगी। इसके बाद हमने चील और कौओं की लड़ाई का जो दृश्य देखा, वह इंसानी युद्ध और उसकी अपनाई रणनीति से कम नहीं था। चीलों ने पहले सेमल के पेड़ के आसपास कौओं को बैठने नहीं दिया। वे उन्हें दूर तक खदेड़ते थे। महीने भर तक यह दृश्य चलता रहा। इसके बाद चील कैंपस के किसी भी पेड़ पर कौओं को बैठने नहीं देते थे। कौए बचने के लिए पेड़ों के अंदर घुसते जहां चील का पहुंचना संभव नहीं था। चील बाहर ही बैठकर इंतजार करती हुई दिखती थीं।

धीरे-धीरे कौओं का ठिकाना चीलों के घोसलों से दूर होता गया। फरवरी के महीने में घोसलों से चीं चीं चीं की आवाज आनी शुरू हो गई। मार्च के पहले हफ्ते तक चील के बच्चे बड़े दिखने लगे। चील भोजन के जुगाड़ में छतों पर हवा में तैरते हुए दिखती और अक्सर कुछ न कुछ मुंह में दबाये घोसलों में ले जाती। उनका सेमल के पेड़ का चुनाव उनके शरीर के हिसाब से सही था, लेकिन सुरक्षा के लिहाज से कमजोर था। लेकिन, उन्होंने इसी पेड़ का चुनाव किया। मई के महीने में चील के वे बच्चे बड़े होकर उड़ान भर रहे हैं। वे इसी शहर में रहते हुए वन्य जीवन के साथ-साथ इंसानों के साथ भी जी रहे हैं। यह एक ऐसी दोहरी जिंदगी जिसे जीना आसान नहीं है। वे पालतू नहीं हैं लेकिन इंसान से बहुत दूर भी नहीं हैं।

घोसले के लिए सामग्री जुटाता एक चील

‘ऑल द ब्रेथ्स’ में दो भाईयों के पास एक व्यक्ति आता है जो चील द्वारा उन पर हमला करने के बारे में बताता है। वे बताते हैं चील अपने अंडों और बच्चों की रक्षा के लिए ऐसा करते हैं और इससे बचने के उपाय के बारे में बताते हैं। यहां इस कैंपस में जाड़े की धूप में बैठने के लिए लोग आते हैं। चील उन पर इस तरह के हमले करते हुए नहीं दिखी। मैं इस पेड़ से 200 मीटर की दूरी पर हूं। जाड़े की धूप के लिए मैं भी छतों पर जाता था। चील हवा में तैरते हुए सिर के ऊपर से गुजरती। कई बार बालकनी के इतना पास से गुजरती कि उसकी चमकती आंखें दिखती थीं। दरअसल, चील इंसानों के बीच रहते हुए लगातार जिंदगी को जीना सीख रही है। जब मैंने कैमरे को जूम कर उसके घोसले का फोटो दिख रहा था तब उसमें कुछ कुछ चीजें दिख रही थीं जो लकड़ी के तिनके नहीं थे।

पक्षी विज्ञानियों ने जब दिल्ली में ही उनके घोसलों की निगरानी की थी तब उन्हें उनके घोसलों में सिगरेट के टुकड़े मिले थे। उनका कहना था कि इसे वे कीड़ों को भगाने के काम में ला रहे थे। मरे जानवरों को खाकर गिद्ध विलुप्त होने की ओर चले गये। लेकिन, चील इस दिल्ली में बने हुए हैं। ऐसा नहीं है कि दिल्ली का ताप और प्रदूषण उन्हें झुलसा नहीं रहे हैं। नये तरह के बनते ऊंचे मकान सिर्फ छोटे पक्षियों के लिए नहीं, चीलों के लिए भी उतनी ही मुश्किलें पैदा कर रहे हैं। लेकिन, वे इस शहर में रहते हुए इसी में जीना सीख रहे हैं। वे इस शहर से टनों मांस और रोटी के टुकड़ों को खाकर खुद जी रहे हैं और हमारे लिए जीना आसान भी बना रहे हैं। आंकड़ों से बाहर, वे हमारे आसपास रहते हैं। कई बार वे हमला भी करते हैं, लेकिन यह अपवाद की तरह है।

अप्पू की पेंटिंग

मैं जब चील और कौओं के बीच हुए टकराहट को अपने मित्र और उनके बच्चों को बता रहा था, तब सात साल के अप्पू (सृजन आजाद) थोड़े चिंतित से हो गये। उनकी 11 साल की दीदी समायरा ने भी कई सवाल किये। दोनों ने छत पर जाकर चील के बड़े हो रहे बच्चों को देखा। ये दोनों बच्चे अपने घरों में कबूतरों को अंडा देते और बच्चों को बड़ा होते हुए देखा था। वे उनकी बड़ी देखभाल किये थे। उनके लिए कौए कोई दुश्मन नहीं थे। उन्हें कौओं के व्यवहार से दुख था। मेरे मित्र और बच्चे मुझसे बीमारी के हाल में मिलने आये थे। उन्होंने मेरे लिए कई तरह के स्केच और पेंटिंग बनाई। इसमें से एक अप्पू की चील और कौओं को लेकर बनाई गई पेंटिंग थी। उनके लिए दोनों ही पक्षी हैं और दोनों के बच्चे सुरक्षित रहने चाहिए। दोनों को मिलकर एक साथ रहना चाहिए। उन्होंने उनके शरीर की बनावट के आधार पर छोटा और बड़ा बनाया लेकिन अंडों की संख्या और डाली की ऊंचाई एक ही रखी। यह वन्य जीवन को लेकर अप्पू का अपना दृष्टिकोण है और निश्चित ही एक उम्मीद जगाता है। सिर्फ अपने बीच के रिश्तों को ही नहीं, अपने आसपास के जीव, पक्षियों को देखने का यह दृष्टिकोण आश्वस्त करता है।
(-नोटः सभी फोटोग्राफ लेखक के हैं। पेंटिंग अप्पू ने बनाया है।)

(अंजनी कुमार लेखक व स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

You May Also Like

More From Author

5 1 vote
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments