मानसून और पश्चिमी विक्षोभ के मिलने से भारी बारिश और तबाही की आशंका बढ़ी

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28 जून, 2024 को सुबह होने से पहले लगभग 3 घंटे की बारिश ने 88 साल का रिकार्ड तोड़ दिया। 148.5 एमएम की बारिश ने शहर के हर हिस्से को बुरी तरह से प्रभावित किया। वस्तुतः 24 घंटों में कुल बारिश 228.1 एमएम पहुंच चुकी थी। विकास के नाम पर अधिसंरचना की कई बनावटें ध्वस्त होते हुए दिखीं। सबसे बड़ी खबर इंदिरा गांधी एयरपोर्ट के टर्मिनल की छत गिरने की थी जिसमें एक व्यक्ति की मौत और दर्जन भर लोगों के घायल होने की खबर आई। उड़ानों की रद्द होने की संख्या 100 के करीब पहुंच गई। दिल्ली शहर के भीतर की स्थिति बदतर हो गई।

बारापुला रोड जो सफदरगंज से सरायकाले खां और नोएडा तक एलीवेटेड रोड है और यह कई सड़कों को एक साथ जोड़ता है। इसका निर्माण बारापुला नाले पर नियंत्रित करने वाली संरचनाओं के साथ हुआ। इसका एक हिस्सा टूट जाने से दक्षिणी दिल्ली और नई दिल्ली के इलाकों में हुआ जलभराव इस हद तक हुआ कि यह लोगों के घरों में घुसने लगा। सांसदों के लिए बने मकानों में पानी भराव खबर बन गई। ज्यादातर उन्हीं इलाकों में पानी भरा जहां से बड़े नाले गुजरते हैं और इनमें अन्य नाले आकर मिलते हैं। आईटीओ से लेकर प्रगति मैदान का इलाका जलभराव का मुख्य केंद्र इस बार भी बना रहा।

इंडिया टूडे ने अपने 29 जून को दिये बुलेटिन में दो बच्चों के डूबकर मरने की खबर दी। इसके अनुसार वसंत कुंज में काम कर तीन मजदूर एक दीवार के गिर जाने से उसमें दबकर मर गये। शालीमार बाग के अंडरपास में एक व्यक्ति फंसकर मर गया। धौलकुआं, तिलकब्रिज, प्रगति मैदान, मिंटोब्रिज वे जगहें जहां पानी का भराव जानलेवा स्तर तक था। बड़े नालों के किनारे बसे मुहल्लों की स्थिति बद से बदतर रही।

मौसम की मार के साथ ही केंद्र और राज्य के बीच की राजनीति एक ऐसे खेल की तरह शुरू होती है जिसका अंतिम खामियाजा जनता जान चुकाकर देती है। इस साल भी यही स्थिति है। एमसीडी अपने हिस्से की महज 40 प्रतिशत नालों को ही इस बारिश तक साफ कर पाया। दिल्ली के नालों की सफाई की जिम्मेवारी कई स्तरों पर बंटी हुई है और इसका सारा निपटारा, मानो मीडिया में दिये गये बयानों में ही दिखता है। पीडब्ल्यूडी के दावे के मुताबिक उसने अपने हिस्से के 83 प्रतिशत की सफाई के काम को पूरा कर लिया था। एनडीएमसी के हिस्से में लुटियन्स दिल्ली आती है। इस बार इस इलाके की स्थिति भी बदतर बनी रही। सिंचाई और बाढ नियंत्रण प्रबंधन विभाग यमुना के तटों पर नालों के गिरने और यमुना के स्तर के ऊंचा उठने पर उसे नियंत्रित करने के काम की जिम्मेवारी में है।

इस बार की महज 3 घंटे की बारिश में इन सारे विभागों के इलाकों में जलभराव की स्थिति काफी बदतर और जानलेवा साबित हुई है। धौला कुआं जहां बहुस्तरीय निर्माण और मुख्य रास्तों का सम्मिलन केंद्र है, वहां जलभराव की स्थिति काफी डरावनी है। यही स्थिति प्रगति मैदान की थी। यहां लंबे और कई स्तर पर बने टनेल में पानी भरना एक खतरनाक चेतावनी की तरह है। इसका उद्घाटन बड़े गाजे-बाजे के साथ प्रधानमंत्री मोदी ने अपने दूसरे कार्यकाल में किया था। यह अपने उद्घाटन के कुछ समय बाद ही दरार आने का शिकार हुआ और अब वहां जलभराव ने जानलेवा स्थिति पैदा कर दी है। यह अंडरपास सिर्फ नोएडा, मयूर विहार, पटपड़गंज आदि इलाकों को ही नहीं जोड़ता, यह मेरठ और गाजियाबाद जाने का मुख्य रास्ता और आधुनिकतम हाइवे को भी जोड़ता है। यह ‘सबअर्बन बसावटों’ को रास्ता देने वाला अंडरपास है जो बारिश से जलभराव का शिकार हो गया।

दिल्ली में भयावह गर्मी के गुजरते ही उतनी ही तीव्रता लिए हुए, हुई बारिश में जिस तरह ठहर गई, वह चिंताजनक है। इस भयावह गर्मी में पानी की किल्लत पर जितनी भी राजनीति हुई हो, अंतिम परिणाम जनता को ही भुगतना पड़ा। यही स्थिति बारिश से उपजी स्थिति में भी रही। मौसम के मिजाज के आधार पर न तो केंद्र सरकार और न ही राज्य सरकार, इनके विभिन्न संस्थान काम करते हुए दिखते हैं। ऐसा लगता है मानों ये मौसम की मार के पीछे-पीछे चल रहे हों। मौसम विभाग मानसून को लेकर लगातार दो तरह के अनुमान को प्रसारित कर रहा था। पहला, सामान्य से लगभग 15-17 प्रतिशत कम बारिश होगी और दूसरा, जून के अंतिम हफ्तों में उत्तर भारत में मानसून की सक्रियता बढ़ेगी। इस खबर के साथ एक और खबर दुनिया के स्तर पर प्रसारित हो रही थी, वह थी अलनीनो के खत्म होने और अलनीना के शुरू होने की घोषणा। अलनीनो के खत्म होने का अर्थ यह नहीं था कि इसका असर अचानक खत्म हो जाएगा। लेकिन अलनीना का असर के शुरू हो जाना भी मौसम पर दिखेगा।

आज भी अलनीना के शुरू होने के बावजूद इंडोनेशिया में बारिश के लिए प्रकृति के देवता की गुहार लगा रहे हैं। भारत में मई और जून के महीने मानसून के क्रमशः कमजोर से तीव्र होने की संभावना बताई जा रही थी। इसी दौरान, पश्चिमी विक्षोभ की चक्रवाती हवाओं का प्रभाव दक्षिण-पश्चिमी मानसून को प्रभावित कर रहा है। बंगाल की खाड़ी से उठकर आने वाला मानसून लगभग 20 दिनों के ठहराव के बाद हवा के दबावों से मध्य-भारत से ऊपर की ओर उठा है। पश्चिमी विक्षोभ ने अन्य कारकों के साथ एक संयोगी भूमिका निभाया। यहां इस बात को रेखांकित करना जरूरी है कि पिछले एक दशक में मई, जून और जुलाई में पश्चिमी विक्षोभ की सक्रियता बढ़ी है। इससे मई के महीनों में चक्रवाती तूफान और बारिश, पहाड़ों में देर तक बर्फबारी और फिर सूखी, गर्म हवाओं का परिसंचरण बढ़ती मात्रा में देखा जा सकता है।

यह मानसून को दो तरह से प्रभावित करता है। यह अपने दबाव से मानसून की गति को या तो कम करता है या चक्रवाती हवाओं (जेट स्ट्रीम) से मानसून को उत्तर की तरफ तेजी से ठेलता है। इसका सीधा परिणाम हम कश्मीर, हिमांचल, उत्तराखंड और इससे जुड़े मैदानी इलाकों में भारी बारिश की घटनाओं में देखते हैं। यही कारण है कि मौसम विभाग ने दिल्ली ही नहीं, हिमालय की गोद में बसे राज्यों में भी बारिश का येलो एलर्ट जारी किया है। इसने चेतावनी दिया है कि इससे बाढ़, भूस्खलन और जलभराव की घटनाएं हो सकती हैं।

मौसम का मिजाज इस कदर बदल गया है कि अब सामान्यतः हर कोई इसे लेकर चिंतित है। मौसम के इस मिजाज का फलक इतना बड़ा है कि इसे देश और दुनिया के स्तर पर हल करने की जरूरत आन पड़ी है। पिछले 30 सालों से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दुनिया भर के देश धरती को बचाने के नाम पर लगातार बहस और एक निर्णय पर पहुंचने के लिए बहस कर रहे हैं। जबकि, उसका कुल जमा असर दिख नहीं रहा है। देश के स्तर पर बाकायदा केंद्र और कई राज्यों में पर्यावरण विभाग बनाये गये हैं और उसके मंत्री भी है। पर्यावरण की सुरक्षा के लिए एनजीटी जैसे निकाय भी हैं। इसके बावजूद मौसम के मिजाज के अनुरूप कोई गुणात्मक बदलाव होते हुए नहीं दिख रहा है।

अभी हाल ही कोयला खदानों के लिए हसदेव के जंगल को काटने की अनुमति दी गई, तब उसके पीछे एक ही तर्क था, विकास। यह एक ऐसा शब्द है जिसके नाम पर अर्बन, सबअर्बन डेवलपमेंट का स्मार्ट सिटी मॉडल लाया गया। सीमेंट की बनी हुई सड़कें बिछाई गईं। बिजली की आपूर्ति के लिए ताप और पानी के बिजली घर बनाये गये। गांव की बहुविध खेती को मुनाफे की एकरंगी फसलों में बदलने का अभियान चला। छोटी नद और नाले गायब होते गये और बड़ी नदियां और झीलें कचरों में फंस गईं। गांव के जंगली क्षेत्र, ताल और चारागाह खत्म होते गये हैं।

विकास एक ऐसा शब्द बन गया है जिसमें सिर्फ मुनाफा और बाजार की शब्दावली है। इस चमकदार शब्दावली को पिछले 30 सालों में जिस तरह से उछाला गया और इसे शहर से गांव तक दौड़ाया गया है, उसके पीछे की सच्चाई अथाह भ्रष्टाचार, लूट और तबाही है जिसका भुगतान आम लोग कर रहे हैं।

कोई भी समाज और राज्य अपना विकास मूल परिस्थिति के बाहर जाकर नहीं कर सकता। पारिस्थितिकी कोई स्थिर तथ्य नहीं है। यह मनुष्य के साथ बदलती और विकसित होती है। लेकिन, यदि पारिस्थितिकी नष्ट होती है तब बदलाव और विकास की नई स्थितियां उपस्थित होती हैं। आज जब विकास का बुलडोजर सामान्य पारिस्थितिकी को नष्ट करने पर आमादा है तब उसे नई परिस्थितिकी के अनुरूप विकास की नीतियों को भी चुनना होगा। एक विशाल दिल्ली और उसके एनसीआर के लिए पानी की आपूर्ति की व्यवस्था बनाये बिना इस गर्म होती धरती में आम इंसान का जीना संभव नहीं है। इसी तरह से, बारिश के पानी को बाहर ले जाने के लिए सिर्फ ड्रेनेज ही नहीं, नदी को भी इस तरह तैयार करना होगा कि वह हमारे कचरे को पीठ पर ढो सके। ऐसा नहीं होने पर वह बारिश का सारा पानी वापस भेजने के लिए मजबूर रहेगी।

सिंचाई के नये नहरों के निर्माण का अभाव, पुरानी नहरों के खत्म होने और यहां तक कि सिंचाई विभाग को मौत की नींद सुला देने वाली नीति का अंतिम परिणाम आम लोगों को बाढ़ की विभिषिका में ठेलना ही है। पहाड़ों में चौड़ी और ऊंची सड़कों का निर्माण विकास का मानक बन सकता है लेकिन वहां तक जो कार्बन और अन्य गैस पदार्थों की खेप पहुंच रही है उससे बर्फ का पिघलना तेजी से बढ़ेगा। गर्मी में सूखे, नंगे पहाड़ ठंडी हवा तो दूर आग के गर्म गोलों में बदलने से उन्हें कौन रोक सकेगा।
इस गर्मी में सड़क चौड़ीकरण के नाम पर जब देहरादून में पेड़ों के काटने के लिए कर्मचारी उतरे तब पेड़ों को काटने से रोकने के लिए लोग सड़क पर उतर आये। यह एक अच्छी शुरूआत है।

उत्तराखंड से ही चिपको आंदोलन शुरू हुआ था। यह आंदोलन विकास के बहाव में कमजोर हो गया। नर्मदा बचाओ आंदोलन भी ऐसे ही बहाव में कमजोर हुआ। लेकिन, इस तरह के आंदोलन की आवाज अब भी बनी और बची हुई है। झारखंड से लेकर छत्तीसगढ़, उड़ीसा से लेकर महाराष्ट्र तक विकास का बुलडोजर भले लोगों की आवाज को कुचल देने पर आमदा हो, लेकिन अब भी वे आवाजें जिंदा हैं। वे ही पारिस्थितिकी से जुड़ी सच्ची आवाजें हैं। आज जरूरत है इस कथित विकास के सामानांतर एक आवाज बनने की। इस गर्म होती धरती और अपने देश में मौसम के बदलते मिजाज की पारिस्थितिकी में खुद को और धरती को बचाने के लिए आगे आना और आवाज उठाना जरूरी हो चुका है।

(अंजनी कुमार लेखक व स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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