हमले के धार्मिक पहलू
22 अप्रैल कश्मीर के पहलगाम में एक हमला हुआ टूरिस्टों पर। 26 लोगों की हत्या। एक बात जो चर्चा का तुरंत विषय बनी, धर्म पूछकर गोली मारा जाना। चूंकि यह पूरे हमले की कहानी धर्म पर ही आधारित है इसलिए लोगों की चर्चा के साथ उनके धर्म का भी जिक्र करना जरूरी है। सच था या झूठ पर यह लाइन सनसनीखेज बनी तुरंत। लोगों में तत्काल रिएक्शन देखा गया। पर धीरे-धीरे घटनास्थल की सच्चाई सामने आने लगी, लोगों को सच पता चलने लगा।
अभी भी इस हमले पर दो नजरिया लोगों के बीच विद्यमान है एक जो नफरत के साथ उबाल मारने को आतुर है, दूसरा जो सच्चाई के साथ भाईचारे, इंसानियत के पक्ष में खड़ा हो रहा है।
जो इस मामले को सनसनीखेज बना रहे हैं, वे इस हमले के परिणाम के रूप में एक पूरे समुदाय के प्रति अपना भड़काऊ नजरिया व्यक्त करने की कोशिश में हैं, कुछ भड़काऊ भाषण, खबरें और वीडियो भी बनाए जा रहे हैं। कारण सिर्फ एक कि यह आतंकियों का हमला था जो किसी विशेष समुदाय से आते हैं उन्होंने धर्म पूछकर गोलियां चलाई।
जबकि हमलावर कौन थे, कहाँ से आए थे, किसके निर्देश पर आए थे, किस उद्देश्य से आए थे, धर्म पूछा कि नहीं पूछा, कुछ स्पष्ट नहीं है।
घटना का संदेहास्पद होना
हाँ, धर्म पूछकर गोली मारना सच है या झूठ पर इस बात का फैलना वाकई में संदेह पैदा करता है। जो नजरिया दिखाने की कोशिश किया गया, संकीर्ण, धार्मिक, और ऐसा कि ट्रूरिस्टों पर हमले नहीं हुए, हिन्दू धर्म पर हुए। जबकि चश्मदीदों की बातें जो अब सामने आ रही हैं साफ है कि हमलावरों से बचाने के लिए कश्मीर के लोग जो मुस्लिम समुदाय से ही आते हैं, ने जी जान लगा दी, अपने जान की परवाह किये बगैर वे आगे बढ़ कर बचाव करते रहे।
ठीक है अगर मान भी लिया जाए, हमलावर भी मुस्लिम समुदाय के होंगे, जिनका मकसद भी हो सकता है गैर मुसलमानों की हत्या रही होगी, पर क्या चार चरमपंथी लोगों के विचार से पूरे समुदाय पर प्रश्न चिन्ह लगाया जा सकता है, जबकि सामने उस समुदाय के इंसानियत की खूबसूरत तस्वीर पेश करने वाले लोगों का हुजूम खड़ा हो?
आज जो भी तस्वीरें घटनास्थल की आ रही हैं वह यही बता रही हैं कि किस तरह कश्मीर के लोगों ने टूरिस्टों की जो गैर मुसलमान थे, जी जान से रक्षा की। बचने वाले लोग कृतज्ञता के साथ उनका नाम ले रहे हैं।
इतना कुछ होने पर भी उन कश्मीरवासियों के लिए बहादुराना शब्द सामने आने के बजाय हिन्दू की हत्या की बात को ही सनसनीखेज बनाया जा रहा है। यहाँ संदेह तो पैदा होता है कि यह हमला राजनीति से प्रेरित तो न था? संदेश तो पैदा होता है हर वक़्त मुस्तैद रहने वाली सुरक्षा व्यवस्था उस वक्त कहाँ थी?
संदेह तो पैदा होता है कि भाईचारा की इतनी बेहतर मिसाल पेश होने के बाद भी समुदायों में बांटने वाली बातें इस दर्दनाक घटना के साथ क्यों फैलाई गईं? क्या इसके पीछे मंशा कश्मीर का माहौल, देश में हिन्दू-मुस्लिम समुदाय के आपसी सौहार्द जो पहले भी कई रुप में बिगाड़ी गई है और बिगाड़ना था? क्या इनकी मंशा एक प्रदेश के पूरे समुदाय को कटघरे में खड़ा करना था, क्या उनके ऊपर प्रश्न चिन्ह लगाना था?
आखिर इस घटना के पीछे किसकी साजिश थी यह एक प्रश्न हमारे सामने ज़रूर है। हो सकता हैं इसकी सच्चाई अफवाहों और राजनीति के गर्त में कहीं दब जाए या भविष्य में उभरकर सामने आ सके।
साजिश की नाकामी, कश्मीर वासियों की बदौलत
जो भी हो, इंसान से इंसान को दूर करने की यह साजिश कश्मीर वासियों के प्यार, भाईचारे, अपनत्व, बहादुरी ने ज़रूर नाकाम कर दिए। आए दिन जो सच्चे वीडियो, फोटो, खबरें सामने आ रही हैं, वह हिन्दू-मुस्लिम समुदाय के बीच नफरत की राजनीति को पस्त कर भाईचारा की बेहतर तस्वीर पेश करने वाली हैं।
हमलावरों का इरादा चाहे जो भी रहा हो, उनके पीछे चाहे जिनकी ताकतें रही हों, पर जिन्हें बदनाम करने की कोशिश की गई उन्हीं लोगों ने, कश्मीरी लोगों ने उनके मनसूबे में पानी फेर दिया।
अगर धर्म पूछकर गोलियां चलाई जा रही थीं, तो सैयद आदिल हुसैन शाह की मौत को कभी नहीं भूलना चाहिए, क्योंकि वह गैर मुसलमान नहीं था, और न ही कश्मीरी मेहमान था, वह वही का बाशिंदा था, कश्मीर का था, बहुत आसान था उसके लिए पीछे हटकर जान बचाना, पर उसने आगे बढ़कर अपने भाई बहनों को बचाने के लिए अपनी जान गंवाई। आतंकियों ने उसे भी नहीं छोड़ा। जाहिर है वे आतंकी किसी जाति और मजहब के न थे, वे बस इंसानियत के दुश्मन थे, जो किसी के इशारे पर सौहार्द बिगाड़ने आए थे।
देश का माहौल
आए दिन दो तरह की तस्वीरें सामने आ रही हैं एक तरफ 26 गैर मुसलमान लोगों की इस तरह कश्मीर की धरती पर हुई हत्या के दुख में, दोषियों की गिरफ्तारी के लिये, पीड़ितों की मदद के लिए कश्मीर वासियों का सड़कों पर निकली भीड़ की तख्ती लिए, आंसू लिए प्रदर्शन की तस्वीर, और उन टूरिस्टों की तस्वीर जो हिन्दू समुदाय से आते हैं, जो बता रहे हैं कि किस तरह हमले के समय वहाँ के रहने वाले, घोड़ा चलाने वाले, ओटो ड्राइवर… कश्मीरी लोगों ने आगे-आगे रहकर उनकी जान बचाई, परेशान हुए लोगों को अपने घरों में छुपाया, संकट के समय में अपने घर में रखा, पूरी मदद की। यह कहते हुए उनकी आंखें भी नम हो रही हैं।
ये बातें घटना के चश्मदीद गवाहों द्वारा कही जा रही है जो आतंक का डर लेकर तो लौटे हैं पर साथ में कश्मीरियों की बहादुरी, भाईचारा, प्यार भी जिसका बखान करते वे नहीं थक रहे।
वहीं दूसरी ओर घटना से कोसों दूर रहने वाले लोगों की तस्वीर जो उड़ी- उड़ाई बातों के साथ कट्टर हिंदुत्व से ओत-प्रोत होकर दर्द और बदला का नफ़रती भाषण वीडियो में दे रहे हैं। कई जगह अपने आतंकी रूप के साथ खास समुदाय के लोगों पर हमले भी शुरू कर दिए हैं। जो बदला लेने, जवाब देने के रूप में है, किसे और क्यों यह सवाल उनके जेहन में नहीं है।
राजनीतिक पहल
यह कहना न होगा कि आज की राजनीति उकसावे वाली रही है, बदला लेने, एक होने, हिंदुत्व की रक्षा….. जैसे बातों के साथ लोगों को हद दर्जे का कट्टर बनाया जा रहा है। एक पूरे वर्ग को जो अपने आपको हिंदू कह रहे हैं, कृत्रिम कहानी, इतिहास और घटनाओं के किस्से सुना-सुना कर, आतंकी का भय दिखा दिखा कर, उन्हें हिंसक बनने की पूरी छूट दी गई है। वे लोग रोजी-रोटी, बेरोजगारी पर सोचने के बजाय सिर्फ़ धर्म, और धर्म की रक्षा के नाम पर जानवर बनते दिख रहे हैं, जो गुट बनाकर कभी सड़कों पर किसी को मारते हैं, तो कभी भगवा झंडे लेकर मस्जिद के सामने तांडव करते नजर आते हैं।
किसी भी पर्व में भगवा झंडा के साथ ऐसा प्रदर्शन करते हैं जैसे युद्धस्थल पर खड़े हों। इस प्रकार एक हिंसक भीड़ दिन प्रति दिन बढ़ती जा रही है। लोग अपने जेहन में इंसानियत की जगह नफरत का जहर घोल रहे हैं। इतिहास गवाह है नफरत, और वर्चस्व की लड़ाई ने दुनिया को तबाह ही किया है आबाद होने के लिए आपसी प्रेम की ही जरूरत होती है।
अफसोस कि बहुसंख्यक हिन्दू समाज के वे लोग जो अपने धर्म को शांति पूर्वक पसंद करने की बात करते हैं, बहुसंख्यक होने के बावजूद इस डायवर्जन पर चुप है। हिंसक होना, डंडे और झंडे लेकर लड़ाई के लिए उतारू रहना, दूसरे समुदाय के लोगों पर हमले करना.., जानवरों की तरह शक्ति प्रदर्शन करना किस प्रकार किसी धर्म के लिए गौरव की बात हो सकती है समझ से परे है। अगर यह गौरव की बात नहीं है, तो क्या यह उनका दायित्व नहीं है कि जो लोग इस भटकाव के शिकार हो रहे हैं उन्हें बचाएं?
जबकि हाल-फिलहाल ऐसे कई उदाहरण देखने को मिले हैं, जहाँ रक्षा के लिए इंसानियत काम आयी है धार्मिक पहचान नहीं। हाल ही के कुंभ मेले में हुई भगदड़ में लोगों की मौत पर जहाँ मरने वाले उसमें भी हिन्दू ही थे क्योंकि मेला मुसलमानों के लिए नहीं थी, पर वहाँ भी घायल और पीड़ितों की मदद बिना धर्म, समुदाय देखे वहाँ के मुस्लिम समुदाय के लोगों ने की। भाईचारे का, अपनत्व का एक बेहतर मिसाल पेश किया। पर सरकार द्वारा न तब इस मिसाल की सराहना की गई न अभी। आज 26 लोगों की मौत पर जो दुख प्रकट हो रहा है, वह कुंभ भगदड़ में मरे लोगों पर शांत था।
क्या कोई दुख इसलिए बड़ा या छोटा हो, कि उससे हम किसी वर्ग, किसी समुदाय, किसी देश पर इल्ज़ाम लगा सकते हैं?
व्यवस्था विफल धर्म की राजनीति सिर्फ चरम पर
देश में वैसे भी अक्सर व्यवस्था विफल है, कभी ट्रेन हादसे, कभी सड़क हादसे, कभी फैक्ट्री में आग, कभी नव निर्मित पुल गिरना, कहीं पानी की व्यवस्था नहीं, कहीं घर की व्यवस्था नहीं, काम कराने के लिए घूस, रिश्वत,…हर जगह भ्रष्टाचार व्याप्त।
किसानों के लिए बीज-खाद महंगे, सिंचाई की सफल व्यवस्था नहीं, महिलाओं पर लैंगिक हमले, सुरक्षा की गारंटी नहीं, मजदूरों के लिए काम की गारंटी नहीं, युवाओं के लिए शिक्षा महंगी, कम्पटीशन टफ, रोजगार नहीं। पढ़ा-लिखा युवा कोई भी नौकरी करने को तैयार है फिर भी नौकरी नहीं मिलने की हताशा में आत्महत्या कर रहा है।
इन समस्याओं के समाधान की बजाए दमन की, बदले की, शोषण की ही राजनीति की जा रही है। पुलिस फोर्स के बल पर हर उठती आवाज को दबाना जारी है चाहे किसान आंदोलन, मजदूर आंदोलन, छात्र आंदोलनों….पर पुलिस फोर्स के लाठी डंडे बरसना हो चाहे छत्तीसगढ़, उड़ीसा, बिहार, झारखंड में नक्सल मुक्त अभियान के तहत आदिवासी-मूलवासियों की हत्या व गिरफ्तारी हो। और धर्म की राजनीति का कुछ कहना ही नहीं। जो पूरे देश में नफरत और दहशत का माहौल बना रही है। एक घर में दीवार खड़े करने की स्थिति जैसी।
नयी लहर
पहलगाम की घटना का राजनीतिकरण जोरों पर है, इसकी प्रतिक्रिया में जो कदम उठाए गए हैं वह नई लहर पैदा कर सकती है। भारत द्वारा बार्डर क्रॉसिंग बंद करना, पाकिस्तानी नागरिकों के वीजा को रद्द करना, सिंधु जल संधि को निलंबित करना, यह आतंकवाद को कितना कंट्रोल करेंगे और भारत-पाकिस्तान के संबंध पर क्या असर डालेंगे यह एक बात है, पर इसका असर फिर से देश के अंदर क्या होगा यह हम समझ सकते हैं, क्योंकि इसके केंद्र में फिर एक विशेष समुदाय ही आने वाला है। इसकी झलक भी देखने को मिलने लगी है। भविष्य इसका परिणाम तय करेगा पर फिलहाल कुछ हद तक गैर हिंदू कश्मीरी लोगों और हिन्दू धर्म के टूरिस्टों की अपनत्व, प्यार, सौहार्द की बातें इस पर लगाम लगाए हुए है।
उम्मीद करते हैं लोग आंखें खोलकर उस घटना से जुड़ी सच्चाई देख सकें और नफरत की राजनीति पर लगाम लगाते हुए, अपनत्व भाईचारे, इंसानियत के पक्ष में खड़े हो सकें।
(इलिका प्रिय स्वतंत्र लेखिका हैं।)
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