2024 आम चुनाव: इस खंडित जनादेश को किस तरह देखा जाना चाहिए?

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“हमें छोटे-छोटे न्याय दे दिए जाते हैं, जिससे कि एक बड़ा अन्याय किया जा सके।”- ब्रेख्त

2024 का जनादेश आ गया और यह भी तय हो गया कि भाजपा को पूर्ण बहुमत न मिलने के कारण यह एनडीए की सरकार होगी। इस जनादेश को किस तरह देखा जाए? क्या मोदी ब्रांड असफल हो गया? संघ परिवार ने हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद का मिश्रण करके जिस तरह से दो चुनावों में रिकॉर्ड तोड़ सफलता हासिल की थी, क्या वह मिथक अब टूट गया? वास्तव में यह जनादेश उसी तरह जटिल और बिखरा हुआ है, जिस तरह का भारतीय समाज है। इस जनादेश ने सभी को कुछ न कुछ खुश होने का मौका दे दिया। कांग्रेस की सीट पिछले आम चुनाव से दोगुनी हो गई। सपा-कांग्रेस को क़रीब-क़रीब 43 सीटें मिल गई। बिहार में कम्युनिस्ट पार्टी माले को बहुत वर्षों बाद दो सीटें मिल गईं। उत्तर प्रदेश के नगीना लोकसभा सीट से चर्चित दलित युवा नेता चंद्रशेखर (रावण) चुनाव जीत गए। पंजाब में दो ऐसे उम्मीदवार भी चुनाव जीत गए, जिन्हें खालिस्तान समर्थक माना जाता है, जिनमें से एक जेल में बंद हैं।

गुजरात के बाद उत्तर प्रदेश फासीवाद की दूसरी बड़ी प्रयोगशाला रही है, यहीं पर अयोध्या में इसी वर्ष जनवरी में राममंदिर का कथित उद्घाटन करके पूरे उत्तर भारत में ज़बरदस्त धार्मिक उन्माद फैलाया गया,संघ के कार्यकर्ता घर-घर पहुंचे। यहीं पर वाराणसी में विश्वनाथ मंदिर और मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि-ईदगाह विवाद को हवा देकर लगातार उन्माद फैलाने की कोशिश की गई, परन्तु इसी उत्तर प्रदेश में भाजपा की जबरदस्त चुनावी हार हुई, भाजपा की सीटें 64 से घटकर 37 रह गईं। इन जीती हुई सीटों में भी हार-जीत का मामूली अंतर है।

बनारस से सटे हुए 13 सीटों में से पहले जीती हुई 10 सीट भाजपा हार गई,अमेठी से स्मृति ईरानी चुनाव हार गईं। भाजपा इस बार अयोध्या तक को भाजपा नहीं बचा पाई,जो लल्लू सिंह संविधान बदलने के लिए 400 सीट मांग रहे थे, मतदाताओं ने उन्हें ही संसद जाने से रोक दिया। खुद प्रधानमंत्री अपनी सीट मुश्किल से बचा पाए, 10-12% मतदाताओं ने इस बार प्रधानमंत्री मोदी को वोट नहीं दिया, जिन्होंने पिछली बार पूर्ण समर्थन दिया था। जीत का अंतर भी सम्मानजनक नहीं रह गया। पिछली बार 4,79000 वोटों के अंतर से जीतने वाले मोदी इस बार केवल 1,50000 वोटों तक सिमट गए।

अब प्रश्न यह है कि उत्तर प्रदेश के जनादेश से क्या पूरे देश का विश्लेषण किया जा सकता है? ऐसा बताया जा रहा है कि भाजपा द्वारा 400 सीट का नारा उनके लिए उल्टा पड़ा, विपक्षी गठबंधन ने यह प्रचार किया कि यह संविधान बदलकर आरक्षण समाप्त करने का प्रयास है, इसके अलावा परीक्षा घोटाला, अग्निवीर योजना, बढ़ती बेरोज़गारी तथा किसान आंदोलन के प्रभाव ने भी भाजपा को उत्तर प्रदेश के लोकसभा चुनाव में धक्का पहुंचाया, परन्तु क्या यह जनादेश भाजपा के हिन्दुत्व की राजनीति की असफलता है?

अगर अग्निवीर योजना देखी जाए वो सेना में बड़े पैमाने पर उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के नौजवान भी जाते हैं, परन्तु यहां भाजपा को भारी सफलता मिली। महंगाई और बेरोज़गारी का प्रश्न मध्यप्रदेश या झारखंड में क्या नहीं था, लेकिन वहां पर भाजपा को शत-प्रतिशत सफलता मिली तथा वोटों का प्रतिशत भी बढ़ गया। ओडिशा में इस बार भाजपा की सरकार बनी, कर्नाटक में कांग्रेस की सरकार होते हुए भी भाजपा के वोटों का प्रतिशत बढ़ा और सीटें भी बढ़ीं। केरल में-जो आमतौर पर कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी का गढ़ माना जाता है, वहां पहली बार लोकसभा में भाजपा का एक प्रत्याशी चुनाव जीत गया।

वास्तव में भारतीय समाज में फासीवाद के लिए हमेशा उर्वर भूमि तैयार रहती है। पिछले दस वर्षों में भाजपा ने नफ़रत और अलगाव का खाद-पानी देकर इस ज़मीन को और उपजाऊ बनाया। इस बार लोकसभा में केवल 24 ही मुस्लिम सांसद चुनाव जीत पाए, जो कि अब तक के भारतीय संसदीय इतिहास में सबसे कम है। अब लोकसभा की कुल संख्या में मुसलमानों की हिस्सेदारी केवल 4.42% है। अब तक की दूसरी सबसे कम हिस्सेदारी है। 1980 में रिकॉर्ड 49 मुस्लिम सांसद चुने जाने के बाद और 1984 में 45 मुस्लिम सांसद (सदन का 8.3%) चुने जाने के बाद लोकसभा में मुसलमानों की संख्या 40 से ऊपर नहीं गई है।

पिछले तीन लोकसभा चुनावों में मुस्लिम सांसदों का अनुपात 5% से नीचे चला गया है, जबकि 2011 की जनगणना के अनुसार कुल आबादी में मुसलमानों की हिस्सेदारी 14% है। प्रमुख दलों में 2019 और 2014 के लोकसभा चुनावों की तुलना में इस साल कम मुसलमान चुनाव मैदान में थे। इनकी संख्या 11 प्रमुख दलों ने कुल 82 मुस्लिम उम्मीदवार उतारे हैं, जिनमें से 16 जीते हैं। 2019 में इन दलों ने 115 उम्मीदवार उतारे थे, जिनमें से 16 विजेता बने थे।

संघ परिवार ने हिन्दुत्व का जो मैदान बनाया है,उसी पर सभी राजनीतिक दल खेल रहे हैं। कांग्रेस तथा समाजवादी पार्टी ने भी गिने-चुने मुस्लिम उम्मीदवारों को ही टिकट दिया था। भाजपा ने पिछले दस वर्षों में बड़े पैमाने पर दलित और पिछड़ों की राजनीति करने वाले छोटे-छोटे दलों को हिन्दुत्व की राजनीति से जोड़ा तथा एनडीए गठबंधन में उन्हें अपना सहयोगी बनाया। आश्चर्यजनक बात यह है कि एनडीए में बिहार के सभी घटक दल दलित-पिछड़ों की राजनीति करने वाली पार्टियां हैं।

आंध्र प्रदेश में तेलगु देशम का जनाधार भी दलित-पिछडे़ और मुस्लिम ही हैं। उत्तर प्रदेश के बारे में कहा जा रहा है कि यहां पर सपा गठबंधन ने भाजपा की फासीवादी राजनीति को पलट दिया। वास्तव में यह अर्द्धसत्य ही है। सपा ने इस बार रणनीतिक तौर पर यादव उम्मीदवारों की जगह अन्य पिछड़े वर्ग के उम्मीदवारों को टिकट दिया, जिसमें रणनीतिक रूप से इंडिया गठबंधन को फ़ायदा हुआ।

उत्तर प्रदेश के अलावा जहां भी भाजपा का कांग्रेस से सीधा मुकाबला हुआ, वहां कांग्रेस को हार का मुंह देखना पड़ा। इसके क्या कारण हैं? वास्तव में ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के सिवा कांग्रेस ने भाजपा फासीवादी राजनीति के ख़िलाफ़ कोई अभियान नहीं चलाया, यही हाल उत्तर प्रदेश में सपा का था। इसके विपरीत भाजपा ने लगातार इन दस वर्षों में अपने राजनीतिक और सांस्कृतिक उपकरणों के माध्यम से हिन्दुत्व की राजनीति को मजबूत किया तथा सब कुछ निजी कॉरपोरेट के हवाले कर दिया।

दुनिया भर में फासीवाद गहन आर्थिक संकटों के कारण पैदा हुआ है। भारत में यद्यपि फासीवाद की ज़मीन पहले ही से हमेशा तैयार रहती है, आर्थिक संकटों ने इसे और गहरा किया, जिसके फलस्वरूप हिन्दू फासीवाद जिन्न सामने आया। जिन पार्टियों को सामाजिक न्याय की पार्टियां कहा जाता है, उन्हें भी सरकारी नौकरियों में आरक्षण की सीमा से बांध दिया गया, जबकि नव उदारवादी नीतियों ने क़रीब 90-95% सरकारी नौकरियों को समाप्त कर आरक्षण की अवधारणा को ही ख़त्म कर दिया।

दुनिया भर के पूंजीवादी अर्थशास्त्री सरकारों को यह सलाह दे रहे हैं कि ग़रीबों के हाथ में कुछ पैसा दिया जाए, जिससे कि आर्थिक मंदी दूर हो और कॉरपोरेट का माल बिकता रहे और किसी तरह की सामाजिक क्रांति से बचा जा सके, लेकिन स्थायी रोजगार की बात कोई नहीं कर रहा है, क्योंकि नव उदारवादी नीतियां रोजगारविहीन विकास की अवधारणा देती हैं। कांग्रेस और भाजपा दोनों की ही इन नीतियों पर आम सहमति है।

यही कारण है कि इन चुनावों में भाजपा ने दलित-पिछड़ों में अपना आधार मजबूत किया है, मंत्रीपद देने में भी ये चीज़ें देखी जा सकती हैं। वास्तव में भाजपा अपने दूरगामी फ़ायदे के लिए एक क़दम पीछे हटी है, परन्तु यह सोचना कि नायडू-नीतीश की बैसाखी पर टिकी होने की वजह से यह कमजोर सरकार होगी, यह पूरी तरह से सही नहीं है। यहां तक शासकवर्ग की अंदरूनी तिकड़मों और सौदेबाज़ी का सवाल है, तो निश्चय ही इसके मुख्य पृष्टपोषक क्रोनी कैप्टलिस्ट कॉरपोरेट घरानों को थोड़ा पीछे हटकर कुछ क्षेत्रीय शक्तियों के साथ समझौता करना पड़ेगा, जिन्हें पिछले एक दशक में अंबानी, अडानी और टाटा जैसे गुजराती मोनोपोली कॉरपोरेट के लिए स्थान छोड़ना पड़ा था, उनके लिए अब अडानी,अंबानी और टाटा को कुछ स्थान छोड़ना पड़ेगा।

उदाहरण के लिए- 2011 के शेयर बाजार के बूम में अहम रहे इंफ्रा क्षेत्र के वे हैदराबादी कॉरपोरेट: जिन्हें एक समय ‘आंध्राप्रेन्यर्स’ कहा जाता था, फिर से अपने लिए जगह बनाने का पूरा प्रयास करेंगे, सरकार के कमज़ोर होने का यह अर्थ कतई नहीं कि मेहनतकश विरोधी नीतियों पर कोई ख़ास फ़र्क पड़ेगा। साम्राज्यवादी नीतियां जारी रहेगी, कुछ लुभावने ऐलान ज़रूर हो सकते हैं, पर कोई वास्तविक बदलाव नहीं होगा, इसलिए भी कि इन नीतियों से विपक्षी इंडिया गठबंधन का भी कोई बुनियादी विरोध नहीं है, अंत: मेहनतकश उत्पीड़ित जनता की स्थितियां इससे बदलने वाली नहीं हैं, अपितु और भी बदतर होने की संभावना है।

लेखक और कवि आलोक श्रीवास्तव फेसबुक पोस्ट पर लिखते हैं कि “कांग्रेस समर्थकों की सोच यह है कि इस चुनाव में आधा रास्ता तय हुआ है,अगले चुनाव या मध्यावधि तक बाकी आधा रास्ता भी तय हो जाएगा। मेरी सोच यह है कि यह यात्रा रिवर्स की ओर जाएगी। भाजपा आने वाले कुछ समय में अपनी क्षतिपूर्ति कर लेगी, क्योंकि कांग्रेस गठबंधन को मिली सफलता वास्तव में किसी सामाजिक उद्वेलन का परिणाम नहीं है, वह मुख्यतः वोटों के गणित का अस्थायी परिणाम है। बीजेपी का मुख्य संकट मोदी के उत्तराधिकार का संकट है, न कि कांग्रेस गठबंधन से मिलने वाली कोई चुनौती। दरअसल बीजेपी-आरएसएस का विकल्प जिस सामाजिक प्रक्रिया से उपजना चाहिए, वह विपक्ष के एजेंडे में नहीं है। एक दूरगामी ऐसी राजनीति: जो भारतीय समाज में नवजागरण और समाजवाद को स्थापित कर सके।”

(स्वदेश कुमार सिन्हा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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