कुछ दिनों पहले एक फोटो वायरल हो रहा था जहां नरेंद्र मोदी किसी पेपर पर साइन कर रहे हैं और अमेरिका के राष्ट्रपति उनके पीछे खड़े हैं। भारत की मीडिया ने उसे भारत के विदेश नीति की सफलता के रूप में दिखाया जहां पर अमेरिका जैसे शक्ति हमारे पीछे खड़ी है। हालांकि यह एक अतिशयोक्ति से ज्यादा कुछ नहीं समझा जाना चाहिए पर भारतीय मीडिया ने उसे ऐसे प्रोजेक्ट किया जैसे वही हकीकत हो। वहीं इंस्टाग्राम के एक पेज “द तत्व इंडिया” (बिना स्पेस के सर्च करें) ने इस फोटो पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए लिखा कि “वी मिस्ड यू अलॉट, लेट्स मेक इंडिया ग्रेट अगेन”(हमने आपको बहुत मिस किया, फिर से भारत को महान बनाते है)। इस लाइन से यह बात तो स्पष्ट है कि भारत अपने दम से तो महान बन नहीं रहा है और उसे हमेशा किसी न किसी सहारे की जरूरत पड़ी हो है और आज भी यही सच प्रासंगिक है।
जहां भारतीय जनता के सामने विदेश नीति का लोहा मनवाया जा रहा है वहीं यह जानना बेहद जरूरी है कि क्या यह साख भारत की है या उसके पीछे खड़े शक्तियों जैसे अमेरिका, वर्ल्ड बैंक, आईएमएफ और एडीबी जैसी संस्थाएं हैं। इसलिए एक व्यापक अर्थ में हम इस लेख में भारत की नीति का चीन के साथ मूल्यांकन करने का प्रयास करेंगे और जानने की कोशिश करेंगे कि भारत चीन को कितना आंख दिखा पा रहा है और कितना आंख दिखा पाने में सक्षम है।
25 दिसंबर 2024 को चीनी सरकार ने एक बड़े प्रोजेक्ट की घोषणा की जिसपर जितनी व्यापक चर्चा होनी चाहिए वो हुई नहीं। चीन ने ब्रह्मपुत्र नदी के ऊपर दुनिया के सबसे बड़े जलविद्युत परियोजना को मंजूरी प्रदान की जिसकी क्षमता 60 गीगावाट हैं। इससे बड़ी बात ये है कि इस योजना का निर्माण तिब्बत क्षेत्र के मैडॉक काउंटी में स्थित सांगपो नदी के ऊपर में की गई है। जानकारी के लिए, ब्रह्मपुत्र नदी को चीन में सांगपो नदी के रूप में जाना जाता है और यही नदी बांग्लादेश में जाने के बाद जमुना के नाम से भी जाना जाता है।
हालांकि इस योजना का आना कोई बड़े आश्चर्य का सवाल नहीं था क्योंकि चीन ने अपने 14वीं पंचवर्षीय योजना में इसका स्पष्ट जिक्र किया था जिसका कार्यकाल 2021–25 है। परन्तु 26 नवंबर 2020 को, चीन पावर कंस्ट्रक्शन ग्रुप कंपनी के अध्यक्ष यान झिंगयान के बयान ने इस परियोजना के बारे में अपना वक्तव्य रखते हुए यह स्पष्ट किया था कि “यह योजना राष्ट्रीय सुरक्षा, जल संसाधन और घरेलू सुरक्षा के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण है।” इसमें राष्ट्रीय सुरक्षा का प्रश्न उठने की प्रासंगिकता को समझना बेहद आवश्यक है।
भारतीय विदेश मंत्रालय ने जब इस मुद्दे को लेकर चिंता जाहिर की तब चीन ने आश्वस्त कराया कि “वह इसका ध्यान रख रहे हैं कि डाउनस्ट्रीम क्षेत्रों को कोई नुकसान न पहुंचे। दूसरी तरफ चीनी अधिकारियों ने यह भी दावा किया है कि वह पारिस्थितिकी को किसी भी तरह से अनदेखा करने के पक्ष में नहीं हैं।” वहीं भारतीय विदेश मंत्रालय ने यह बात दोहराई कि वह इस परियोजना पर बारीकी से नजर रखेंगे। हालांकि इस परियोजना के बनने से जल संसाधन पर चीन के विशेष नियंत्रण को नकारा नहीं जा सकता है
2017 में भारतीय सेना और पीपल्स लिबरेशन आर्मी लगभग सत्तर दिनों तक एक स्टैंडऑफ में रही। डोकलाम क्षेत्र का वह विवाद कई दिनों तक समाचार और उसकी सुर्खियों में बना रहा जहां चीन द्वारा बनाए जा रहे सड़क प्रोजेक्ट का भारत द्वारा भी विरोध किया जा रहा था जिसमें दोनों तरफ की सेनाओं के मध्य झड़प की खबरें भी आईं थीं। परन्तु उसके बाद सीमा के पास की खबरों को या तो काफी दबाया गया या उसको हटाते हुए और खबरों को वरीयता दी जाती थी, परन्तु बड़ा सवाल यही है कि क्या सीमा शांत रही?
जी नहीं। 2019 की रिपोर्ट के मुताबिक चीन की सेना पीएलए ने 600 से ज्यादा बार लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल को लांघा है। वहीं 108 बार से ज्यादा हवाई सीमा को लांघने का सफल प्रयास किया है। उसका एक व्यापक परिणाम हमें 2020 में देखने को मिला जब मई महीने में गलवान घाटी में चीन की एक बड़ी सेना सीमा को लांघती हुई अरुणाचल प्रदेश क्षेत्र में घुस आई थी जिसके बाद राजनाथ सिंह ने “चीन से बातचीत” प्रारंभ की।
जब दोनों देशों के सेनाध्यक्ष के बीच वार्ता चल रही थी तब चीनी सेना अपनी संख्या सीमा पर बढ़ाते हुए दबाव बना रही थी। वहीं 15 जून को गलवान घाटी से 20 भारतीय जवानों के मारे जाने की खबर आती है और चीन की तरफ से मारे जाने वालों के डेटा का खुलासा नहीं किया जाता है। परन्तु भारतीय मीडिया ने इसे ऐसे चलाया कि भारतीय सेना ने 40 चीनी जवान मारे हैं।
भारतीय और चीनी अर्थव्यवस्था का भी मूल्यांकन होना बेहद जरूरी है जो विद्या नीति को काफी हद तक एकतरफा रूप से प्रभावित करता है। 2023 के आर्थिक आंकड़ों पर नजर डालें तो बैलेंस ऑफ ट्रेड (BoT) व्यापक रूप से चीन के पक्ष में हैं। जहां भारत की BoT 80 ट्रिलियन के नुकसान में है वहीं चीन का BoT 700 ट्रिलियन के फायदे में है। जिसका मतलब है कि इस नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था में चीन ने अपने उत्पादन और विनिर्माण क्षेत्र को बेहतर काम करते हुए काफी आगे है भारत से।
एक दूसरा बड़ा सवाल है जिसे मैंने अपने फिसकल रिस्पांसिबिलिटी एंड बजट मैनेजमेंट के लेख में भी लाने की कोशिश की थी कि भारत ने लगातार निर्माण क्षेत्रकों में सरकारी सहयोग को कम किया है और विदेशी निवेश पर बल दिया है वहीं चीन ने इसके विपरीत अपने विनिर्माण और औद्योगिक क्षेत्रकों को काफी सहयोग प्रदान किया है। वहीं भारत की डेब्ट टू जीडीपी अनुपात जहां 57.1 प्रतिशत से आगे बढ़ रही है वहीं ब्रिटिश एक्सपर्ट ऑफ इकोनॉमिस्ट एंड एनालिटिक्स का डेटा यह कहता है कि 2024 में चीन का यह आंकड़ा मात्र 13. 4 प्रतिशत है। जिसका बड़ा तात्पर्य यह है कि चीन की अर्थव्यवस्था कर्ज में अर्थव्यवस्था को नहीं चला रही है।
कर्ज की अर्थव्यवस्था चलने के क्या नुकसान हैं यह पूरी तरीके से एक विस्तृत विश्लेषण की मांग करता है परन्तु अभी के लिए यह समझना जरूरी है कि भारतीय अर्थव्यवस्था के जो ट्रेंड्स हैं वह आने वाले भविष्य में भी चीनी अर्थव्यवस्था का मुकाबला नहीं कर सकते हैं। वहीं रक्षा बजट के मामले में चीन जहां अपने कुल बजट का मात्रा 1.5 प्रतिशत खर्च करते हुए भी भारत की तुलना में 3 गुना ज्यादा खर्च करता है।
इन सारे आंकड़ों को निकाल कर देखें तो यह बात स्पष्ट है कि भारतीय मीडिया लोगों को भयानक रूप से गुमराह करने का प्रयास कर रही है। जहां तक सामरिक सुरक्षा का प्रश्न है भारत को एक व्यापक अर्थव्यवस्था बनने की तरफ बढ़ना होगा न कि उसे कोई बनवाए। अगर अमेरिका और चीन आज व्यापक तरक्की के रस्ते पर हैं उसकी एक बड़ी स्वनिर्भरता है जिसका कोई विकल्प नहीं हो सकता है।
(निशांत आनंद स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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