मोदी की ‘स्ट्रॉन्गमैन’ छवि टूटने के नतीजों पर नज़र

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आम चुनाव के नतीजों से नरेंद्र मोदी के रुतबे पर स्थायी किस्म का प्रहार हुआ है। मोदी 2001 में गुजरात के मुख्यमंत्री बने थे। तब से उनकी सियासी हैसियत चढ़ती गई, तो इसका प्रमुख कारण यही धारणा थी कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के अपने खास फॉर्मूले से हर हाल में वे मजबूत जनादेश पा लेने में सक्षम हैं। यह धारणा बनी कि चुनावी लोकतंत्र में जन-कल्याण के आम तकाजे से वे बंधे हुए नहीं हैं। इस तकाजे को ताक पर रख कर भी वे लगातार चुनाव जीतते रहने की काबिलियत रखते हैं।

मोदी की इस छवि के कारण पहले देश के कॉरपोरेट सेक्टर ने उन पर अपना दांव लगाया। बाद में जब वे इसी खूबी की बदौलत प्रधानमंत्री बन गए, तो विदेशी वित्तीय पूंजी ने भी उन्हें भारत में अपना सबसे बेहतरीन दांव मान लिया। मोदी कॉरपोरेट और वित्तीय पूंजी के हितों को आगे बढ़ाते हुए धीरे-धीरे पश्चिमी शासक वर्ग का पसंदीदा चेहरा बन गए। इस हद तक कि मोदी को खुश रखने में वहां के लिबरल ऐस्टैबलिशमेंट को भी अपना हित नजर आने लगा। इसीलिए जब कभी भारत में दमन या बुनियादी आजादियों के हनन की बात आई, वहां की सरकारों ने आंख मूंद लेना ही बेहतर समझा।

जिस समय पश्चिम की प्राथमिकता चीन को घेरना है और इस नीति के कारण पश्चिमी पूंजीपतियों को सस्ते श्रम का एक नया केंद्र और एक नया बाजार चाहिए, उनकी निगाह में मोदी के भारत का महत्त्व बढ़ता ही चला गया। उनकी राय थी कि इन दोनों मामलों में नरेंद्र मोदी उन्हें वह सब दे सकने में सक्षम हैं, जिनकी उन्हें बेहद जरूरत है। इस तरह मोदी की मजबूती में पश्चिमी वित्तीय पूंजी और वहां के सैन्य-रणनीतिकार अपना हित देखने लगे। उनकी राय थी कि मोदी ऐसे मजबूत नेता हैं, जो वह सब डिलीवर कर सकते हैं, जिनकी उन्हें इस समय एशिया-प्रशांत क्षेत्र में जरूरत है।    

2024 के भारतीय जनादेश से उनके इसी भरोसे पर चोट पहुंची है। उससे वहां कैसा असमंजस पैदा हुआ है, इसकी झलक वहां के विश्लेषकों और मीडिया की टिप्पणियों में देखी जा सकती है। बहुराष्ट्रीय पूंजी, पश्चिमी सामरिक हितों, और पश्चिमी उदारवाद के किसी एक मुखपत्र को अगर चुनना हो, तो बेशक वह ब्रिटिश पत्रिका द इकॉनमिस्ट होगी। ताजा जनादेश पर उसकी दुविधा भरी टिप्पणी अपने-आप में काफी कुछ कह देती है।

पत्रिका ने यह टिप्पणी ‘भारतीय लोकतंत्र की विजय’ (A triumph for Indian democracy (economist.com)) शीर्षक के तहत छापी है। आरंभ में चुनाव नतीजों का स्वागत करते हुए लिखा गया है- ‘दुनिया के सबसे बड़े मतदाता समूह ने यह दिखाया है कि जमीनी हकीकत से कटे प्रभु वर्ग को किसी तरह फटकार लगाई जा सकती है, कैसे सत्ता के केंद्रीकरण को सीमित किया जा सकता है, और किस तरह देश की नियति को बदला जा सकता है।’ मगर भारतीय जनादेश के प्रति द इकॉनमिस्ट का उत्साह अधिक देर तक नहीं टिकता। इसी टिप्पणी में आगे चल कर उसने कहा है-

“गठबंधन सरकारों के दौर में आर्थिक परिवर्तन लाना कठिन हो जाता है। छोटी पार्टियां सत्ता के अधिक लाभ की मांग करेंगी, जिससे निर्णय प्रक्रिया बाधित हो सकती है। भारत की आर्थिक वृद्धि दर 6-7 प्रतिशत से नीचे गिरने की संभावना नहीं है, लेकिन कल्याण योजनाओं पर अधिक खर्च के कारण महत्त्वपूर्ण निवेश में कटौती करनी पड़ सकती है। यही वजह है कि चुनाव नतीजों पर आरंभिक प्रतिक्रिया के तौर पर शेयर बाजारों में छह फीसदी की गिरावट देखी गई।” 

इसके बाद पत्रिका ने निवेशकों को ढांढस बंधाने की कोशिश की है। कहा है- “ये खतरे वास्तविक हैं। चुनावी वायदों के कारण ये और ज्यादा बढ़ गए हैं। लेकिन अब चूंकि विपक्ष में नई जान आ गई है, इसलिए भारत के तानाशाही में तब्दील होने की संभावना घट गई है। भाजपा और उसके सहयोगी दलों को दो तिहाई बहुमत नहीं मिला है, जो संविधान में संशोधन करने के लिए जरूरी है। निराश निवेशकों को यह याद रखना चाहिए कि उनकी ज्यादातर संपत्तियों की कीमत पांच साल की अवधि से बंधी हुई नहीं है।”

अभी ज्यादा समय नहीं गुजरा, जब इसी पत्रिका ने मोदी पर अपनी कवर स्टोरी बनाई थी। उस अंक के अपने संपादकीय (How strong is India’s economy? (economist.com)) में उसने भारत की आर्थिक उन्नति संबंधी मोदी सरकार के दावों को बिना किसी आलोचनात्मक जांच-परख के स्वीकार करते हुए लिखा था- ‘भूमंडलीकरण के पलटने के दौर में और एक स्ट्रॉन्गमैन लीडरशिप के तहत कैसे धनी बना जाए, मोदी का भारत इस बात का एक प्रयोग है। क्या भारत तेजी से आर्थिक वृद्धि हासिल करेगा और क्या वह अगले 10 से 20 वर्षों तक उथल-पुथल से बचा रह पाएगा, इससे 1.4 अरब लोगों तथा दुनिया की अर्थव्यवस्था का भविष्य तय होगा। हमारी रिपोर्ट (For its next phase of growth, India needs a new reform agenda (economist.com)) में यह बताया गया है कि मोदी का फॉर्मूला कारगर है।’

इस रिपोर्ट का शीर्षक गौरतलब है- ‘अगले चरण के ग्रोथ के लिए भारत को नए सुधार एजेंडे की जरूरत है।’ यहां जिस रिफॉर्म एजेंडे की वकालत द इकॉनमिस्ट ने की थी, वह दरअसल वही एजेंडा है, जिसकी मांग वित्तीय पूंजी के पैरोकार करते हैं। पत्रिका की टिप्पणी से जाहिर है कि इस एजेंडे पर कारगर अमल के लिए स्ट्रॉन्गमैन के रूप में मोदी की उपस्थिति अनिवार्य थी। ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के मुताबिक स्ट्रॉन्गमैन वैसे नेताओं को कहा जाता है, जो धमकी, ताकत और हिंसा के इस्तेमाल से शासन करते हैं और असहमति की गुंजाइश नहीं छोड़ते।

2024 के चुनाव नतीजों से जाहिर है कि भारत के आम मतदाताओं के एक बड़े हिस्से ने मोदी के स्ट्रॉन्गमैन रूप और उनके कथित रिफॉर्म एजेंडे को ठुकरा दिया है। इससे हैरत में पड़े अमेरिकी अखबार न्यूयॉर्क टाइम्स ने अपनी रिपोर्ट में कहा- ‘अचानक नरेंद्र मोदी का अभेद्य होने का आभामंडल चकनाचूर हो गया है।’ (Modi Claims 3rd Term in India, but His Party Suffers Losses – The New York Times (nytimes.com))

अब चूंकि मोदी अब अभेद्य नहीं दिख रहे, तो मार्केट की एजेंसियों ने अंदेशा जताना शुरू कर दिया है कि गठबंधन पर निर्भर सरकार के लिए दूरगामी प्रभाव वाले सुधारों को लागू करना अधिक कठिन हो जाएगा। वे यह भय पैदा करने में जुट गई हैं कि अगर “सुधारों” के रास्ते में रुकावट आई, तो भारत की आर्थिक विकास की संभावनाएं कमजोर हो जाएंगी। चुनाव नतीजों की घोषणा के एक दिन बाद ही अमेरिका स्थित दो क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों को यह भी याद आया कि भारत की अर्थव्यवस्था में युवा बेरोजगारी की ऊंची दर और घटते प्रत्यक्ष विदेशी निवेश जैसी ढांचागत कमजोरियां हैं। और ऊपर से अब सरकार के लिए “सुधार” करने की राह भी कठिन हो गई है।

फिच रेटिंग्स के निदेशक जेरम जूक ने कहा- तीसरे कार्यकाल में भाजपा सरकार को अपने गठबंधन सहयोगियों पर निर्भर रहना होगा। इस कारण जमीन और श्रम से संबंधित विवादास्पद सुधारों को लागू करना उसके लिए ज्यादा मुश्किल हो जाएगा, जबकि भाजपा ने चुनाव के दौरान इन्हें अपनी प्राथमिकता बताया था। एक अन्य रेटिंग एजेंसी मूडी’ज के वरिष्ठ उपाध्यक्ष क्रिश्चियन डी गुजमैन ने चेतावनी दी कि गठबंधन की मजबूरी में सरकार को कल्याणकारी योजनाओं पर खर्च बढ़ाना पड़ सकता है, जिसका असर राजकोषीय सेहत पर पड़ेगा। उन्होंने याद दिलाया कि भारत की राजकोषीय और ऋण संबंधी स्थिति इंडोनेशिया, थाईलैंड, और फिलीपीन्स जैसे समकक्षीय देशों से कमजोर है।

ये टिप्पणियां इस बात का ठोस संकेत हैं कि भारत के चुनाव नतीजों से बहुराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के अनुमानों को झटका लगा है। इसकी वजह यह है कि उनके दांव अब गड़बड़ा गए हैं। बहुराष्ट्रीय पूंजी को भरोसा मोदी की स्ट्रॉन्गमैन छवि पर था, जो इस चुनाव के बाद उतना स्ट्रॉन्ग नहीं दिख रहा है। नतीजतन, वित्तीय पूंजी के पैरोकार संस्थानों को तमाम असहमतियों को दरकिनार रखते हुए उनके सुझाए एजेंडे पर अमल कर पाने की मोदी और उनकी सरकार की क्षमता संदिग्ध महसूस होने लगी है। चूंकि पश्चिमी सत्ता तंत्र पर आज इसी पूंजी का नियंत्रण है, तो लाजिमी है कि वहां की सरकारों की निगाह में भी मोदी की उपयोगिता पर पुनर्विचार होने लगे। मोदी सरकार ना सिर्फ बहुराष्ट्रीय पूंजी के मुताबिक भारतीय अर्थव्यवस्था को ढाल रही थी, बल्कि उसने पश्चिमी रणनीतिक ढांचे के मुताबिक भारत की विदेश नीति को भी ढाला था। जाहिर है, मोदी के कमजोर पड़ने की धारणा बनी, तो उस सामरिक ढांचे के संचालकों का भरोसा भी डिगेगा।

फिलहाल क्या सूरत है, इसका अंदाजा पश्चिमी मीडियाकर्मियों की टिप्पणियों से मिलता है। अमेरिकी विदेश मंत्रालय को कवर करने वाले फ्रांस की समाचार एजेंसी एएफपी के संवाददाता शॉन टंडन ने एक विश्लेषण में लिखा है- ‘… भाजपा को सीटों के हुए नुकसान से मोदी को गले लगाने के पक्ष में अमेरिका सरकार के अंदर दिया जाने वाला यह तर्क कमजोर पड़ सकता है कि मोदी ऐतिहासिक महत्त्व वाले शक्तिशाली व्यक्तित्व हैं और भारत में सिर्फ उनका ही महत्त्व है। अमेरिका भारतीय संवेदनशीलताओं को लेकर सचेत रहा है। वह अपनी खास चिंता वाले विषयों में भी मोदी के खिलाफ जाने वाली अपनी बात सार्वजनिक तौर पर कहने से बचता रहा है। मगर अब वॉशिंगटन की नजर मोदी उपरांत काल (post Modi era) पर टिक सकती है। वहां यह समझ बन सकती है कि भविष्य में भारत से रिश्ता हिंदुत्व से कम प्रेरित रहेगा।’ (The great election over, the view from Washington – The Hindu)

ऐसा ही अनुमान अमेरिका के मुख्य प्रतिद्वंद्वी देश चीन में भी लगाया गया है। वहां के सरकार समर्थक अखबार ग्लोबल टाइम्स में एक टिप्पणी में भारत के ताजा चुनावों को देश के इतिहास में एक टर्निंग प्वाइंट बताया गया है। कहा गया है कि इससे मोदी कमजोर हुए हैं, जिन्होंने अमेरिका के साथ करीबी संबंध बनाए हैं। मगर अब नई स्थितियों में अमेरिका उनके बारे में पुनर्मूल्यांकन कर सकता है। (Modi claims victory for a third term, but it seems more like a loss – Global Times)

ये अनुमान वैश्विक समीकरणों से संबंधित हैं। मगर पुनर्मूल्यांकन सिर्फ वहीं सीमित नहीं होगा। जिस भारतीय कॉरपोरेट सेक्टर ने अपने धन और प्रचार तंत्र से मोदी की ‘महा-मानव’ की छवि बनाई, अब उसके सामने भी अपने दांव पर फिर से विचार की जरूरत आ सकती है। इस चुनाव में उसके पूरे समर्थन और मोदी के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण फॉर्मूले की साझा शक्ति ने अपना पूरा जोर लगाया। लेकिन चुनाव नतीजों ने उनकी सीमाएं स्पष्ट कर दी हैं। इन बड़ी ताकतों के अपनी तरफ होने के बावजूद अगर मोदी भाजपा को बहुमत नहीं दिला पाए, तो यह समझ बनेगी कि उनकी धार चूकने लगी है। उत्कर्ष से ढलान की तरफ उनका सफर शुरू हो गया है। तो जो ताकतें उगते सूरज को प्रणाम करती हैं, वे अब आगे का दांव नए सिरे से तय करने के लिए प्रेरित हो सकती हैं।

यह सब तुरंत होगा, यह मानना शायद सही ना हो। तात्कालिक तौर पर मुमकिन है कि कॉरपोरेट लॉबी अपनी ताकत दूसरे खेमों से सांसद जुटा कर एक या दो सहयोगी दलों पर भाजपा की अत्यधिक निर्भरता घटाने की कोशिश करें। फ़ौरी राजनीतिक अस्थिरता को दूर करना उनकी प्राथमिकता होगी। विदेशी पूंजी भी तुरंत मोदी से मुंह नहीं मोड़ेगी। इसी तरह पश्चिमी देशों को अपनी भारत संबंधी रणनीति को अंतिम रूप देने में वक्त लगेगा। मगर अब मोदी को उनका जो समर्थन मिलेगा, वह संभवतः संक्रमण काल में अपने हितों की रक्षा के लिए होगा। यह उन सबके लिए एक अप्रिय और अनचाही स्थिति है। लेकिन स्थिति का उत्पन्न होना यह संदेश देता है कि मोदी पर अपना सारा दांव लगा कर चली रही शक्तियों की गणना फिलहाल गड़बड़ा गई है।

और यही भारतीय आवाम के लिए एक अवसर है। यहां से वे इन ताकतों के कसे शिकंजे से भारतीय राजसत्ता को मुक्त कराने की दिशा में पहल कर कर सकते हैं। स्पष्टतः राष्ट्रीय संप्रभुता- जो जन हित और जनता की पहल में निहित हो- उसे फिर से हासिल करने की जन आकांक्षाओं को ताजा चुनाव नतीजों से बल मिला है।

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)

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