डॉ. शाह आलम खान का लेख: हर भारतीय के लिए डार्विन का जैवविकास पढ़ना क्यों जरूरी है? 

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‘राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद’ (एनसीईआरटी) द्वारा मिडिल और हाईस्कूल के लिए प्रकाशित पाठ्यपुस्तकों में कुछ ऐसे अध्याय हटा दिये गये हैं, जो अभी तक बच्चों में वैज्ञानिक सोच के विकास के लिए आवश्यक माने जाते थे। हटाये गये अध्यायों में से सबसे अधिक ध्यान देने योग्य हैं, कक्षा 9 और कक्षा 10 की विज्ञान की पाठ्यपुस्तकों से जैवविकास पर अध्याय और तत्वों की आवर्त सारणी पर अध्याय। ‘एनसीईआरटी’ ने कहा है कि कोविड महामारी के मद्देनजर पाठ्यक्रम को “तर्कसंगत” बनाने की जरूरत थी, उसी कोशिश के तहत ये अध्याय हटाये गये हैं। 

नवंबर 1859 में ‘ऑन द ओरिजिन ऑफ स्पिशीज’ के प्रकाशन के समय से ही डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत की धार्मिक आस्था-आधारित निंदा जारी है। अधिकांश धर्मों और धार्मिक समाजों की सबसे सुरक्षित और संरक्षित मान्यताओं में से एक यह है कि मनुष्य का निर्माण ईश्वर ने किया है। सऊदी अरब, मोरक्को, अल्जीरिया और ओमान अपने स्कूलों या विश्वविद्यालयों में विकासवाद नहीं पढ़ाते हैं। मिस्र और ट्यूनीशिया में, विकासवाद पढ़ाया तो जाता है, लेकिन इसे “अप्रमाणित परिकल्पना” के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।

बहुत पुरानी बात नहीं है, जब संयुक्त राज्य अमेरिका के कुछ राज्यों ने या तो विकासवाद के शिक्षण पर प्रतिबंध लगा रखा था या “ईश्वर द्वारा निर्मित सृष्टि” के सिद्धांत के साथ-साथ इसे भी पढ़ाने का फैसला किया हुआ था। जैवविकास के शिक्षण पर इन प्रतिबंधों को हटाने के लिए देश के सर्वोच्च न्यायालय को कई ऐतिहासिक फैसले करने पड़े थे। लुइसियाना, फ्लोरिडा, कोलोराडो और टेनेसी राज्य तो ऐसे कानून/विधेयक पारित करना चाहते थे ताकि शिक्षकों को विकासवाद न पढ़ाने का विकल्प मिल जाए। इस तरह, नये ज्ञान पर परदा डालने वाले और रूढ़िवादी लोग शुरू से ही डार्विन का विरोध करते रहे हैं, इसलिए इसमें हैरत की बात नहीं, कि इस विरोध की कोई भौगोलिक सीमा नहीं है।

इस बात पर जोर देना बहुत महत्वपूर्ण है कि जैवविकास को भारत में स्कूल स्तर पर पढ़ाया जाना अत्यंत जरूरी है। एक ऐसे देश में, जो संस्थागत हो चुकी जाति-व्यवस्था और विभिन्न प्रकार की असमानताओं के बोझ तले दबा हुआ है, वहां प्रारंभिक चरण से ही जैवविकास का शिक्षण बच्चों में आलोचनात्मक चिंतन-प्रक्रिया को आकार देने और संस्थागत भेदभाव के खिलाफ तर्कों को तेज करने में मदद करता है। कार्ल मार्क्स ने डार्विन को अपनी पुस्तक, ‘पूंजी’ (पहला खंड) उपहार में दिया था। उसे पढ़कर उस महान वैज्ञानिक ने उन्हें खत लिखा, “हालांकि हमारे अध्ययन के विषयों में काफी भिन्नता है, फिर भी मेरा मानना ​​है कि हम दोनों ईमानदारी से ज्ञान का विस्तार करना चाहते हैं और यह काम, लंबे समय में, निश्चित रूप से मानव-जाति की खुशियों में इजाफा करेगा।” धार्मिक पांडुलिपियों की दंतकथाओं की तुलना में जैवविकास को पढ़ने और समझने में ही इंसान की सच्ची खुशी है।

‘एनसीईआरटी’ का दावा है कि कोविड के बाद पाठ्यक्रम को “तर्कसंगत” बनाने के क्रम में केवल उन हिस्सों को हटाया गया है, जिनका दोहराव हो रहा था, और कक्षा 11 और 12 के विज्ञान पाठ्यक्रम में जैवविकास पर अध्यायों को बरकरार रखा गया है। फिर भी, यह दृष्टिकोण दो कारणों से तर्कहीन है।

सबसे पहले, जैवविकास का शिक्षण अब उन छात्रों तक सीमित होगा जो कक्षा 11 में विज्ञान विषय चुनते हैं। ‘नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ़ एजुकेशन, प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन’ की 2016 की रिपोर्ट के आंकड़ों से पता चलता है कि भारत में माध्यमिक स्तर पर स्कूल छोड़ने की दर 17 से 27 प्रतिशत के बीच है, जिसमें लिंग, जाति और आर्थिक कारण महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ‘राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय’ (एनएसएसओ) के 75वें दौर के आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि 18 वर्ष और उससे अधिक आयु की 74 प्रतिशत आबादी ने 12वीं कक्षा तक पहुंचने से पहले ही स्कूल छोड़ दिया था। ‘एनसीईआरटी’ के पाठ्यक्रम को “तर्कसंगत” बनाने की इस मुहिम के बाद ढेरों युवा छात्र जैवविकास का अध्ययन करने का अवसर खो सकते हैं। 

दूसरी बात, कि प्राथमिक या माध्यमिक विद्यालय के बच्चों को जैवविकास पढ़ाने का महत्व उन्हें केवल वैज्ञानिक ज्ञान प्रदान करने से कहीं अधिक है। यह एक समग्र वैज्ञानिक विकास की समझ का हिस्सा है, जिससे होकर बच्चों को स्कूल के दौर में ही गुजरना चाहिए। बच्चों में जैवविकास की मूल बातों की समझ विकसित करने का अर्थ, उन्हें सामाजिक-धार्मिक रूढ़ मान्यताओं के दायरे से परे जीवन की प्रक्रिया को समझने के लिए उनके मानसिक क्षितिज को व्यापक बनाना है। इससे विचार पैदा होते हैं और तर्कसंगत सोच विकसित होती है। यह यथास्थिति पर सवाल उठाने की क्षमता पैदा करता है। विज्ञान समाज द्वारा खुद अपने बारे में असहज प्रश्न पूछकर और इनके बारे में बहसें शुरू करके समाज की मदद करता है। ‘एनसीईआरटी’ को विज्ञान की इस अक्षय शक्ति पर जोर देना चाहिए था।

एक उपभोक्तावादी दुनिया में, राष्ट्र “अपनी छवि गढ़ने” के माध्यम से कार्य करते हैं। भारत को एक हिंदू राष्ट्र बनाने के अपने प्रयासों के बावजूद, सरकार बाकी दुनिया के सामने अच्छा दिखना चाहती है। इसलिए, स्कूल की पाठ्यपुस्तकों से जैवविकास के अध्यायों को हटाना अपनी एक खराब छवि पेश करने का काम है। प्रतिष्ठित वैज्ञानिक पत्रिका, ‘नेचर’ ने पाठ्यक्रम को “तर्कसंगत” बनाने के इस क़दम पर एक संपादकीय लिखा है। उसमें कहा गया है कि हाल के दिनों में भारत अपने प्राचीन ज्ञान पर गर्व कर रहा है। इसमें आगे लिखा गया है, कि “भारत ऐसा एकमात्र उत्तर-औपनिवेशिक देश नहीं है जो इस सवाल से जूझ रहा है कि अपने स्कूली पाठ्यक्रम में ज्ञान के पुराने या स्वदेशी रूपों को कैसे सम्मान और मान्यता दी जाए। न्यूज़ीलैंड भी देश भर के चुनिंदा स्कूलों में अपने आदिम जनजातीय ‘माओरी’ लोगों के ‘जानने के तरीकों’ – मातौरंगा माओरी – को पढ़ाने का परीक्षण कर रहा है। हांलांकि यह एक अच्छी सोच है, फिर भी वहां इस नयी सामग्री को समायोजित करने के लिए किसी भी महत्वपूर्ण वैज्ञानिक सामग्री को हटाया नहीं जा रहा है।” 

लेकिन एनसीईआरटी उस “अच्छी सोच” को देखने में विफल रही है।

(‘द इंडियन एक्सप्रेस’ से साभार। डॉ. शाह आलम खान एम्स, नयी दिल्ली में प्रोफेसर हैं।अनुवाद : शैलेश)

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