यह जुमला अभी आम लोगों की जुबान पर नहीं चढ़ा है, लेकिन जितने बड़े पैमाने पर आजकल निचली अदालतों से जगह-जगह मस्जिदों के नीचे मंदिर का पता लगाने के लिए खुदाई के आदेश आ रहे हैं, उसे देखते हुए लगता है कि जल्द ही पूरे भारत की खुदाई का महापर्व शुरू होने वाला है।
हालांकि आज देश की सर्वोच्च अदालत इस मुद्दे पर तीन सदस्यीय खंडपीठ में चीफ जस्टिस संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति पीवी संजय कुमार और न्यायमूर्ति केवी विश्वनाथन की बेंच को उपासना स्थल अधिनियम पर मामले की सुनवाई कर देश को अपना फैसला सुनाया जाना है।
लीगल वेब पोर्टल, बार एंड बेंच की ताज़ा खबर के मुताबिक, अभी-अभी शाम 4 बजे सर्वोच्च अदालत की खंडपीठ ने बेहद अहम फैसला सुनाते हुए कहा है कि जब तक यह Places Of Worship Act पर मामला तय नहीं हो जाता है, तब तक देश की कोई भी अन्य अदालत में इस तरह की संरचनाओं के धार्मिक चरित्र को विवादित करने वाले सूट दाखिल नहीं करेंगे और न ही मौजूदा धार्मिक संरचनाओं के खिलाफ कोई प्रभावी आदेश या सर्वेक्षण का आदेश पारित करेंगे।
इसके साथ ही पीठ का कहना है कि 1991 के पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम इस तरह के मुकदमों की गुंजाइश को स्पष्ट रूप से प्रतिबंधित करता है और जब तक 1991 की वैधता के बारे में अंतिम फैसला नहीं हो जाता, तब तक इसमें आगे कोई पहल नहीं की जा सकती है।
खंडपीठ ने साथ ही स्पष्ट किया है कि सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के द्वारा अयोध्या मामले के फैसले में इस बात की पुष्टि की गई थी।
इसके साथ ही कोर्ट ने निर्देशित किया है कि “जैसा कि मामला अभी इस अदालत के सामने सब-जुडिस है, हम यह निर्देश देते हैं कि कोई ताजा सूट पंजीकृत नहीं किया जाएगा और न ही कार्यवाही का आदेश दिया जा सकता है।
लंबित मुकदमों के संदर्भ में अदालतें किसी भी प्रभावी आदेश या अंतिम आदेशों को पारित नहीं करेंगी। जब कोई मामला हमारे सामने लंबित होता है, तो क्या यह किसी भी अन्य अदालत में परीक्षण के लिए उचित हो सकता है? हम सभी अधिनियम के अधीन होने के साथ-साथ इसके दायरे के भीतर हैं।”
इसके साथ ही अब से कोई नया मामला किसी भी अदालत में सुनने के लिए पेश नहीं किया जा सकता है। बता दें कि खंडपीठ 1991 के पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम के स्थानों के चुनौतीपूर्ण प्रावधानों के एक बैच की सुनवाई कर रही थी।
वर्ष 2019 में जब सर्वोच्च न्यायालय ने अयोध्या विवाद पर फैसला सुनाया था, तभी से हिंदुत्वादी संगठनों की ओर से कहा जा रहा था कि अयोध्या तो झांकी है, मथुरा काशी बाकी है।
और इसके बाद ही काशी के ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा के शाही ईदगाह मस्जिद पर मामला अदालत से पुरातत्व विभाग के सर्वेक्षण और नमूनों की जांच के बहाने एक ऐसी अंतहीन सांप्रदायिक बहस और विवाद को जन्म देने लगा था, जिसका कोई सिर-पैर नहीं खोजा जा सकता है।
सबसे ताजा विवाद जौनपुर की अटाला मस्जिद को लेकर उठा है, जिसमें हिंदू पक्षकारों की दलील है कि 14वीं शताब्दी में उक्त मस्जिद को अटाला देवी मंदिर को तोड़कर मस्जिद का निर्माण किया गया है। जौनपुर के ही साहित्यकार और इतिहासविद ब्रिजेश यदुवंशी का इस बारे में कहना है कि अटाला मस्जिद भारतीय पुरातत्व विभाग के अधीन है।
जौनपुर शहर का निर्माण फिरोजशाह तुगलक ने किया था, और 1376 में उन्होंने इस मस्जिद की नींव रखी थी। बाद में इब्राहिम शाह शर्की ने 1408 में इस मस्जिद का पूर्ण निर्माण किया था। तबसे यह मस्जिद आबाद है।
वहीं हिंदू पक्ष के लोगों का दावा है कि जयचंद राठौर ने 13 वीं शताब्दी में अटाला मंदिर का निर्माण कराया था, जिसके जवाब में ब्रजेश कहते हैं कि, “जयचंद राठौर ने जौनपुर नहीं जाफराबाद को बसाया था, और वहां पर आज भी उनके किले के अवशेष मिल जायेंगे।
और जो यह दावा किया जा रहा है कि अटाला मस्जिद में गुड़हल और कमल के फूल के चिन्ह मिलते हैं, तो उसके पीछे बौद्ध धर्म के विहार और शिक्षा केंद्र रहे हैं, जिनके पत्थरों को निकालकर मंदिर भी बने हैं और मस्जिद भी बनाये गये हैं। इसके आधार पर इसे मंदिर नहीं कहा जा सकता है।”
फिलहाल बनारस की ज्ञानवापी और मथुरा की शाही मस्जिद के अलावा 9 और स्थानों पर मामला विचाराधीन चल रहा है। इसमें से एक है दिल्ली के क़ुतुब मीनार में कुव्वत अल मस्जिद को लेकर विवाद, जिसे 2021 में अदालत ने ख़ारिज कर दिया था।
दूसरा है, उत्तर प्रदेश के संभल में शाही जामा मस्जिद बनाम हरिहर मंदिर। अदालत के द्वारा ऐन चुनाव से एक दिन पहले सर्वेक्षण के आदेश की झट से तामील की गई, और कुछ दिन बाद फिर जब सर्वे टीम के साथ हिंदुत्ववादी संगठन के लोगों ने नारेबाजी के साथ इस इलाके में प्रवेश किया तो पुलिस के साथ झड़प में 5 मुस्लिम युवाओं की मौत हो गई।
इसी प्रकार कर्नाटक के मैंगलोर में जुम्मा मस्जिद को लेकर भी विवाद चल रहा है। 2022 में यह मामला अदालत में गया, जो कि अभी विचाराधीन है। मध्य प्रदेश के धार जिले में भोजशाला में वाग्देवी (सरस्वती मंदिर) का विवाद भी 2022 से जारी है, जो कि फिलहाल सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन है।
यूपी के बंदायू जिले में शम्शी जामा मस्जिद पर भी 2022 में ही हिंदू पक्ष की ओर से नीलकंठ महादेव मंदिर होने का दावा ठोक दिया गया था। उक्त मस्जिद का निर्माण 13वीं शताब्दी में इल्तुतमिश के द्वारा कराया गया था।
उत्तर प्रदेश के फतेहपुर सीकरी में स्थित जामा मस्जिद पर भी हिंदू पक्ष कामख्या देवी मंदिर का दावा कर रहे हैं। यहां पर दावा किया जा रहा है कि मस्जिद के नीचे कटरा केशव देव की मूर्तियां हैं। फिलहाल मामला विचाराधीन है।
हाल ही में, सबसे सनसनीखेज दावा अजमेर के ख्वाज़ा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह, अजमेर शरीफ पर किया गया है। इसके बारे में हिंदू पक्षकारों का दावा है कि यहां पर एक शिव मंदिर था, जिसे जमींदोज कर अजमेर शरीफ दरगाह का निर्माण किया गया। यह मामला भी अभी विचाराधीन चल रहा है।
इसके अलावा, दावा तो यहां तक किया जा रहा है कि देश में हजारों मस्जिदों के नीचे हिंदू देवी-देवताओं के मंदिर दबे पड़े हैं। खास बात यह है कि जून 2024 में लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद से ऐसे दावों की बाढ़ सी आ गई है।
विशेषकर उत्तर प्रदेश, जहां का चुनाव परिणाम किसी भी लिहाज से भारतीय जनता पार्टी के लिए सुखद नहीं रहा, जिसके नतीजे के तौर पर भाजपा तीसरी बार पूर्ण बहुमत की सरकार बना पाने में कामयाब नहीं हो सकी।
पिछले दस साल की महंगाई, बेकारी और पिछड़ों, दलितों एवं अल्पसंख्यकों पर बढ़ते अत्याचार से ध्यान हटाने के लिए आजादी के बाद से ही हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण सबसे अचूक हथियार रहा है।
ऐसे में देश के सामने आखिरी उम्मीद अगर कोई थी तो वह न्यायपालिका थी, लेकिन पूर्व चीफ जस्टिस, डी वाई चन्द्रचूड़ का मई 2022 में यह कथन ‘भारत खोदो अभियान’ में जुटे समूहों के खूब काम आया, जहां पर उनका कहना था कि हालांकि पूजा स्थल अधिनियम के तहत किसी भी धार्मिक स्थल की प्रकृति को नहीं बदला जा सकता है, किंतु किसी स्थान के धार्मिक चरित्र का पता लगाने से कानून का उल्लंघन नहीं होगा।
भले ही चन्द्रचूड़ साहब ने यह बात अपने किसी फैसले में न लिखी हो, लेकिन देश को उन्माद की आग में झोंकने वालों को तो इस एक वाक्य ने जैसे संजीवनी प्रदान कर दी है।
मौजूदा चीफ जस्टिस, संजीव खन्ना अपने बेहद सीमित कार्यकाल के दौरान इस अंधड़ को कितना रोक पाते हैं और न्यायपालिका के दामन में लगे धब्बे को किस हद तक धो-पोंछ सकते हैं, यह तो आने वाला वक्त ही बतायेगा।
(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)
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