डॉनल्ड ट्रंप की वापसी के सबक

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चुनाव पूर्व जनमत सर्वेक्षणों में अनुमान कांटे की टक्कर का लगाया गया था, लेकिन परिणाम लैंडस्लाइड के रूप में सामने आया है। डॉनल्ड ट्रंप अमेरिका के 47 वें राष्ट्रपति चुन लिए गए हैं। उनके पक्ष में चली आंधी पर सवार होकर उनकी रिपब्लिकन पार्टी ने कांग्रेस (संसद) के ऊपरी सदन सीनेट में बहुमत हासिल कर लिया है।

निचले सदन हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव में भी वह बड़ी जीत की तरफ बढ़ रही है। अनेक राज्यों में हुए गर्वनरों के चुनाव पर गौर करें, तो उसमें भी रिपब्लिकन पार्टी का दबदबा नजर आता है। 

अमेरिका में ध्रुवीकृत होती गई राजनीति में राष्ट्रपति चुनाव का फैसला मुख्य रूप से चंद बैटल ग्राउंड राज्यों के परिणाम से ही होता है। इस चुनाव में सात राज्य- अरिजोना, नेवाडा, विस्कॉन्सिन, जॉर्जिया, नॉर्थ कैरोलीना, मिशिगन और पेनसिल्वेनिया बैटल ग्राउंड समझे गए थे।

इन पंक्तियों के लिखे जाने तक सबसे अहम माने गए पेनसिल्वेनिया के साथ-साथ जॉर्जिया और नॉर्थ कैरोलीना ट्रंप के पाले में जा चुके हैं। बाकी चार राज्यों में भी उन्होंने महत्त्वपूर्ण बढ़त बना रखी है। अगर नतीजे इसी ट्रेंड के अनुरूप रहते हैं, तो सभी सात राज्य ट्रंप के पाले में जाएंगे। ऐसा होने का अंदाजा अमेरिकी चुनाव के किसी भी पंडित को नहीं था। 

इन नतीजों से सत्ताधारी डेमोक्रेट्स अपने को लहूलुहान महसूस करेंगे। डेमोक्रेटिक पार्टी ने हवाई आंकड़ों के आधार पर अर्थव्यवस्था में जो बाइडेन प्रशासन के शानदार प्रदर्शन और दुनिया भर में लोकतंत्र की रक्षा करने के उसके कथित रिकॉर्ड के आधार पर 2024 के चुनाव का नैरेटिव तैयार किया।

लेकिन हकीकत से परिचित हर जानकार वाकिफ था कि जिन आर्थिक आंकड़ों को बाइडेन प्रशासन अपनी कामयाबी मानता है, उनका संबंध आबादी के चंद धनी तबकों से है। बाकी आम श्रमिक एवं मध्य वर्ग की मुसीबतें इस प्रशासन के दौरान बढ़ती चली गई थीं, जिनके लिए एक हद तक खुद उसकी नीतियां भी जिम्मेदार रही हैं।

2020 में बाइडन की टीम ने छात्रों का कर्ज माफ करने, स्वास्थ्य देखभाल व्यवस्था को सर्व सुलभ बनाने, जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए ठोस कदम उठाने और न्यूनतम मजदूरी में बड़ी बढ़ोतरी का वादा किया था। लेकिन ये तमाम वादे खोखले साबित हुए।

इनसे समाज में बढ़े असंतोष का अंदाजा अगर डेमोक्रेटिक पार्टी के प्रबंधक नहीं लगा पाए, तो इससे यही कहा जाएगा कि अमेरिका के आम जन मानस से उनका संबंध पूरी तरह कट चुका है। 

ऊपर से युद्ध को प्राथमिकता बना कर बाइडेन प्रशासन ने देश पर अतिरिक्त बोझ डाल दिया। यूक्रेन से जुड़े विवाद का हल बातचीत से निकालने की रूसी राष्ट्रपति व्लादीमीर पुतिन की पेशकश को नजरअंदाज कर बाइडेन प्रशासन ने यूक्रेन युद्ध की पृष्ठभूमि तैयार की। चुनाव का वक्त आते-आते इस दांव की विफलता जग-जाहिर हो चुकी है। 

वैसे यह मुमकिन है कि यूक्रेन युद्ध का इस चुनाव पर ज्यादा असर ना हुआ हो। मगर यही बात गजा में फिलस्तीनियों के जारी मानव संहार के बारे में नहीं कही जा सकती। बेशक नरसंहार इजराइल कर रहा है, लेकिन उसे बाइडेन प्रशासन की मिली शह साफ है।

इससे अमेरिकी समाज में व्यग्रता व्यापक रूप से फैली है। खासकर नौजवान समूह, अरब मूल के अमेरिकी और मुस्लिम अल्पसंख्यक मानव संहार में अमेरिकी हाथ से बेहद खफा हैं, यह सबके सामने था। ये वो समुदाय हैं, जो परंपरागत रूप से डेमोक्रेटिक पार्टी के वोटर रहे हैं।

यह सब कुछ इतना स्पष्ट होने के बावजूद डेमोक्रेट्स ने इस तबके को आश्वस्त करने की कोई ठोस पहल नहीं की। नतीजतन, इन तबकों में डेमोक्रेट्स को दंडित करने का भाव गहराता गया। चुनाव का समय आते-आते यह निर्णायक पहलू बन गया। 

इन पंक्तियों के लिखे जाने तक मिशिगन राज्य में 82 फीसदी वोटों की गिनती हो चुकी थी और ट्रंप ने तीन लाख 18 हजार वोटों से बढ़त बना रखी थी। हाल के हर चुनाव में डेमोक्रेटिक पार्टी के लिए मिशिगन राज्य अति महत्त्वपूर्ण रहा है।

इस राज्य में अब मूल के अमेरिकियों की बड़ी संख्या रहती है। यहां डेमोक्रेट्स की संभावित हार का कारण निर्विवाद रूप से उन वोटरों की नाराजगी ही है। 

पार्टी की उम्मीदवार चुनने की प्रक्रिया में डेमोक्रेट्स ने जो बाइडेन को प्रत्याशी चुना था। जब बाइडेन फिर से उम्मीदवारी की होड़ में उतरे, तब तक उनकी मानसिक क्षमता में गिरावट (वे डिमेंशिया से पीड़ित हैं) की खबर चर्चा में आ चुकी थी। धीरे-धीरे ये समस्या बढ़ती गई।

ट्रंप के साथ बहस के दौरान जिस तरह डिमेंशिया के लक्षण उनमें उभरे, उसे देखते हुए उनकी उम्मीदवारी निश्चित हार का सौदा लगने लगी।

इसका अहसास पार्टी प्रबंधकों को भी हुआ। तो उन्होंने अभियान के बीच में उप राष्ट्रपति कमला हैरिस को उम्मीदवार बना डाला, जबकि हैरिस की लोकप्रियता शुरू से संदिग्ध थी। फिर भी प्रेरणादायक तत्व के पूरे अभाव वाली इस शख्सियत से ट्रंप जैसे करिश्माई नेता का मुकाबला करने की उम्मीद डेमोक्रेट्स ने जोड़ी।

जैसा कि ताउम्र पार्टी के नेता रहे, लेकिन पार्टी प्रबंधकों से खफा होकर इस चुनाव में ट्रंप को अपना समर्थन देने वाले रॉबर्ट एफ. केनेडी ने कहा था कि डेमोक्रेटिक पार्टी के अंदरखाने के संचालकों ने मध्यमार्गी मेनस्ट्रीम मीडिया और ओपिनियन पोल एजेंसियों से मिल कर ट्रंप पर हैरिस की बनावटी बढ़त दिखाने की रणनीति बनाई।

इससे कुछ समय के लिए हैरिस आगे चलती नजर आईं। लेकिन पार्टी का बड़ा वोट आधार उसके कदमों के नीचे से खिसक चुका था, उस हाल में ऐसे बनावटी हथकंडों से बैतरणी पार होने की कोई गुंजाइश नहीं थी।

इस पृष्ठभूमि में यह कहा जा सकता है कि ट्रंप की लहर पैदा करने में सबसे बड़ा रोल खुद डेमोक्रेटिक पार्टी ने निभाया। ट्रंपिज्म अमेरिकी समाज और राजनीति की लगातार कड़वी हकीकत बना हुआ है। ट्रंप के धुर दक्षिणपंथी, विज्ञान विरोधी, बेतुके और नफरत भरे एजेंडे के इर्द-गिर्द मजबूत ध्रुवीकरण हुआ है।

डेमोक्रेट्स की सोच थी कि इसका भय खड़ा कर वे अपनी बैतरणी पार कर लेंगे। लेकिन ऐसी नकारात्मक रणनीतियां अक्सर नाकाम रहती हैं और वहीं 2024 के चुनाव में हुआ है।

सबक यह है कि ट्रंपिज्म जैसी परिघटना का मुकाबला सिर्फ वैकल्पिक आर्थिक नीति एवं समाज निर्माण की बड़ी सोच पर आधारित कार्यक्रम के जरिए ही किया जा सकता है। हाल के वर्षों में एक के बाद दूसरे देश में लगातार यह साफ होता गया है कि मध्यमार्गी राजनीति अब टिकाऊ नहीं रही।

उसके पांव के नीचे की जमीन खिसक चुकी है। ऐसे में ट्रंपिज्म जैसी परिघटनाओं का मुकाबला रैडिकल वामपंथी नीतियों के जरिए ही किया जा सकता है। यह बात इससे भी साबित होती है कि 2016 और 2020 में जब बर्नी सैंडर्स डेमोक्रेटिक सोशलिस्ट एजेंडे के साथ डेमोक्रेटिक पार्टी की उम्मीदवारी को होड़ में उतरे थे, तो वे अपने-आप में एक परिघटना बन गए थे।

लेकिन दोनों बार पार्टी प्रबंधकों ने अनुचित ढंग से उनकी उम्मीदवारी की संभावना खत्म कर दी। 

दूसरी तरफ ट्रंप का उदय हुआ, जो रिपब्लिकन पार्टी को मध्यमार्ग से खींच कर धुर दक्षिणपंथ की तरफ ले गए। इस तरह वे एक परिघटना बन गए।

उनके नेतृत्व में अब रिपब्लिकन पार्टी ने लैंडस्लाइड जीत हासिल की है। इस परिणाम से दुनिया भर में धुर दक्षिणपंथ और नफरती एजेंडे पर टिकी सियासत का मुकाबला कर रही पार्टियां अगर कुछ सबक ले सकती हैं, तो वो यही है कि मध्यमार्ग चल कर वे आत्मघात की तरफ जाएंगी।

नई परिस्थितियों में अब धुर दक्षिणपंथ और रैडिकल वामपंथ में सीधे मुकाबले की सूरत बन रही है। इस तथ्य की अनदेखी कर डेमोक्रेट्स ने वो हालात तैयार किए, जिसमें डेमोक्रेट्स को दंडित करना उनके परंपरागत समर्थकों की भी सर्वोच्च प्राथमिकता बन गया। 

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं।)

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