बाजार, मोदी और प्रशांत किशोरः चुनाव के अंतिम दौर में भाजपा का एक और दांव

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लोकसभा चुनाव, 2024 का अंतिम दौर आ चुका है। इसी दौरान एनडीटीवी के एडीटर इन चीफ संजय पुगलिया ने प्रशांत किशोर का एक साक्षात्कार लिया। हिंदी और अंग्रेजी मिश्रित भाषा में बोलने वाले प्रशांत किशोर ने इस साक्षात्कार में सिर्फ मोदी की जीत का ही ऐलान नहीं किया, बल्कि विपक्ष की कमजोरी और बेवकूफियों के बारे में बात करते हुए यह भी बताया कि राहुल गांधी कोई विकल्प ही नहीं हैं। इसी साक्षात्कार में संजय पुगलिया ने बताया कि वह मुंबई के दक्षिणी भाग से बोल रहे हैं, जहां कम वोट प्रतिशत होने के चलते शेयर बाजार में अस्थिरता आई। वह प्रशांत किशोर से इस संदर्भ में आगामी परिणामों का अनुमान लगाने के लिए सवाल पूछ रहे थे।

शेयर बाजार, जिसकी गतिविधियों के बारे में ठीक-ठीक अनुमान लगाना आसान नहीं है, इस लोकसभा चुनाव में जैसे-जैसे वोट का प्रतिशत कम होता दिखाई दिया वैसे-वैसे इस बाजार में बेचैनी बढ़ती हुई दिखी। वोट देने के उत्साह में यह कमी निश्चित ही शासक पार्टी के प्रति अरूचि को ही दिखा रहा था। यदि विपक्ष का वोट स्थिर भी रहे, तब भी वोट के प्रतिशत में गिरावट सरकार चला रही पार्टी और उसके नेतृत्व के प्रति रूझान की कमी का स्पष्ट प्रदर्शन है। शेयर बाजार जिन रास्तों पर पिछले दस सालों से चल रहा है, उसमें दिख रहे थोड़े व्यवधान से निश्चित ही बेचैन होगा।

खुद मोदी बाजार को आश्वस्त करने के लिए गोदी मीडिया संस्थानों को एक के बाद आयोजित साक्षात्कार दे रहे थे और बहुमत हासिल कर लेने का आश्वासन दे रहे थे। इस तरह के आयोजन, खासकर तब और बढ़ गये जब दूसरे चरण में ही मोदी-शाह की जोड़ी और भाजपा का प्रचारतंत्र 400 पार के नारे से पीछे हट गया। तीसरे चरण तक आते आते भाजपा राहुल गांधी के द्वारा पेश किये गये मुद्दों पर बोलने लगे और झूठ को प्रचारित करने की गति और भी तेज हो गई। इस समय तक खुद मोदी ने अपने भाषणों में अडानी और रिलायंस का नाम लेने और उन्हें भ्रष्टाचार के संदर्भ में उल्लेख करने के लिए मजबूर हो गये।

तीसरे चरण तक आते-आते साफ दिखने लगा था बाजार और उसकी शक्तियां काफी बेचैनी का अनुभव कर रही थीं। इसी दौरान द इंडियन एक्सप्रेस को वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने साक्षात्कार दिया। वह अन्य साक्षात्कारों में कही हुई बातों को ही दुहराते हुए यहां भी कहा कि सरकार रॉबिनहुड पॉलिसी नहीं अपना सकती। यह कथन भी एक आर्थिक मोर्चे पर चल रही बहसों का ही हिस्सा था। यहां वह स्वच्छंद पूंजी विचरण की नीति की बात कर रही थीं जिसे वह आगे बढ़ाने की मंशा रखती हैं। यह निश्चित ही रघुराम राजन और अन्य आर्थिक सिद्धांतकारों और उससे भी अधिक राहुल गांधी द्वारा पेश किये गये लघुउद्यमों पर जोर देने की नीति की एक परोक्ष आलोचना थी।

कोविड महामारी के बाद से भारत के बहुसंख्यक आर्थिक सिद्धांतकार सरकार द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र में अधिक खर्च करने पर जोर देते रहे हैं। लेकिन, मोदी सरकार की दिशा कुछ और ही थी। वह नोटबंदी और उसके बाद कोविड की तबाही से पूंजी बाजार में छोटी पूंजी को बर्बाद होने के लिए छोड़ दिया। इन्हीं की पूंजी का बड़े पैमाने पर बड़ी पूंजी के मालिकों ने कब्जा करना शुरू किया। इसमें बैंक और वित्त संस्थानों ने बड़ी भूमिका निभाई है।

भारतीय अर्थव्यवस्था में नीचे की तरफ जाने पर बर्बादी का पूरा संसार दिखता है, जिसमें एक आम युवा और मेहनतकश रोजमर्रा के जीवन जीने की लड़ाई लड़ रहा है। वहीं ऊपर की तरफ बढ़ें तो संपदा और पूंजी का विशाल संसार दिखाई दे रहा है। ऐसा नहीं है कि यह ढांचा सिर्फ अर्थव्यवस्था में दिख रही है, यह भारत के लोकतंत्र में पार्टी संरचना में भी दिख रही है।

भाजपा ने विभिन्न पार्टियों और उनके नेताओं को अपने पक्ष में करने के लिए उन सारे हथकंडों को अपनाया जैसा एक बड़ी पूंजी का मालिक छोटी पूंजी को हड़पने के लिए करता है। जो पार्टी इस तरह के अधिग्रहण से दूर रहते हुए अपनी उपस्थिति बनाना चाहती है, उसे वह कानून के विभिन्न धाराओं में उलझा कर नष्ट करना चाहती है जिससे कि उसके धारकों को अपने पक्ष में आने के लिए मजबूर किया जा सके।

एनडीटीवी ने जिस समय और जिस तरह से उनका साक्षात्कार लिया वह बहुत ही ध्येयपूर्ण दिखता है। इसमें बाजार को आश्वस्त करने और मोदी के ही वापस आने, विपक्ष की कमजोरियों को उजागर करने और राहुल गांधी पर उनके व्यक्तित्व को दरकिनार कर देने वाली टिप्पणी करना, उसी नैरेटिव को दिखाता है जिसे भाजपा और उसका मीडिया लंबे समय से प्रचारित करता आ रहा है। चुनाव में सीट और जीत का अनुमान लगाना एक सामान्य सी बात है। इसका विश्लेषण भी एक आम बात है और परिणाम आने के बाद आंकड़ों के साथ बात करना भी एक राजनीतिक महत्व की बात है।

लेकिन, जब चुनाव की प्रक्रिया चल रही हो और उसमें उठाये जा रहे मुद्दे लगातार चर्चा का विषय बना हुआ हो, खुद प्रधानमंत्री एक ऐसी रणनीति को अपना रहे हों जिससे भ्रम, बंटवारा, तनाव और धार्मिक रंग की बयार बहाने की कोशिशें हों, तब इतना तो सवाल बनता ही है कि एक शासक पार्टी ऐसा क्यों कर रही है? इस पर न तो सवाल था और न ही जबाब देने वाले की ओर से कोई चिंता।

प्रशांत किशोर जब अपने जबाब में बताते हैं कि संविधान में यह प्रावधान है कि बहुमत की सीट से सरकार बनाई जा सकती है, यही नियम है तब वह बाजार को आश्वस्त करते हुए लगते हैं कि इतना घबराने की जरूरत नहीं है। यह शेयर बाजार के उन खिलाड़ियों को भी आश्वस्त करते हुए लगते हैं जो खुलेआम अखबरों में बयान दे रहे थे कि हमें पोल ओपिनियन में आ रहे बहुमत से काफी उम्मीदें हैं लेकिन वोट का प्रतिशत जिस तरह से आ रहे हैं उसकी उम्मीद तो नहीं थी। इस बयान में शेयर बाजार के खिलाड़ियों की चिंता यही है कि मोदी का जादू टूट रहा है और जनता में उनके प्रति भक्तिभाव खत्म हो रहा है। उन्हें चिंता है कि मोदी का बहुमत भले ही आ जाये, नीचे जनता पर उनकी पकड़ कमजोर हो रही है।

बहरहाल, संवैधानिक लोकतंत्र का आमतौर पर पतन बहुसंख्या के बल पर और कई बार इस लोकतंत्र में घुसे भ्रष्टाचार के चरम पतन की वजह सेना और एक पार्टी द्वारा सत्ता पर काबिज हो जाने का इतिहास भरा पड़ा है। यह तानाशाही सत्ता से लेकर फासीवादी सत्ता तक में अपने को अभिव्यक्त करता है। ये दोनों ही एक प्रक्रिया में घटित होते हैं जिसमें लोकप्रियता और नियम-कानूनों का प्रयोग, संसद को चरम सत्ता में बदलना विशिष्ट पक्ष है।

प्रशांत किशोर जैसे लोकतंत्र और उसकी चलने वाली प्रक्रिया के प्रवक्ता जब इन पक्षों पर बोलने से बचते हैं और ‘जनता का दिल’ जीतने पर जोर देते हैं, तब वह लोकतंत्र की उन प्रक्रियाओं को नजरअंदाज कर जाते हैं जो राजनीति शास्त्र की दसवीं की पुस्तक में भी पढ़ाया जाता है। वह खुद भी जमीन पर उतरकर अपना सामाजिक आधार बनाने के लिए कई सारे तौर तरीके और दबाव समूहों का निर्माण करने में लगे हुए हैं, लेकिन उसे मोदी के संदर्भ में लागू नहीं करते। वह विपक्ष द्वारा निर्मित किये जा रहे उस जनसमूह को नहीं देखते जो उनकी सभाओं में उमड़ रहा है और उनके संगठन, पार्टी का हिस्सा हो रहा है। वह पलटकर शेयर बाजार की उन चिंताओं की व्याख्या नहीं करते जिसमें उसके खिलाड़ी मोदी का खिसकता जनआधार देख रहे हैं।

वह सिर्फ बाजार को आश्वस्त करते हुए दिखते हैंः आएगा तो मोदी ही। मुझे नहीं पता कि जून के पहले हफ्ते में किस पार्टी को बहुमत मिलेगा। इतना साफ है आने वाला समय लोकतंत्र के लिए चुनौती भरा है। फासिज्म की जमीन पुख्ता हो रही है। भाजपा यदि जीत कर आती है तब यह और भी पुख्ता होगा और वित्तीय पूंजी का एकाधिकार चरम की ओर जाएगा। यदि विपक्ष की सत्ता बनती है तब लोकतांत्रिकरण की प्रक्रिया एक राजनीतिक उथल-पुथल के रास्तों से गुजरेगी। दोनों ही स्थितियों में जनता को अपनी राजनीतिक समझदारी और पक्षधरता का मजबूत करना होगा और जनपक्षरता के आंदोलन को आगे ले जाना होगा।

(अंजनी कुमार स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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