शेयर मार्केट को लेकर इतनी हलचल क्यों?

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भारत के शेयर बाजारों में हाल में आई गिरावट देश में चल रहे आम चुनाव के बीच एक राजनीतिक मुद्दा बन गया है। शेयर सूचकांक सेंसेक्स 75,124 के अपने सर्वोच्च स्तर से गिरकर एक समय 71,816 पर पहुंच गया। यह 4.4 फीसदी की गिरावट थी। इस मंगलवार को यह 73,891 पर बंद हुआ था। यानी यह लगभग दो प्रतिशत संभल गया।

अगर इतिहास पर गौर करें, तो शेयर सूचकांक में 4.4 प्रतिशत की गिरावट कोई बहुत बड़ी घटना नहीं है। इसके बावजूद यह घटना सरगर्म हो गई, तो उसके पीछे कारण सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी का इसे चुनावी प्रचार का हिस्सा बना देना रहा है।

एक मीडिया इंटरव्यू के दौरान देश के गृह मंत्री अमित शाह ने शेयर बाजार में जारी गिरावट पर टिप्पणी की। उन्होंने कहा कि गिरावट अफवाहों के कारण आई है, तो चार जून के पहले आप शेयर खरीद कर लीजिए। उन्होंने कहा- ‘जब भी देश में स्थिर सरकार आती है, तो बाजार में उछाल आता है। हमारी सीटें 400 के पार जाने वाली हैं। फिर मोदी सरकार आएगी और साथ ही मार्केट में तेजी भी देखने को मिलेगा। हमेशा ऐसा ही हुआ है।’

तब कांग्रेस ने अमित शाह पर डर फैलाने का आरोप लगाया। कहा कि इंडिया गठबंधन की सरकार स्थिर, विश्वसनीय नीति निर्माण, और समग्र समृद्धि के एक नए युग की शुरुआत करेगी। पार्टी नेता जयराम रमेश ने एक बयान में कहा कि मजबूत और समावेशी आर्थिक विकास प्रदान करने में कांग्रेस का रिकॉर्ड बेहतर रहा है। डॉ. मनमोहन सिंह के शासनकाल में आर्थिक विकास और निवेश मोदी सरकार की तुलना में बहुत अधिक था।

कांग्रेस की तरफ से यह याद दिलाया गया कि आर्थिक विकास के मामले में पूर्व यूपीए सरकार का रिकॉर्ड कहीं बेहतर था। दूसरी तरफ मोदी सरकार ने नोटबंदी, जीएसटी, अनियोजित लॉकडाउन आदि जैसे फैसलों से अर्थव्यवस्था को क्षति पहुंचाई। इसके अलावा टैक्स के मामले में उसका रुख “आतंक फैलाने” वाला रहा है। इंडिया गठबंधन की सरकार (अगर बनी तो) इन सबसे मुक्ति दिलाएगी।

जिस रोज कांग्रेस ने यह बयान जारी किया, उसी दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक टीवी चैनल को दिए इंटरव्यू में दावा कि आम चुनाव में भाजपा की बड़ी जीत होगी और उसके बाद शेयर सूचकांक रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंचेंगे। (Exclusive: What Will Markets Be Like After June 4. PM Narendra Modi Says… (ndtv.com). बाद में चुनाव सभाओं में उन्होंने राहुल गांधी के कुछ बयानों का हवाला देते हुए कहा कि कांग्रेस शासित राज्यों में कोई निवेशक पैसा लगाना पसंद नहीं करेगा।

तो निवेश और शेयर बाजार का रुझान एक प्रमुख चुनावी मुद्दा बन चुका है। गौरतलब है कि सिर्फ इसी महीने विदेशी पोर्टफोलियो निवेशक भारतीय बाजार से 28,200 करोड़ रुपये निकाल चुके हैं। अप्रैल में उन्होंने 8,700 करोड़ रुपये यहां से निकाले थे। उसके पहले जब यह माना जा रहा था कि इस आम चुनाव में भाजपा की बड़ी जीत पक्की है, तब रुझान विदेशी निवेशकों के भारत में ज्यादा से ज्यादा पैसा लगाने का था। फरवरी में उन्होंने 1,539 करोड़ रुपये का निवेश किया। मार्च में तो यह बढ़कर 35,098 करोड़ रुपये तक पहुंच गया।


ध्यान देने की बात है कि अप्रैल के मध्य से- खासकर 19 अप्रैल को पहले चरण का मतदान होने के बाद से- यह धारणा प्रचलित हुई है कि चुनाव में भाजपा को वैसा समर्थन नहीं मिल रहा है, जैसी संभावना पहले जताई जा रही थी। बल्कि कुछ विश्लेषक और मीडिया का एक हिस्सा यह कहने लगा है कि भाजपा के लिए बड़ी जीत तो दूर, साधारण बहुमत पाना भी कठिन हो सकता है। ठीक जिस समय ये धारणा बननी शुरू हुई, उसी समय से शेयर बाजारों में गिरावट दर्ज होने लगी। तो स्वाभाविक है कि इन दोनों बातों को संबंधित माना गया है।

यह निर्विवाद है कि विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों के साथ-साथ घरेलू संस्थागत निवेशक भी केंद्र में भाजपा की पूर्ण बहुमत के साथ वापसी चाहते हैं। इसलिए जब चुनाव नतीजों को लेकर अनिश्चिय बनने लगा, तो ये निवेशक आशंकित हुए कि केंद्र में मिली-जुली सरकार बन सकती है। इन निवेशकों को अंदेशा है कि वैसी सरकार ‘मार्केट के अनुकूल’ नीतियों पर उस अक्रामक अंदाज में नहीं चल पाएगी, जैसा नरेंद्र मोदी सरकार ने किया है।

यह तथ्य है कि पिछले दस साल में मोदी सरकार ने अर्थव्यवस्था के वित्तीयकरण (financialization) और उसे अधिक से अधिक औपचारिक बनाने (formalization) के ठोस कदम उठाए हैं। उससे वित्तीय क्षेत्र के निवेशकों को भारी मुनाफा हुआ है। दूसरी तरफ अर्थव्यवस्था के अनौपचारिक (informal) क्षेत्र की कीमत पर औपचारिक (formal) क्षेत्र को मजबूत करने से शेयर बाजार में सूचीबद्ध कंपनियों का मुनाफा तेजी से बढ़ा है।

  • सेंटर फॉर मॉनिटरिंग ऑफ इंडियन इंडस्ट्रीज (सीएमआईई) के मुताबिक 2018-19 से 2022-23 तक 5,000 लिस्टेड कंपनियों की उत्पाद बिक्री (sales) में 52 प्रतिशत वृद्धि हुई। इस दौरान उन्होंने जो कॉरपोरेट टैक्स चुकाया, वह सिर्फ 36 प्रतिशत बढ़ा। यानी टैक्स बिक्री से कम रहा। तो कुल मुनाफे में 187 प्रतिशत की वृद्धि हुई।
  • इसके पहले 2014-15 से 2018-19 के बीच इन कंपनियों का मुनाफा 90 फीसदी बढ़ा था। (There’s a reason why the Indian stock market seems to love the BJP | Mint (livemint.com))

  • इन कंपनियों का मुनाफा बढ़ा, तो उन्होंने शेयर बाजार में अधिक निवेश किया। उनके निवेश से शेयर बाजार में उछाल की जमीन तैयार हुई, जिसकी तरफ विदेशी पोर्टफोलियो निवेशक आकर्षित हुए। इन दोनों तरह के निवेशकों को भारतीय शेयर बाजारों से रिकॉर्ड कमाई हुई है।

  • मोदी सरकार ने नोटबंदी, जीएसटी, और अनियोजित लॉकडाउन जैसे फैसले लेकर देश के अनौपचारिक क्षेत्र की कमर तोड़ दी। इससे बाजार में जगह खाली हुई, उस पर औपचारिक क्षेत्र ने कब्जा जमा लिया है। इन नीतिगत फैसलों की भी औपचारिक क्षेत्र का मुनाफा बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है।

  • इसके अलावा टैक्स नीति के जरिए भी मोदी सरकार ने इस क्षेत्र को मजबूत किया है। उसने कॉरपोरेट टैक्स में भारी छूट दी, जबकि जीएसटी और नए उत्पाद शुल्कों एवं उपकर (cess) के जरिए वह आम लोगों की जेब कटाई में सहायक बनी है। इस तरह उसने कॉरपोरेट सेक्टर के हाथ में धन ट्रांसफर की सुनियोजित नीतियों पर अमल किया है।

नरेंद्र मोदी ने उपरोक्त इंटरव्यू में कहा कि जब वे सत्ता में आए थे, तो सेंसेक्स 25 हजार के करीब था, जो अब 75 हजार के करीब पहुंच चुका है। इसे उन्होंने अपनी एक बड़ी उपलब्धि बताया।

मगर इसी दौर में भारतीय अर्थव्यवस्था की अंतर्विरोधी हकीकत यह उभरी है कि जहां उत्पादन एवं वितरण से संबंधित इसका हिस्सा भयानक संकट में है, वहीं शेयर बाजार की चमक बढ़ती गई है। यह ट्रेंड सामने आया है कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में शेयर मार्केट के साथ-साथ बैंकिंग, ऋण, बॉन्ड मार्केट का योगदान बढ़ता चला गया है। यानी भारतीय अर्थव्यवस्था का उत्तरोत्तर वित्तीयकरण हुआ है।

दूसरी तरफ वास्तविक (यानी निवेश, उत्पादन एवं वितरण से संबंधित) अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर संदिग्ध होती गई है। इस सिलसिले में हाल की एक घटना उल्लेखनीय है।

एशियन पेंट्स कंपनी के महाप्रबंधक और सीईओ अमित सिनगल ने एक चर्चा के दौरान जो कहा, उचित ही उसका सीधा अर्थ भारत की जीडीपी वृद्धि दर के आंकड़ों पर अविश्वास जताना माना गया। सिनगल ने जहां ये बात कही और जिस सवाल के जवाब में कही, दोनों पर गौर करना अहम है। मौका भारतीय विनिमय एवं प्रतिभूति बोर्ड (सेबी) के इन्वेस्टर कॉन्फिडेंस कॉन्फ्रेंस का था। उसका आयोजन बीते नौ मई को हुआ। सिनगल जो कहा, उसकी ट्रांसस्क्रिप्ट उनकी कंपनी ने 13 मई को जारी किया।

सिनगल से एक विश्लेषक ने पूछा- ‘हमारी आदत पेंट उद्योग में ग्रोथ और जीडीपी वृद्धि दर की वृद्धि में समानता देखने की रही है। हमने इस वर्ष के पेंट उद्योग के वैल्यू ग्रोथ पर नजर डाली और उसे जीडीपी वृद्धि दर के आंकड़ों के साथ जोड़कर देखने की कोशिश की। ऐसा लगता है कि इन दोनों का संबंध टूट गया है। इसे आप कैसे देखते हैं?’

प्रश्नकर्ता की ओर मुखातिब होकर सिनगल ने कहा- आप ठीक कह रहे हैं। जीडीपी के साथ पेंट उद्योग के वैल्यू ग्रोथ का संबंध टूट गया है। उन्होंने कहा- मुझे नहीं मालूम जीडीपी के नंबर कहां से आ रहे हैं? स्टील, सीमेंट आदि जैसे उद्योग जगत के मुख्य क्षेत्रों से इनका संबंध नहीं है। (बाद में एशियन पेंट्स की तरफ से यह सफाई दी गई कि सिनगल का मकसद भारतीय जीडीपी के उच्च ग्रोथ रेट पर शक जताना नहीं था।)

बहरहाल, भारत के जीडीपी ग्रोथ रेट पर कई अर्थशास्त्रियों की तरफ से उठाए जा चुके हैं। मसलन, भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने नॉमिनल ग्रोथ को थोक भाव मुद्रास्फीति दर से डिफ्लेट करने के नए चलन पर सवाल उठाया था। उन्होंने कहा था कि अगर नोमिनल ग्रोथ को उपभोक्ता मुद्रास्फीति दर से डिफ्लेट किया जाए, तो भारत सरकार की तरफ से बताई गई जीडीपी वृद्धि दर दो प्रतिशत तक घट जाएगी। प्रो. अरुण कुमार जैसे अर्थशास्त्रियों के मुताबिक असंगठित क्षेत्र को भी जीडीपी की गणना में शामिल किया जाए, तो भारत में यह वृद्धि दर दो से तीन फीसदी ही दर्ज होगी। अर्थशास्त्री अरविंद सुब्रह्मण्यम और प्रो. अशोक मोदी जीडीपी गणना की विधि पर प्रश्न खड़े कर चुके हैं। मगर नौ मई को खास बात यह हुई, उस रोज कारोबार जगत के ऐसे एक उच्च अधिकारी ने इस पर संदेह जताया, जिनके उद्योग के प्रदर्शन और जीडीपी की वृद्धि में सीधा संबंध माना जाता रहा है।

इस घटना के बाद अमेरिकी मीडिया संस्थान ब्लूमबर्ग के एक विश्लेषण में भारतीय उद्योगपतियों को सलाह दी गई कि वे भारत की कथित ग्रोथ स्टोरी पर करतल ध्वनि करने के बजाय इसकी हकीकत को लेकर सवाल उठाने का साहस दिखाएं। (India Inc. Must Cheer Growth, Not Question It – Bloomberg)

यह अकारण नहीं है कि असल अर्थव्यवस्था से संबंधित प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में हाल के वर्षों में लगातार गिरावट आई है। 2023 में यह गिरावट खासी तेज गति से हुई। अब एक ताजा विश्लेषण में बताया गया है कि बात सिर्फ इतनी नहीं है, बल्कि उत्पादन क्षेत्र में पैसा लगाने वाले विदेशी निवेशक अब तेजी से भारत से अपना पैसा वापस ले जा रहे हैं। (Not only is FDI into India falling, but foreign firms are increasingly taking their money out (theprint.in)

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारत में आज ऐसे प्रमुख मुद्दों पर राजनीतिक बहस नहीं होती। ऐसी कोई मध्यमार्गी पार्टी नहीं है, जो इस बहस में सत्ताधारी भाजपा को चुनौती दे और जनपक्षीय मुद्दों की पैरोकार के रूप में खड़ी दिखे। इसी चुनाव अभियान के दौरान हमने देखा कि जब प्रधानमंत्री मोदी ने उत्तराधिकार कर के सवाल पर कुतर्कों के साथ घेरा, तब कांग्रेस पार्टी सफाई देने की मुद्रा में चली गई। (गैर-बराबरी के मुद्दे पर गुमराह करने में जुटे मोदी – जनचौक (janchowk.com)। उसका ही ऐसा ही रक्षात्मक रुख शेयर बाजारों के बारे में अमित शाह की टिप्पणी के बाद देखने को मिला है।

इसलिए शेयर बाजार से संबंधित बहस में यह अहम सवाल गायब रह गया है कि आखिर शेयर बाजारों की चमक का आज आम जन के जीवन स्तर से कितना रिश्ता रह गया है? शेयर बाजारों की चमक ने कुछ तबकों को धनी से अति धनी बनाया है, लेकिन चूंकि ये चमक वास्तविक अर्थव्यवस्था की बदहाली की कीमत पर आई है, इसलिए बहुसंख्यक जनता की जिंदगी भी बदहाल होती चली गई है।

सच यह है कि भविष्य में सचमुच अगर किसी सरकार ने जन-कल्याणकारी नीतियां अपनाईं या राष्ट्र निर्माण के वास्तविक प्रयास किए, तो शेयर बाजारों में उसके खिलाफ जोरदार प्रतिक्रिया होगी। तब विदेशी पूंजी पलायन का रुख करेगी और देशी संस्थागत निवेशक मीडिया में अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर उस सरकार के खिलाफ मुहिम छेड़ देंगे। ऐसा अनुभव दुनिया के अनेक देशों में हुआ है।

इसलिए आज शेयर बाजारों में गिरावट मामूली चिंता का ही विषय होना चाहिए। असल मुद्दा अंतर्विरोध शेयर बाजार और वास्तविक अर्थव्यवस्था के बीच तीखा होता जा रहा अंतर्विरोध है। यह असल चिंता का विषय है। आज तकाजा इस सवाल पर आज गंभीर एवं व्यापक चर्चा की है।

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)

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