आज बिहार की राजधानी पटना के गर्दनीनीबाग़ में वक्फ़ संसोधन बिल 2023 के खिलाफ विशल विरोध प्रदर्शन चल रहा है। इसमें आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड सहित देशभर के प्रमुख धार्मिक एवं मुस्लिम संगठनों की बड़ी संख्या में हिस्सेदारी से पटना से लेकर देश की संसद तक चर्चा का बाजार गर्म है। वक्फ संशोधन बिल पर जेडीयू और टीडीपी की खामोश रजामंदी पर मुल्सिम संगठन इतनी कड़ी प्रतिक्रिया देंगे, इसकी उम्मीद शायद इन दोनों दलों को नहीं रही होगी।
इससे पहले, नीतीश कुमार के इफ्तार समारोह का भी बिहार के सभी प्रमुख मुस्लिम संगठनों ने बहिष्कार कर स्पष्ट संकेत दे दिया था कि बिहार का मुसलमान इस बार नीतीश कुमार का हाथ झटक सकता है। पिछले दो दशक से नीतीश कुमार मुस्लिम और बीजेपी को साथ लेकर बिहार में सत्ता समीकरण को अपने पक्ष में साधने में सफल रहे थे, आज उनकी धर्मनिरपेक्ष छवि ही नहीं अब तक की समूची राजनीतिक कमाई दांव पर लगी है।
यह सब एक ऐसे समय में हो रहा है, जब केंद्र में मोदी सरकार को जेडीयू और टीडीपी की बैसाखियों के सहारे चलना पड़ रहा है, लेकिन हरियाणा, महाराष्ट्र और दिल्ली विधानसभा चुनाव में जीत हासिल करने के साथ-साथ बीजेपी अपनी इन दोनों बैसाखियों को एक तरफ विशेष आर्थिक पैकेज देने के नाम पर अपने हिंदुत्ववादी एजेंडे को आगे बढ़ाने को कृतसंकल्प नजर आ रही है। लेकिन वक्फ़ संशोधन बिल पर जेडीयू और टीडीपी दोनों के लिए अपने राजनीतिक आधार को खोने का खतरा बन गया है।
प्रस्तावित बिल वक़्फ़ संपत्तियों की हिफ़ाज़त और मुसलमानों के अधिकारों पर सीधा हमला बताया जा रहा है। सरकार के द्वारा इस बिल को लाने का मकसद वक़्फ़ बोर्ड की स्वायत्तता को समाप्त करने और सामुदायिक संपत्तियों को जबरन कब्ज़े में लेने तथा इसे एक विवादित विषय बनाने की कोशिश के रूप में देखा जा रहा है। मुस्लिम संगठनों की मांग है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और जदयू को वक़्फ़ संशोधन बिल पर अपनी चुप्पी तोड़ने का यही वक्त है।
लेकिन बिहार की सियासत में सिर्फ यही मसला बड़ी उथल-पुथल की वजह नहीं है, बल्कि 2025 असल में वह संक्रमण-काल है, जो पिछले 3 दशक से जारी सियासत के अवसान और एक नई राजनीतिक पारी के आग़ाज का समय है। 90 के दशक से लालू और पिछले दो दशक से नीतीश कुमार का जो राज चल रहा था, अब वह पूरी तरह से अपने ढलान पर है। इन दो समाजवादी नेताओं ने जेपी आंदोलन और मंडल कमीशन की सिफारिशों के बाद उत्तर भारत में आये बदलावों को काफी हद तक अपने पक्ष में दोहन करने में सफलता हासिल की।
इन तीन दशकों में कांग्रेस जहां बिहार और उत्तर प्रदेश के अपने गढ़ को खोती चली गई, वहीं भारतीय जनता पार्टी ने पहले मंडल के खिलाफ कमंडल अभियान चलाकर कांग्रेस के अगड़े वोटर को अपने पक्ष में करने का काम किया, वहीं यूपी में सोशल इंजीनियरिंग और बिहार की सियासत में नीतीश कुमार की जेडीयू के साथ गठजोड़ कर पिछले दो दशक तक धीरे-धीरे अपनी स्थिति को मजबूत किया है।
आज बिहार के हालात कुछ इस प्रकार से हैं कि जेडीयू एक कमजोर राजनीतिक शक्ति बनकर रह गई है, जिसे बीजेपी का आलाकमान अपने रिमोट कंट्रोल से संचालित कर रहा है। 2020 विधानसभा चुनाव में ही जेडीयू को कमजोर करने के लिए लोजपा के पार्टी सिंबल से बड़ी संख्या में बीजेपी उम्मीदवार खड़े हुए, जिसका नतीजा यह हुआ कि नीतीश कुमार की ताकत पहले से घटकर आधी रह गई थी। लेकिन बिहार में एनडीए और महागठबंधन के बीच संख्या बल का समीकरण कुछ ऐसा है, जो बीजेपी और राजद की तुलना में काफी छोटी ताकत होने के बावजूद जेडीयू के बगैर नाकाम रहे हैं।
बिहार में बीजेपी सधे कदमों से कदम बढ़ा रही है, तो दूसरी तरफ राजद भी पिछली बार के अपने प्रदर्शन को और बेहतर कर सूबे में अपने राजनीतिक सूखे को खत्म करने के आस में है। नीतीश कुमार का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य साथ नहीं दे रहा, जिसके अनेकों उदाहरण पिछले छह महीने में पूरा देश देख चुका है। जिस भाजपा ने ओडिशा चुनाव में नवीन पटनायक के स्वास्थ्य को बड़ा मुद्दा बनाकर राज्य को एक गैर-ओडिया नौकरशाह के द्वारा मनमानेपूर्ण तरीके से चलाने का आरोप लगाकर पहली बार राज्य हथियाने में सफलता हासिल कर ली, वही भाजपा बिहार में नीतीश कुमार को विधानसभा चुनाव तक ढाल बनाकर आगे बढ़ने के फ़िराक में है।
ऐसा माना जा रहा है कि नीतीश कुमार का मानसिक स्वास्थ्य इन्हीं दुश्चिंताओं की वजह से तेजी से गिर रहा है। दो वर्ष पहले तक नीतीश कुमार आगे बढ़कर इंडिया गठबंधन की कमान संभालने का सपना संजोये बैठे थे, जिसके बदले में उन्हें बिहार की सत्ता तेजस्वी को सौंपने में कोई आपत्ति नहीं थी। आज वही नीतीश कुमार इस मानसिक स्थिति में हैं, जो बार-बार पीएम मोदी के पांव में गिरने की कोशिश करते नजर आते हैं।
जेडीयू के भीतर वफादारों की संख्या तेजी से सिकुड़ चुकी है, पार्टी संगठन से लेकर सांसदों और विधायकों में कौन किस दिशा की ओर मुड़ता है, का कोई ठिकाना नहीं है। पार्टी में कुछ वफादार नीतीश कुमार के बेटे निशांत कुमार को लांच करने पर जोर दे रहे। राजद से राबड़ी देवी ने भी पिछले दिनों नीतीश कुमार के राष्ट्र गान के अवसर पर बेजा हरकत करने पर निशांत कुमार को मुख्यमंत्री बनाये जाने का अनुरोध किया था।
बीजेपी ऐसी किसी पहल को अपने सियासी गणित के प्रतिकूल देखेगी। इस बार जन सुराज पार्टी के मुखिया प्रशांत किशोर के पास बिहार की सियासी गुना-भाग को हल करने की जिम्मेदारी है। यदि वे अच्छी-खासी संख्या में मुस्लिम समुदाय को अपने पक्ष में जोड़ लेते हैं, तो इससे जेडीयू और आरजेडी के मत प्रतिशत में गिरावट आ सकती है, जिसका लाभ बीजेपी उठा सकती थी। लेकिन पिछले दिनों बिहार में अचानक से मुर्दा पड़ी कांग्रेस में संगठनात्मक बदलाव और ‘पलायन नहीं रोजगार दो’ यात्रा के साथ कन्हैया कुमार ने बिहार की दुखती रग पर हाथ रख बने-बनाये प्लान में सेंधमारी लगा दी है।
अब ऊपर से मुस्लिम संगठनों की ओर से देश की राजधानी के बजाय बिहार की राजधानी में आकर वक्फ संशोधन बिल के खिलाफ धरना प्रदर्शन साफ़ संकेत दे रहा है कि बीजेपी के लिए अब कड़ाही में घी परोस कर नहीं रखा है। कांग्रेस जहां बिहार के युवाओं, बेरोजगारी और पलायन के मुद्दे को बहस के केंद्र में लाने पर अड़ी हुई है, वहीं मुस्लिम समुदाय की वक्फ बिल पर गोलबंदी नितीश और प्रशांत किशोर की नकली धर्मनिरपेक्षता की बखिया उधेड़ने के लिए काफी रहने वाली है।
यही कारण है कि बीजेपी की ओर से इस रमजान देश के 32 लाख गरीब मुस्लिम परिवारों के नाम “सौगात-ए-मोदी” किट बांटने का ऐलान किया गया है। कहने के लिए यह ऐलान पूरे देश के 32 लाख गरीब मुस्लिम परिवारों को दिया जा रहा है, लेकिन इसके लिए असल में बिहार को चुना गया है। कहा जा रहा है कि बिहार में 32,000 मस्जिदों को 32,000 बीजेपी कार्यकर्ता चिन्हित करने के लिए तैनात किये गये हैं, जो 6 माह बाद होने वाले विधानसभा चुनाव परिणाम को बड़े पैमाने पर प्रभावित कर सकते हैं।
देश में युवा आबादी के लिहाज से सबसे युवा प्रदेश बिहार में अगर कुछ नहीं है, तो वह है रोजगार। पिछली बार इसी मुद्दे को अपना चुनावी अभियान बनाकर तेजस्वी यादव राजद को जीत की दहलीज तक लाने में सफल रहे, जो कुछ विधानसभा क्षेत्रों में बेहद मामूली अंतर से हार की वजह से फिसल गई। इस बार राजद कोई बड़ी पहल क्यों नहीं ले रही, इसके लिए हमें 2024 लोकसभा चुनाव अभियान में महागठबंधन के टिकट वितरण से लेना चाहिए।
इस बात की आशंका की जा रही थी कि 2025 का विधानसभा चुनाव यदि इसी ढर्रे पर आगे बढ़ा तो पूर्व की तरह इस बार भी संख्या बल एनडीए के पक्ष में जाने वाला है। फर्क सिर्फ यह होना था कि महाराष्ट्र की तरह यहां पर भी सत्ता की कमान नितीश के बजाय पहली बार बीजेपी के पास आने वाली थी। लेकिन कांग्रेस और वक्फ़ बिल पर मुस्लिम समुदाय के बगावती सुर अगर जारी रहे तो जेडीयू और नीतीश कुमार का मानसिक स्वास्थ्य दोनों दुरुस्त हो सकता है।
गर्दनीबाग़ में जारी विरोध प्रदर्शन में राजद प्रमुख तेजस्वी यादव और लालूप्रसाद यादव की उपस्थिति ने राजधानी के सियासी तापमान को अचानक से बढ़ा दिया है। प्रदर्शन में शामिल मुस्लिम नेता जेडीयू, लोक जनशक्ति पार्टी, तेलुगु देशम पार्टी और राष्ट्रीय लोक दल जैसी बीजेपी की सहयोगी पार्टियों से अपील कर रहे हैं वे इस बिल पर पुनर्विचार करें और अपना समर्थन वापस लें, वर्ना उन्हें इसकी राजनीतिक कीमत अदा करने के लिए तैयार रहना होगा।
(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)
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