महिला सुरक्षा और सम्मान की बात करने का हक खो चुका है देश का राजनैतिक नेतृत्व 

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उन्होंने कहा था, “बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ। बेटी पढ़ी, लेकिन बची नहीं।” कोलकाता रेप एंड मर्डर से उठते ये नारे अब पूरे देश में गूंजने लगे हैं। आरजी कर मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल में एक 31 वर्षीय पीजी डॉक्टर की नृशंस हत्या और बलात्कार की घटना पर कल 17 अगस्त को इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) की ओर से राष्ट्रव्यापी बंद का आह्वान कर दिया गया है। आज कोलकाता की सड़कों पर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री, ममता बनर्जी के नेतृत्व में स्वयं सत्तारूढ़ पार्टी और सरकार तक बलात्कारियों और हत्यारों के खिलाफ सड़क पर उतर चुकी है। 

आलम यह है कि इस जघन्य कांड को सबसे पहले आवाज देने वाले आरजी कर मेडिकल के इंटर्न और एसएफआई छात्र संगठन और सीपीआई(एम) के युवा संगठन डीवाईऍफ़आई ही नहीं, 15 अगस्त को लाल किले से प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी तक ने संबोधित किया, जबकि नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी इससे एक दिन पहले ही इस लोमहर्षक घटना पर अपनी तीव्र प्रतिक्रिया व्यक्त कर चुके थे। अब बॉलीवुड के सितारे भी एक-एक कर हुंआ-हुंआ के स्वर निकालते नजर आ रहे हैं। 

आईएमए के अध्यक्ष, आरवी असोकन का कल के हड़ताल के बारे में साफ कहना है, “इस बार लोगों की संवेदनाएं भिन्न हैं। देश में मेडिकल कर्मियों के सबसे बड़े समूह में करीब 4 लाख सदस्य हैं। इस देश में महिलाएं इस व्यवसाय में बहुमत में हैं। हम समय-समय पर उनकी सुरक्षा के लिए मांग करते आये हैं।” जाहिर है, देश के 145 करोड़ की आबादी की स्वास्थ्य सेवाओं पर तगड़ा झटका लगने जा रहा है, जिसे संभालना अब केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री और प्रधान मंत्री के स्तर तक चला जाता है।

इससे पहले, 12 वर्ष पूर्व दिल्ली में हुए निर्भया कांड के समय भी देश इसी तरह आक्रोशित हुआ था, तब सवालों के घेरे में यूपीए की मनमोहन सिंह सरकार थी। 2014 में भाजपा को हासिल पूर्ण बहुमत में ‘निर्भया कांड’ की भी अहम भूमिका थी। इसलिए अहम प्रश्न यह खड़ा होता है कि क्या 12 वर्ष पूर्व की तुलना में देश में महिलाओं के लिए हालात बेहतर हुए हैं, या बदतर? 

महिला सुरक्षा और सम्मान के मामले में भारत कहाँ पर खड़ा है?

असल में, आम भारतीय आज इसी बिंदु पर मंथन कर रहा है, क्योंकि पिछले 10 वर्षों में हम देख चुके हैं कि महिला सम्मान की बात विज्ञापनों में तो खूब हुई, लेकिन जमीन पर असलियत इसके ठीक उलट देखने को मिली है। सत्तारूढ़ भाजपा को महिला सम्मान, नारी सुरक्षा की याद सिर्फ राजस्थान और पश्चिम बंगाल में आती रही, जबकि उसके शासित राज्यों का रिकॉर्ड इन दो राज्यों की तुलना में बहुत-बहुत बदतर रहा।

बहुत दूर जाने की जरूरत ही नहीं है, स्वयं पीएम मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में बीएचयू की आईआईटी की छात्रा के साथ किन्हीं और अपराधियों ने नहीं, बल्कि भाजपा की आईटी सेल के तीन पदाधिकारियों ने बलात्कार किया, जिसे 5 राज्यों के विधानसभा चुनाव के मद्देनजर दबा दिया गया। चुनाव खत्म होते ही इन तीनों को गुपचुप तरीके से हिरासत में ले लिया गया, और कोई शोर-शराबा या मीडिया में हलचल नहीं देखने को मिली। 

लेकिन ये कोई एक घटना तो है नहीं। ऐसे न जाने कितनी घटनाओं से पिछले दस वर्षों का इतिहास रंगा पड़ा है। एनसीआरबी के 2021 के आंकड़ों के मुताबिक, देश में प्रतिदिन 86 बलात्कार की घटनाएं होती हैं। इनमें वे आंकड़े नहीं हैं, जिनकी सामाजिक लोकलाज के भय पुलिस में रिपोर्टिंग नहीं होती, या गरीब-गुरबा की रिपोर्ट दर्ज नहीं कराई जाती। 

हाल ही में झांसी की एक घटना का जिक्र करना समीचीन होगा, जिसमें एक पुलिस इंस्पेक्टर को अपनी पत्नी के साथ हुए बलात्कार की शिकायत फोन पर करने वाले पति की कॉल रिकॉर्ड से पता चला कि किस प्रकार शिकायत पर कार्रवाई करने के बजाय, इंस्पेक्टर महोदय ने उक्त व्यक्ति को ही अपनी पत्नी के चरित्र को लेकर तरह-तरह के सवाल पूछकर इतना लज्जित कर दिया कि पीड़िता के पति ने प्राथमिकी लिखवाने के लिए जोर देना बंद कर दिया था। बाद में कॉल रिकॉर्डिंग वायरल होने के बाद उक्त पुलिस इंस्पेक्टर को लाइन हाजिर कर दिया गया। लेकिन ऐसे न जाने कितने मामले ग्रामीण या शहरी क्षेत्रों में दफन होने के लिए अभिशप्त हैं।

सोशल मीडिया पर इस घटना को मिल रहे समर्थन को देखते हुए, कई लोग ये सवाल भी उठा रहे हैं कि क्या एक दिल्ली की निर्भया या कोलकाता की पीड़िता डॉक्टर के साथ ही देश में ऐसा वीभत्स, बर्बर कांड हुआ है, जो पूरा देश एक स्वर में खड़ा हो गया है? क्या मध्य वर्ग या उच्च शिक्षित वर्ग के खिलाफ होने वाले अत्याचार को ही देश में अत्याचार माना जाता है? क्या देश की राजनीतिक पार्टियाँ, बड़े-बड़े सिने कलाकार और खेल से जुड़ी हस्तियों और अभिजात वर्ग को दलितों, अल्पसंख्यक, आदिवासी, गरीब, पिछड़े वर्ग से आने वाली महिलाओं के खिलाफ दिन-प्रतिदिन बढ़ते अत्याचार, अत्याचार नहीं लगते?

मुजफ्फरपुर, रुद्रपुर और उत्तर प्रदेश की घटनाओं पर ख़ामोशी की चादर क्यों?

ऐसा इसलिए, क्योंकि कोलकाता की इस घटना के आसपास ही देश के अन्य राज्यों में भी इसी प्रकार की घटनाएं हुई हैं, लेकिन इस बारे में न तो मीडिया में कोई मुखरता से आवाज उठाई जा रही है, और न ही राजनीतिक दलों के लिए ही इन वारदातों को प्रमुखता से उठाया गया है। उदाहरण के लिए, बिहार के मुजफ्फरपुर में 9वीं क्लास की दलित छात्रा की गैंगरेप के बाद हत्या कर दी गई। आरोपियों ने उसके ब्रेस्ट काट दिए। प्राइवेट पार्ट पर भी चाकू से हमला किया। सोमवार को उसका शव अर्धनग्न हालत में पोखर में मिला। उसके मुंह पर कपड़ा बंधा था। अगल-बगल मांस के चिथड़े और खून के धब्बे पड़े थे।

पीड़ित छात्रा के परिवार का कहना है कि रविवार की रात 5 लोग घर से बेटी को उठाकर ले गए। उन्होंने कहा कि तुम्हारी बेटी के साथ रेप करेंगे। छात्रा की मां ने थाने में लिखित शिकायत की है। प्राथमिकी दर्ज कर ली गई है। जिसमें गांव के ही संजय राय (यादव) (41) समेत पांच अज्ञात को आरोपी बनाया है। यह घटना प्रकाश में तब आ सकी, जब बहुजन समाज से जुड़े राजनीतिक लोगों ने इस विषय पर आवाज बुलंद की। इस घटना को अंजाम देने वाला अभियुक्त गाँव का ही दबंग व्यक्ति था, जो पीड़िता के साथ जबरन शादी करना चाहता था, जबकि उसका विवाह तय हो चुका था। अभी तक एक भी आरोपी बिहार पुलिस की पकड़ में नहीं आ सका है।

इस बारे में महिला सुरक्षा पर प्रमुखता से नजर रखने वाली, सामाजिक कार्यकर्ता योगिता भयाना ने अपने सोशल मीडिया हैंडल से कहा है, “बिहार मुजफ्फरपुर की वीभत्स गैंगरेप और बर्बर हत्या की घटना मीडिया से गायब है क्यों है ??? इस घटना पर हम सब चुप हैं क्यों चुप हैं ?? साथ नहीं दे सकते लेकिन आवाज़ तो उठा सकते हैं। सबसे शर्म की बात है कि रविवार की घटना है अभी तक आरोपियों की गिरफ्तारी नहीं हुई है जबकि सभी आरोपी उसी गांव के हैं !

41 साल के संजय राय ने 9वीं में पढ़ने वाली छात्रा के साथ गैंगरेप करने के बाद हत्या कर दी, प्राइवेट पार्ट पर चाकू मारा, उसके प्राइवेट पार्ट पर 50 बार चाकू से वार किया उसके स्तन काट दिए ! सोमवार को उसका शव अर्धनग्न हालत में तालाब से मिला, उसके मुंह पर कपड़ा बंधा था,अगल-बगल मांस के चिथड़े और खून के धब्बे पड़े थे ! जबरदस्ती प्रशासन के द्वारा लड़की का अंतिम संस्कार करवाया गया है।। मां-पिता के सामने छात्रा को उठाया, कहा- तुम्हारी बेटी के साथ रेप करेंगे !!”

जाहिर है, बिहार में जेडीयू-भाजपा सरकार शासन में है, इसलिए इस जघन्य हत्याकांड पर भाजपा की चुप्पी तो लाजिमी है। फिर यह मामला गरीब, दलित परिवार का है, जिसकी आबरू और जान की कीमत संवैधानिक अधिकार से तय नहीं होती, बल्कि सामाजिक हैसियत से आंकी जाती है। इसके उलट, पश्चिम बंगाल का रिकॉर्ड महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामले में देश में सबसे न्यून है। देश में कोलकाता एकमात्र शहर है, जहां महिलाओं के खिलाफ यौन अपराध की घटनाएं ऐतिहासिक तौर पर सबसे कम हैं। 

कोलकाता और बिहार के मुफ्फरपुर के बाद अब आते हैं उत्तराखंड पर, जहां पर 31 जुलाई को रुद्रपुर में एक 33 वर्षीय नर्स के गुमशुदा होने की रिपोर्ट उसकी बहन ने दर्ज करवाई थी। प्राथमिकी के एक सप्ताह बाद, 8 अगस्त को उत्तर प्रदेश के बिलासपुर के डिबडिबा में उक्त नर्स का कंकाल मिला। पोस्ट मॉर्टम में बलात्कार और गला घोंट कर हत्या करने की पुष्टि हुई है।

अब पुलिस ने इस मामले में राजस्थान से धर्मेंद्र कुमार नाम के व्यक्ति को गिरफ्तार किया है। इस मामले में 15 दिन बाद एक अभियुक्त को गिरफ्तार कर उत्तराखंड एडीजी कानून एवं व्यवस्था, ए पी अंशुमन खुद अपनी पीठ थपथपाते हुए मीडिया को बता रहे हैं कि रुद्रपुर पुलिस ने त्वरित कार्रवाई करते हुए उक्त व्यक्ति को गिरफ्तार कर लिया है। वैसे भी उत्तराखंड देश के अन्य राज्यों की तुलना में शांत और कानून-व्यवस्था के हिसाब से चलता है। 

रुद्रपुर में रेप और हत्या की शिकार महिला भी मेडिकल पेशे से सम्बद्ध थी। बस फर्क यह था कि वह डॉक्टर न होकर नर्स थी और एक प्राइवेट नर्सिंग होम में काम करती थी। 8 दिन बाद जिस प्रदेश में आसपास के इलाके में कंकाल मिले, उस पुलिस को निश्चित तौर पर अपने ऊपर गर्व हो सकता है।

माना जा रहा है कि महिला मुस्लिम समुदाय से थी। लेकिन उत्तराखंड वह राज्य है, जहां पिछले वर्ष अंकिता भंडारी रेप और हत्याकांड का मामला राज्यव्यापी आंदोलन की शक्ल अख्तियार कर चुका था, जिसमें भाजपा के वरिष्ठ पदाधिकारी का बेटा ही मुख्य अभियुक्त था। यह मामला बेहद सनसनीखेज इसलिए भी था, क्योंकि इसमें रिजोर्ट में एक वीवीआईपी व्यक्ति के सामने रिसेप्शनिस्ट पद पर काम करने आई अंकिता भंडारी को अपने जिस्म को परोसने के लिए दबाव डाला जा रहा था, जिससे उसने साफ़ इंकार कर दिया था। 

उत्तर प्रदेश में महिलाओं, विशेषकर कमजोर वर्गों के साथ अत्याचार की कहानियों का तो कोई अंत ही नहीं है। इस प्रदेश में तो सत्तारूढ़ दल से जुड़े दबंगों, स्वामियों के किस्सों के किस्से और अपराधों का अलग से रिकॉर्ड तैयार किया जाना चाहिए, जो दिल्ली की निर्भया कांड के बाद की घटनाएं हैं।  हाल में राष्ट्रीय महिला आयोग ने बरेली जिले में पिछले 14 महीनों में 9 महिलाओं की सिलसिलेवार हत्याओं पर स्वतःसंज्ञान लेकर जरुर एक सकारात्मक काम किया है, वर्ना यहां पर तो दलितों के खिलाफ रिपोर्टिंग करने पर यूएपीए की धाराओं के तहत पत्रकारों को महीनों गिरफ्तार किये जाने तक के उदाहरण मौजूद हैं।  

बीबीसी की पत्रकार डॉ सर्वप्रिया सांगवान ने जूनियर डॉक्टर्स के देशव्यापी आंदोलन के सिलसिले में व्यापक फलक के साथ इसे जोड़ते हुए कुछ जरुरी प्रश्न किये हैं। सोशल मीडिया X पर वे लिखती हैं, “#kolkata जब भी मुझे मेरे पुराने मेडिकल फ़ील्ड के साथी कभी मिलते हैं, तो कहते हैं कि अच्छा हुआ जो प्रोफेशन बदल लिया। लेकिन जब पत्रकारिता में आई, तो यहाँ भी कहा कि क्यों इतना अच्छा प्रोफेशन छोड़कर पत्रकारिता के गर्त में आई। आप इस देश के किसी भी प्रोफ़ेशन में हैं, ये समझ लीजिए कि आप बिल्कुल ऐसी स्थिति में नहीं हैं, जैसी होनी चाहिए। हमारे देश में डॉक्टर बहुत अच्छा प्रोफ़ेशन माना जाता है।

किसी परिवार में लगातार ये प्रोफ़ेशन चल रहा है, क्लिनिक बने हुए हैं तो फिर भी आसान है। लेकिन आप एक सरकारी या कॉर्पोरेट संस्थान में डॉक्टर हैं, तो आप अपनी इस लाइफ़ चॉइस पर पछतावा ज़रूर कर रहे होंगे। 35 घंटे की लगातार ड्यूटी, मरीज़ों को न बचा पाने का ट्रॉमा, सीनियर डॉक्टरों का दबाव, अस्पताल में सुविधाएँ नहीं लेकिन लोगों की अपेक्षाओं का बोझ। अपने और परिवार के लिए समय न निकाल पाने का दुख। इसलिए ही कितने डॉक्टर भी आत्महत्या और बीमारी से मर जाते हैं जिनके बारे में पता भी नहीं चलता। 

समस्या ये है कि ये जूनियर डॉक्टर कुछ बदलने की बजाय एक दिन अपने सीनियर डॉक्टर जैसे ही बन जाते हैं। असंवेदनशीलता को अपना ‘डिफ़ेंस मैकेनिज्म’ बना लेते हैं। पत्रकार ही कौन सा बेहतर स्थिति में हैं! आप कैसे इस प्रोफ़ेशन में एंट्री लेंगे, ये एकदम क़िस्मत पर और कॉरपोरेट पर छोड़ दिया गया है। नौकरी के लिए वैकेंसी नहीं आती है, सब अपने अपने नेटवर्क पर चल रहा है। नेटवर्क भी काम के आधार पर नहीं बनता है, कभी जाति तो कभी शराब के आधार पर बनते हैं।

या सिर्फ़ बड़े आदमी की झूठी तारीफ़ों के पुल बांधे जाते हैं, ताकि नौकरी मिल जाए। कभी भी आपको नौकरी से निकाला जा सकता है, और आपसे भी कम तनख़्वाह में कोई और रखा जा सकता है। जो संस्थान लेबर क़ानूनों का उल्लंघन करते हों, वे कैसे देश के मज़दूरों की बात करेंगे? आजकल सत्तारूढ़ पार्टियाँ या अन्य राजनीतिक पार्टियाँ पत्रकारों का, संस्थानों का बहिष्कार करती हैं। होना तो उल्टा चाहिए था। इस बिरादरी में खुद एकजुट होने की नीयत और क्षमता नहीं तो वे क्या समझेंगे कि ‘जनता’ क्या होती है। 

यही हाल आप वकीलों का ले लीजिए। इंजीनियरों का देख लीजिए। कितने ही संस्थान बिना पढ़ाए ही डिग्रियाँ बाँट रहे हैं। ये ही संस्थान बढ़-चढ़ कर राजनीतिक पार्टियों को चंदा देते हैं। इन डिग्री कॉलेजों के मालिक स्थानीय स्तर पर अपना प्रभाव बना लेते हैं। सरकारों को ये समझना चाहिए कि लोगों का ग़ुस्सा सिर्फ़ एक घटना से नहीं फूटता है। ये कई सालों के अन्याय का ग़ुस्सा भी है, ख़राब स्थितियों में काम करने का ग़ुस्सा भी है। सरकारों पर और सिस्टम पर बढ़ते अविश्वास का ग़ुस्सा भी है। उन्हें बिल्कुल भरोसा नहीं है कि पुलिस और जाँच एजेंसियाँ सही काम करती हैं। उन्हें बिल्कुल भरोसा नहीं है कि मीडिया सही काम करता है। उन्हें भरोसा नहीं है कि कोर्ट उन्हें वक़्त से न्याय दे सकते हैं। 

माफ़ कीजिएगा, विपक्षी पार्टियों के लोग भी अगर पीड़ित परिवारों से मिल लेते हैं, तो ये उनके लिए एक हेडलाइन है। सत्ता उन्हें मिलने से रोकती है, तब भी उनके लिए हेडलाइन है। लेकिन फिर भी उन्हें मिलने जाना चाहिए और मिलने देना चाहिए, क्योंकि मैंने देखा है कि “बड़े” लोगों का सपोर्ट परिवार को बहुत हिम्मत देता है, बहुत सुकून देता है। सरकारों को इस ग़ुस्से को दबाने के बारे में नहीं सोचना चाहिए। उसे निकल जाने दीजिए। उन्हें विरोध जताने दीजिए। क्योंकि कोई सरकार सिस्टम तो बेहतर कर नहीं पाएगी। फ़िलहाल, उनसे माफ़ी माँगने के अलावा कोई विकल्प सरकारों के पास है भी नहीं।”

अगर समग्रता में देखते हैं, तो हम पाते हैं कि 2014 के बाद से भारतीय समाज अपनी तमाम कमजोरियों के बावजूद, जिस स्तर तक गिरते-पड़ते बना था, उसे बड़े पैमाने पर पितृसत्तात्मक समाज की ओर फिर से धकेल दिया गया है। दक्षिणपंथी राजनीति, सत्ता के केंद्रीयकरण और अल्पसंख्यकों के खिलाफ लक्षित बहुसंख्यकवादी हमले ने एक ऐसी वैचारिकी का तानाबाना बुना, जिसमें एक महिला के लिए आदर्श भारतीय नारी की रुढ़िवादी खांचे में देवी का दर्जा और जरा से विचलन पर कुलटा, चरित्रहीन होने का ठप्पा समाज के तथाकथित ठेकेदारों के हाथ में आ गया।

हिन्दुत्ववादी शक्तियों की तूती समाज के दबंगों, माफियाओं को राजनीतिक संश्रय हासिल करने और अपने लिए अभयदान हासिल कर लेने के बाद कमजोर तबकों, अल्पसंख्यकों के साथ-साथ स्त्री वर्ग के अस्तित्व पर भी हमला स्वाभाविक परिणति में तब्दील हो गया। 

आज से दो वर्ष पहले अमेरिका के कैनेडी सेंटर में स्टैंड अप कामेडियन, वीर दास ने जो कुछ कहा था, उसने देश में भारी विवाद खड़ा कर दिया था, लेकिन आज वही प्रश्न एक बार फिर से देश के करोड़ों लोगों के सामने मुंह बाए खड़ा है। आई कम फ्रॉम 2 इंडिया में वीर दास कहते हैं, “मैं उस भारत से आता हूँ, जहाँ दिन के समय हम महिलाओं की पूजा करते हैं, और रात के दौरान गैंगरेप करते हैं।”

(रविंद्र सिंह पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)  

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