किसान आंदोलन पर पंजाब सरकार के दमन ने आप पार्टी को बेनकाब कर दिया

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जो काम भाजपा सरकार नहीं कर पाई, उसे आप पार्टी की पंजाब सरकार ने कर दिखाया। न केवल हजारों किसानों को हिरासत में लिया गया, बल्कि शंभू और खनौरी बॉर्डर से उन्हें बेदखल भी कर दिया गया। पंजाब सरकार ने डल्लेवाल और पंधेर सहित कई नेताओं को गिरफ्तार करवाया।

यह तब हुआ, जब ये नेता चंडीगढ़ में केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान से मिलकर लौट रहे थे। न सिर्फ इन नेताओं को हिरासत में लिया गया, बल्कि खनौरी और शंभू बॉर्डर पर लगे उनके तंबू-कनात को भी बुलडोजर से ढहा दिया गया। उनकी ट्रैक्टर-ट्रॉलियों को वहाँ से बलपूर्वक हटा दिया गया। यह सब तब हुआ, जब किसान नेताओं और केंद्र सरकार के मंत्रियों के बीच चार दौर की वार्ता हो चुकी थी। यह पाँचवें दौर की बातचीत थी, और आगामी 4 मई को अगले दौर की वार्ता तय है।

दरअसल, यह स्थिति तब पैदा हुई, जब पिछले साल किसान दोनों बॉर्डरों से दिल्ली की ओर मार्च करना चाहते थे। लेकिन उन्हें बड़े-बड़े बैरिकेड्स लगाकर रोक दिया गया। किसानों पर रोजाना बर्बर अत्याचार होते रहे। अंततः उनके नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल महीनों तक आमरण अनशन पर बैठे रहे।

किसानों की प्रमुख माँगें थीं-MSP की कानूनी गारंटी, किसानों की पूर्ण कर्जमाफी, किसानों के लिए पेंशन, और बिजली दरों में वृद्धि न करने की माँग। बताया जा रहा है कि बातचीत में उद्योग एवं वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने कड़ा रुख अपनाया, जिसके चलते वार्ता बेनतीजा रही। इसके बाद जब पंधेर और डल्लेवाल शंभू और खनौरी बॉर्डर की ओर लौट रहे थे, पुलिस ने उन्हें हिरासत में ले लिया। कहा गया कि लुधियाना के व्यापारियों के भारी विरोध के दबाव में पंजाब सरकार ने यह फैसला लिया।

जाहिर है, इस कदम ने आप पार्टी और उसके नेता केजरीवाल के किसान-विरोधी चेहरे को उजागर कर दिया। कई विश्लेषक इसमें आप और भाजपा के बीच किसी अघोषित समझौते की संभावना भी देख रहे हैं। माना जा रहा है कि केजरीवाल जेल जाने से बचने और राज्यसभा में पहुँचने की जुगत में हैं।

बहरहाल, अब भाजपा ने सारी जिम्मेदारी आप सरकार पर डाल दी है। इसके अध्यक्ष जाखड़ ने आरोप लगाया कि पहले आप ने खुद किसानों को भड़काकर मोर्चा लगवाया और अब लुधियाना पश्चिम का चुनाव जीतने के लिए व्यापारियों को खुश करने हेतु 19 मार्च को मोर्चा हटवा दिया।

जाहिर है, किसानों को अपनी एकता टूटने का भारी खामियाजा भुगतना पड़ा। दिसंबर 2021 में पहला आंदोलन किसानों की जीत के साथ खत्म हुआ था। उसने पूरे देश-दुनिया में हलचल पैदा की और अंततः अपनी विजय के साथ स्थगित हुआ। मोदी की शक्तिशाली सरकार को उसके आगे झुकना पड़ा और उन तीन काले कृषि कानूनों को वापस लेना पड़ा, जिन्हें सरकार कृषि के कॉर्पोरेटीकरण की दिशा में लागू करना चाहती थी।

लेकिन किसानों ने सरकार की मंशा को पहचान लिया। वे समझ गए कि जो कुछ फसलों के लिए MSP मिल रहा है, वह भी खत्म हो जाएगा। उस आंदोलन से जो सबसे प्रमुख माँग उभरी, वह थी MSP की कानूनी गारंटी और स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश के अनुसार कुल लागत का डेढ़ गुना मूल्य देने की माँग।

बहरहाल, किसान अपने आंदोलन का जोश बनाए रखने में नाकाम रहे। पंजाब में उनका एक हिस्सा चुनाव लड़ने चला गया। दूसरा हिस्सा, जो वहाँ का सबसे बड़ा किसान संगठन है, चुनाव में हिस्सा लेने के खिलाफ रहा। एक धड़े ने अपने नाम में ही “अराजनीतिक” शब्द जोड़ लिया-संयुक्त किसान मोर्चा (अराजनीतिक)। इस तरह संयुक्त किसान मोर्चा, जिसने ऐतिहासिक आंदोलन का नेतृत्व किया था, पूरी तरह बिखर गया।

जब आंदोलन समाप्त हुआ, तो सरकार ने किसानों के साथ लिखित समझौता किया था, जिसमें सबसे प्रमुख माँग MSP की कानूनी गारंटी थी। पूरे देश के किसानों में इस सवाल को लेकर हलचल थी और यह उनके बीच एक लोकप्रिय मुद्दा बन गया था। इसी तरह कर्जमाफी का सवाल भी बेहद प्रासंगिक था। यदि उस समय एकजुट संयुक्त मोर्चा इन सवालों पर बड़ी पहल करता, तो उसे राष्ट्रव्यापी समर्थन मिल सकता था। लेकिन अपने आंतरिक बिखराव के कारण किसान आंदोलन किसी बड़ी पहल से चूक गया।

अभी और बड़ी चुनौतियाँ किसानों का इंतजार कर रही हैं। ट्रंप ने अपने दूसरे कार्यकाल में जो व्यापार युद्ध छेड़ा है, उसमें आने वाले दिनों में वे अपने सोयाबीन, मक्का और कपास का बड़ा बाजार भारत में तलाश रहे हैं। चीन पहले मक्के का बड़ा अमेरिकी बाजार था, लेकिन उसने इसे तेजी से घटाया है-2022 में 5.2 अरब डॉलर से घटकर 2024 में 32.8 करोड़ डॉलर।

जाहिर है, अमेरिका की नजर भारत पर है। हाल ही में अमेरिकी वाणिज्य मंत्री ने प्रधानमंत्री मोदी से कहा, “आपके यहाँ 1.4 अरब लोग हैं और आप बता रहे हैं कि आपकी अर्थव्यवस्था कितनी शानदार है… तो आप हमारा अनाज क्यों नहीं खरीदते, ताकि अमेरिकी किसान भारत न आएँ, बल्कि भारतीय किसान हमारे यहाँ आ सकें। क्या यह ठीक नहीं होगा?”

अमेरिकी उत्पादों का बाजार यहाँ तेजी से बढ़ने से भारत के किसानों के लिए लाभकारी मूल्य का सवाल और जटिल होने वाला है। जरूरत है कि किसान आंदोलन एकजुट होकर इन चुनौतियों का मुकाबला करे, वरना मोदी सरकार दूसरे रास्तों से देशी-विदेशी कॉर्पोरेटीकरण की दिशा में बढ़ती जाएगी।

(लाल बहादुर सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं)

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