चालीस साल बाद इलाहाबाद में कांग्रेस की वापसी के कारण

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अमेठी और रायबरेली तो कांग्रेस का गढ़ है ही मगर इस बार के लोकसभा चुनाव में सीतापुर, इलाहाबाद जैसी सीट पर कांग्रेस का अच्छे अंतर से चुनाव जीतना बताता है कि कांग्रेस ने जमीनी स्तर पर अपने कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर रणनीति बनाई और जीत हासिल की।

इलाहाबाद जैसी सीट पर तो कांग्रेस की वापसी चालीस साल बाद हुई है। ऐसा माना जाता रहा है कि यह सीट देश की राजनीति में निर्णायक सीट रही है। यहां से भाजपा को मिली हार का कारण सिर्फ प्रत्याशी का चयन ही नहीं रहा बल्कि कुछ और भी है।

इलाहाबाद शहर बुद्धिजीवियों का शहर है। प्रदेश का एक ऐसा शहर है जहां युवाओं की संख्या सबसे ज्यादा है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय होने से और प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करने वाले छात्रों के चलते यहां की फिजा में हमेशा पठन-पाठन का माहौल बना रहता है।

देश को चार चार प्रधानमंत्री और तमाम अधिकारी देने वाले इस शहर की राजनीतिक आबो-हवा भी कुछ कम नहीं रहती। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में छात्रसंघ चुनाव बंद हो गए हैं मगर फिर भी एक राजनीतिक हलचल यहां हमेशा बनी रहती है। यहां राह चलते कानून और राजनीति का पाठ पढ़ाने वालों की संख्या भी कम नहीं है। ऐसे में आला अधिकारी और नेता भी यहां के लोगों से सावधान होकर बात करते हैं।

रीता बहुगुणा जोशी ने 2016 में कांग्रेस छोड़ भाजपा का दामन थामा और 2019 में इलाहाबाद सीट से लोकसभा चुनाव जीती। कांग्रेस पार्टी में रीता बहुगुणा जोशी की छवि एक कद्दावर नेता की थी। माना जाने लगा था कि कांग्रेस ने धीरे धीरे उन्हें दरकिनार करना शुरू कर दिया था इसलिए उन्होंने भाजपा का दामन थामा। लेकिन इससे पहले इलाहाबाद लोकसभा सीट के इतिहास पर एक सरसरी निगाह डालने की जरूरत है।

इलाहाबाद लोकसभा सीट देश की मानी जानी सीटों में शुमार है। कारण, यहां से निर्वाचित सांसदों ने राष्ट्रीय स्तर पर देश का प्रतिनिधित्व किया। मसलन लाल बहादुर शास्त्री 1957 और 1962 में दो बार यहां से लोकसभा का चुनाव जीता और बाद में प्रधानमंत्री बनें।

हेमवंती नंदन बहुगुणा और जनेश्वर मिश्र जैसे नेता भी यहां से सांसद रह चुके हैं। 1980 में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बैनर तले चुनाव लड़ा और जीते भी। मगर उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने लोकसभा से इस्तीफा दे दिया। बाद में कांग्रेस छोड़ने के बाद भी वो सांसद बनें। अंतिम बार कांग्रेस यहां से 1984 में चुनाव जीती थी जब अमिताभ बच्चन यहां से चुनाव लड़े थे। उसके बाद चार दशक का एक बड़ा अंतराल बीत गया और कांग्रेस दोबारा यहां वापसी नहीं कर सकी। पिछले एक दो दशक में यहां समाजवादी पार्टी और भारतीय जनता पार्टी का ही दबदबा रहा है। मगर अठारहवें लोकसभा चुनाव में एक बार फिर कांग्रेस ने बाजी मारी और उस अंतराल को खत्म किया।

भाजपा को मिली हार के पीछे का कारण पिछले पांच साल में ही छिपा है। इस शहर में रहने वाले ज्यादातर छात्र यहां के वोटर नहीं हैं मगर कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा के दौरान उमड़ा हुजूम स्थानीय लोगों के मन में कांग्रेस की छवि मजबूत करने के लिए काफी रहा।

माना जा रहा है कि स्थानीय भाजपा कार्यकर्ता अपने प्रत्याशी से असंतुष्ट थे। उनका कहना है कि कमजोर प्रत्याशी का चयन करने के चलते भाजपा यहां से हार गई। वे ये भी कह रहे हैं कि इसका अनुमान यहां की जनता को पहले ही हो चुका था, जिसके चलते बहुत सारे वोट जीत हासिल कर रहे प्रत्याशी (उज्ज्वल रमण सिंह) की ओर चले गए।

सनद है कि रेवती रमण सिंह समाजवादी पार्टी के संस्थापक लोगों में रहे हैं और इलाहाबाद लोकसभा सीट पर उन्होंने दो दो बार जीत हासिल की। 2014 में मोदी लहर में ये सीट भाजपा के खाते में चली गई और श्यामाचरण गुप्ता यहां से सांसद चुने गए।

इस बार के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी ने संयुक्त रूप से चुनाव लड़ा। इलाहाबाद की सीट पर रेवती रमण सिंह के बेटे उज्ज्वल रमण सिंह को कांग्रेस ने अपना प्रत्याशी बनाकर उतारा और जीत हासिल की। उज्ज्वल रमण सिंह की छवि इलाहाबाद में एक युवा नेता की है ऐसे में युवाओं का उनकी ओर खिंचना स्वाभाविक था। वहीं उनके प्रतिद्वंद्वी के तौर पर भाजपा से पश्चिम बंगाल के पूर्व राज्यपाल केसरी नाथ त्रिपाठी के बेटे नीरज त्रिपाठी मैदान में थे। उज्ज्वल रमण सिंह चुनाव के कुछ दिन पहले ही कांग्रेस में शामिल हुए थे। तभी से ये कयास लगाया जाने लगा था कि पिता की विरासत और कांग्रेस-सपा के गठबंधन से उन्हें जीत मिलनी तय है। हुआ वही, उज्ज्वल रमण सिंह ने करीब 58 हजार वोटों से नीरज त्रिपाठी की हरा दिया।

इलाहाबाद में जातीय समीकरण भी यहां के चुनाव में बड़ा कारक रहा है। यहां व्यापारियों की संख्या भी ठीक-ठाक है। ब्राह्मण, भूमिहार भी यहां के चुनावों में निर्णायक जाति साबित होते रहे हैं। कोल की भी संख्या यहां ठीक-ठाक है। ऐसे में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस ने इन वोटर्स पर काफी ध्यान दिया। अब तक यहां ऐसा माना जाता रहा है कि चुनावों में अगड़ी जातियों का ही दबदबा रहा है। कोल समाज के लोगों की संख्या बारा, कोरांव विधानसभा में ज्यादा है। हर पार्टियां अधिकतर इसी समाज से अपना प्रत्याशी चयन करती हैं।

कोरांव विधानसभा में इस समय भारतीय जनता पार्टी के विधायक हैं। मगर उसी जाति के लोग उनसे खफा चल रहे हैं। लोगों का कहना कि व्यक्तिगत उत्थान के अलावा उन्होंने जनता के लिए कुछ नहीं किया। कोल समाज के ही एक युवा ने अपना नाम न लिखने की शर्त पर हमें बताया कि भारतीय जनता पार्टी दलित जातियों का बस इस्तेमाल करती है और उन्हीं के बल पर हमारे वोट बटोरती है। उनके विधायक और नेता जीत जाने के बाद मनमानी करते हैं। आपको बता दें कि पिछले कुछ सालों में बारा और कोरांव विधानसभा में छेड़खानी और हत्या की काफी खबरें सामने आईं है।

मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति ने भी भाजपा को कहीं न कहीं हार का सामना कराया है। पूरी तरह से तो नहीं मगर कहा जा सकता है कि अतीक अहमद की हत्या ने यहां के मुसलमानों पर काफी प्रभाव छोड़ा है। हाईकोर्ट के अधिवक्ता एलबी यादव बताते हैं- ‘अतीक की हत्या से मुसलमानों में काफी रोष रहा जो इस बार के चुनाव में भी दिखा है। साथ ही बेरोजगारी और युवाओं के भविष्य से जुड़ी समस्या ने भी वोटर्स का ध्यान केंद्रित किया। उत्तर प्रदेश सरकार की बुल्डोजर नीति से यहां के स्थानीय लोग नाखुश थे। यह भी एक बड़ा कारण माना जा सकता है।’

कुंभ 2025 की तैयारियां जोर- शोर से चल रही है ऐसे में इलाहाबाद शहर के अंदर तोड़फोड़ जारी है। प्राधिकरण के बुलडोजर चारों ओर गड़गड़ा रहे हैं। सड़कों के चौड़ीकरण में सैकड़ों घर गिर चुके हैं। भारद्वाज आश्रम के आस-पास के इलाके का भी सौंदर्यीकरण किया जा रहा है। ऐसे में वहां रहने वाले लोग भी भाजपा से नाखुश दिखे। कुछ लोगों का पूरा-पूरा मकान जा रहा है ऐसे में उनके सामने बसने का संकट गहराता दिखाई दे रहा है। जोगियानी मोहल्ला के निवासी ( नाम गुप्त रखने की शर्त पर) ने बताया कि पिछले कई सालों से वो भाजपा को वोट देते आ रहे हैं और उनका यह मकान उनके पूर्वजों के समय से है। मगर अब बिना मुआवजा दिए उनके घर को तोड़ दिया जा रहा है ऐसे में वो अपने परिवार को लेकर कहां जायेंगे।

कुछ ऐसा ही हाल शहर के अन्य इलाकों में भी है। चारों ओर रोड चौड़ीकरण का कार्य चल रहा है और घरों को चिन्हित कर उन्हें तोड़ा जा रहा है। अयोध्या में भी लोग घर टूटने से नाराज दिखे थे, जिसका असर भाजपा के वोटबैंक पर साफ-साफ पड़ता भी दिखाई दिया।

भाजपा के कार्यकर्ताओं का कहना है कि इस बार के चुनाव में भाजपा के नेताओं ने अपने कार्यकर्ताओं को नजरअंदाज किया। कुछ दिनों पहले भाजपा नेता नीलम करवरिया ने भी एक बयान में कहा था कि भाजपा ने कार्यकर्ता को तवज्जो नहीं दी, जिससे उन्हें चुनाव में हार मिली। उन्होंने एक पत्र जारी करते हुए भाजपा को मिली हार पर दुख व्यक्त करते हुए कहा था कि पुराने कार्यकर्ताओं की अनदेखी और बेकदरी ही भाजपा की हार का कारण है।

इन्हीं सब कमजोरियों को फायदा उठाते हुए कांग्रेस ने इलाहाबाद सीट पर बाजी मार ली। राहुल और अखिलेश की रैली का भी बड़ा असर यहां के चुनाव में पड़ा है। हालांकि बहुत बड़े अंतराल से कांग्रेस को जीत नहीं मिली है मगर इतने सालों का जो खालीपन कांग्रेस के भीतर इलाहाबाद सीट को लेकर था, उसे इस चुनाव में भर दिया गया।

(विवेक रंजन सिंह हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में पत्रकारिता के छात्र हैं)

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