हरियाणा विधानसभा चुनाव में सत्तारूढ़ दल और विपक्ष के समक्ष चुनौतियां

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लोकसभा चुनाव के बाद एनडीए गठबंधन की सरकार के गठन के उपरांत राज्यों की सरकारें अपने नियमित कार्यों में व्यस्त हो गयी हैं। लेकिन कुछ राज्यों- हरियाणा, झारखंड और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों के संदर्भ में विपक्ष तैयारी करता दिख नहीं रहा है। सत्ताधारी भाजपा को अब राज्यों में अपनी सरकार को बचाने बनाने की चुनौती साफ तौर पर है। लोकसभा चुनावों में भाजपा को अबकी बार बहुत बड़ा झटका लगा है जिसके कारण पूर्ण बहुमत नहीं मिला और अब मजबूरी में गठबंधन की सरकार बनाई है। कृषि प्रधान राज्यों उतरप्रदेश, पश्चिमी बंगाल, राजस्थान, हरियाणा और महाराष्ट्र में भाजपा को बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ा है। तीन महत्वपूर्ण राज्यों महारष्ट्र, झारखण्ड, हरियाणा के विधानसभा चुनाव इस वर्ष अक्टूबर-नवंबर में होने हैं। भाजपा को सभी जगह अपनी सफलता को सिद्ध करने की बड़ी चुनौती है। लोकसभा चुनावों की अपेक्षा विधान सभा चुनावों में स्थानीय मुद्दे अधिक महत्वपूर्ण रहते हैं। ऐसे में राज्य सरकारों की कार्यशैली और उपलब्धियों पर मतदाताओं का ध्यान केंद्रित रहता है। राज्य सरकार की नीतियों-योजनाओं से लाभ -हानि के आकलन चौक-चौराहों से लेकर गांव की चौपाल तक निरंतर बना रहता है। राज्य की सामाजिक-आर्थिक प्रगति व समस्याओं के समाधान जन चेतना का मुख्य कारक बनते हैं। हरियाणा में भाजपा पिछली दो बार से सत्ता में है। तीसरी बार राज्य में सरकार बनाने को ले कर भाजपा को कड़ी परीक्षा से गुजरना तय है। लोकसभा चुनावों में 10 में से 5 सीटों पर भाजपा को हार मिली है। इसके प्रभाव राज्य की विधानसभा चुनाव पर पड़ना निश्चित है। विपक्षी दल कांग्रेस को मिली सफलता से स्थानीय नेताओं में विश्वास पुख्ता हुआ है और बड़ी सफलता की उम्मीद बंधी है। क्षेत्रीय दल इनेलो और जजपा को जिस तरह से मतदाताओं ने नाकारा है उनका कोई राजनीतिक आधार कहीं बचा हुआ नहीं रहा। हरियाणा में सत्ताधारी भाजपा को मुख्य चुनौती कांग्रेस से ही मिलने वाली है यह स्पष्ट है। लेकिन कांग्रेस की अपनी चुनौतियां भी कम नहीं जिनसे पार पाए बिना विधानसभा चुनावों में बड़ी सफलता हासिल करना आसान नहीं होगा। संगठन की कमी के कारण कांग्रेस अपनी व्यवस्थाओं को लोकसभा क्षेत्रों में पूरी तरह मजबूत नहीं कर सकी जिसके चलते पार्टी उतनी सफलता हासिल नहीं कर पायी जितना जमीन पर सत्ताधारी दल का विरोध चुनाव से पहले दिखाई दे रहा था। रणनीतिक तौर पर भी चुनाव प्रचार में कांग्रेस अपने घोषणा पत्र में दर्ज बिंदुओं को आमजन तक सघनता से पहुंचाने में कमजोर ही रही। प्रदेश के बड़े नेताओं में वर्चस्व की जंग को प्रदेश अध्यक्ष हल नहीं कर पाए। कांग्रेस द्वारा नियुक्त प्रदेश प्रभारी भी सभी गुटों में सामंजस्य बनाने में लगभग विफल हैं। कई राज्यों में आपसी गुटबाजी ने कांग्रेस संगठन की मजबूती को पलीता लगाया है उसके बाद भी कोई सख्त कार्यवाही केन्द्रीय स्तर पर होती दिखाई नहीं दी। हरियाणा में भी ऐसी ही गुटबाजी को बढ़ाने में स्थानीय नेतृत्व कोई कोताही नहीं बरत रहा। मैं और मेरा के सवाल पर निरंतर टकराव बनी हुआ है जिसका सीधा प्रभाव आम मतदाताओं के कांग्रेस के प्रति विश्वास पर पड़ना निश्चित है। प्रदेश में कांग्रेस की सफलता के लिए स्थानीय नेताओं का योगदान केवल आपसी प्रतिस्पर्धा और गुटबाजी तक ही सीमित है। सभी सामाजिक वर्गो को अपने पक्ष में एकजुट करने का कोई स्पष्ट संदेश देने में प्रदेश कांग्रेस इकाई की पहल अभी तक जमीन पर नहीं आई। राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा और न्याय यात्रा 2 से मिले राजनीतिक संबल के आसरे कांग्रेस के प्रादेशिक नेता अपनी उपलब्धियों को तुलनात्मक रूप से बड़ा मानने के रोग से छुटकारा पाने में नाकाम हैं। समाज के विभिन्न वर्ग विशेषकर ग्रामीण अंचल के लोग सत्ताधारी भाजपा की नीतियों से असंतुष्ट हैं। सबसे बड़ा कारण रोजगार का अभाव, पंचायती राज के अधिकारों पर अंकुश लगाना, गरीबों व वंचित वर्गों को घर प्लाट नहीं मिलना, फसलों के उत्पादन की लागत खर्च में लगातार बढ़ोतरी, फसल बीमा योजना के समयानुसार लाभ नहीं मिलना, फसलों की पूरी खरीद समर्थन मूल्यों पर न होना, सही दाम न मिल पाना, कर्मचारियों के लिए पुरानी पेंशन की बहाली न करना और महिलाओं की सुरक्षा व सम्मान के सवाल पर सरकार का रुख छोटे व मध्यम व्यपारियों पर जीएसटी की मार ने आमजन को बेहतर विकल्प चुनने की दिशा में बढ़ा दिया है। भाजपा की प्रदेश सरकार से पिछले 10 सालों का हिसाब जनता लेना चाहती है इसका प्रमाण लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान अधिकतर क्षेत्रों में दिखाई दिया है। वर्तमान में प्रदेश की सरकार अल्पमत में है। भाजपा को 2019 के विधानसभा चुनावों स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था। भाजपा के विरोध के आधार पर चुनाव में 10 सीटों पर सफल हुयी स्थानीय पार्टी जजपा के जिस गठबंधन को भाजपा ने 4.5 तक अपनी सरकार चलने के लिए प्रयोग किया चुनाव से ऐन पहले चुनावी लाभ-हानि के लिए उसी गठबंधन से नाता तोड़ लिया। निर्दलीय विधायकों व असंतुष्टों के आसरे सरकार को बनाये रखने की नीति के तहत मुख्यमंत्री तक बदल दिया। लेकिन लोकसभा चुनावों में प्रदेश की दोनों आरक्षित सीट के साथ-साथ प्रदेश की अग्रणी जाति जाट के गढ़ की 3 सीट पर भाजपा को हार का मुंह देखना पड़ा है। अबकी बार चुनावों में एक अंतर स्पष्ट तौर पर दिखाई दिया है जिसमें सामाजिक रूप से कमजोर जाति वर्ग ने भी भाजपा को छोड़ कर कांग्रेस के पक्ष में अपना विश्वास जताया है। नए मुख़्यमंत्री नायब सिंह सैनी के प्रति लोगों में अभी विश्वास पूरा बना नहीं है। उनको प्रदेश की जनता मनोहर लाल खट्टर के विकल्प के तौर पर एक कमजोर और केंद्र आश्रित मुख्यमंत्री ही मान रही है। भाजपा अपनी10 साल की असफ़लताओं को शहरी और ग्रामीण वर्ग में विभेद कर भुनाने की रणनीति बनाने में लगी है। (जगदीप सिंह सिंधु वरिष्ठ पत्रकार हैं)   

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