झारखंड: माइक्रो फाइनेंस कंपनियों के आतंक से ग्रामीण महिलाओं का जीना मुहाल

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लातेहार। झारखंड के लातेहार जिले के ग्रामीण कस्बों में आरबीएल बैंक, भारत फाइनेंशियल इंक्लूजन लि०, क्रेडिट एक्सेस ग्रामीण, कैसपोर माइक्रो क्रेडिट जैसी 15 निजी माइक्रो फाइनेंस कंपनियां यहां की महिलाओं को लोन के मकड़जाल में इतना फांस चुके हैं कि उनका जीना मुहाल हो गया है। जिसकी एक बानगी जिले के मनिका प्रखण्ड के कूटमु गांव में देखी जा सकती है। जहां सभी परिवार की माहिलाएं न्यूनतम 3 अलग-अलग माइक्रो फाइनेंस कंपनियों से ऋण लिए हुए हैं। यहां की एक गरीब महिला मोहरमनियां देवी 10 माइक्रो फाइनेंस कंपनियों का 4 लाख के लोन से दबी कराह रही है। जिसके बदले बतौर सूद प्रत्येक महीने उनको 27,398 रुपये चुकता करना पड़ता है।

इन कंपनियों में से 4 कंपनियों का साप्ताहिक, 2 कंपनियों का पाक्षिक एवं शेष 4 कंपनियों के ब्याज दर मासिक निर्धारित है। प्रत्येक दिन किसी न किसी कंपनी का लोन कलेक्शन एजेंट गांव पहुंचते हैं और महिलाओं से दबावपूर्वक किस्त की राशि वसूलते हैं। किसी कारण से यदि कोई महिला किस्त चुका पाने की स्थिति में नहीं होती तो एजेंट उन महिलाओं के साथ अभद्र व्यवहार पर उतारू हो जाते हैं। बंधन बैंक के वसूली एजेंट तो 15 दिन पूर्व एतवरिया देवी को किस्त राशि चुका नहीं पाने की स्थिति में उठाकर पटक देने की धमकी तक दे डाला था। भारत फाइनेंशियल इंक्लूजन लि. के वसूली एजेंट ललिता देवी से किस्त की वसूली नहीं देने पर परिवार के सभी सदस्यों को जहर देकर मार देने की धमकी तक दे डाली थी। वसूली एजेंटों के इन हरकतों से पूरा गांव दहशत में जी रहा है।

ऐसे फांस रहे महिलाओं को लोन के मकड़जाल में

उल्लेखनीय है कि माइक्रो फाइनेंस कंपनियां अपने फील्ड एजेंटों को पहले गांवों में भेजते हैं। फिर वो गांव की थोड़ी पढ़ी लिखी और कुछ तेज तर्रार महिलाओं को अपना निशाना बनाते हैं। उनके माध्यम से गांव की कुछ महिलाओं का एक ग्रुप तैयार किया जाता है। फिर उसी महिला समूह के माध्यम से धड़ल्ले से समूह की सभी महिलाओं को लोन दिया जाता है। साथ ही लोन की राशि को साप्ताहिक, पाक्षिक अथवा 12, 18, 24 से 30 माह के किस्तों में राशि वसूली का गोरखधंधा शुरू किया जाता है।

इस बारे में बात करने पर कूटमु गांव की सुनीता देवी बताती हैं कि उन्होंने चापाकल बोरिंग के लिए लोन लिया था, फिर किराना की दुकान चलाने के लिए भी लोन लिया था। लेकिन कुछ ही दिनों बाद दुकान बंद करनी पड़ी, क्योंकि उसमें जो कोई भी बैठता था, वही बिक्री के पैसों को रख लिया करता था, आज दुकान सालभर से बंद है। लेकिन आज भी लोन का किस्त चुकाना ही पड़ता है।

गांव की ही मोहरमनिया देवी कहती हैं, उन्होंने प्रधानमंत्री आवास योजना को पूरा करने के लिए लोन लिया था। उनके पति 10 माह पूर्व लोन चुकता करने के निमित्त दूसरे राज्य केरल कमाने चले गए हैं। वहां उन्हें 400 रुपये प्रतिदिन मजदूरी मिलती है। महीने भर काम करने से करीब 12,000 मजदूरी मिलती है। लेकिन लोन का किस्त उनको प्रति महीना 16,142 रुपया चुकाना पड़ रहा है।

मजे की बात तो यह है कि माइक्रो फाइनेंस कंपनियों के वेबसाईट जब आप देखेंगे तो ऐसा कतई नहीं लगेगा कि इन कम्पनियों की तस्वीर इतनी खौफनाक है। क्योंकि इनके वेबसाईट पर दिए गए विज्ञापनों में महिलाओं की खुशहाल तस्वीरें दिखाई देती हैं और उन्हें बड़े ही आकर्षक तरीके से समाज के शिखर पर पहुंचने के बारे में भी दिखाया जाता है। 

ऊंची ब्याज दरें वसूल रहे माइक्रो फाइनेंस कंपनियां

ग्रामीणों से बात करने पर जो तथ्य उभरकर सामने आए जिससे स्पष्ट हो गया है कि कुटमु गांव की महिलाओं को लोन में फांसने वाली कमोबेश सभी माइक्रो फाइनेंस कंपनियों की ब्याज दरें काफी ज्यादा निर्धारित हैं। उदाहरण के लिए मदुरा माइक्रो फाइनेंस की वेबसाईट में बकायदा दर्ज है। 30 हजार एवं 48 हजार तक मूलधन लिए ब्याज दर 22% वार्षिक ब्याज दर के हिसाब से कंपनियां ग्रामीणों का आर्थिक शोषण कर रही हैं। वहीं 50 हजार से 1 लाख तक की राशि के लिय 28.8% ब्याज दर वसूलने का धंधा चल रहा है। सिर्फ इतना ही नहीं प्रत्येक फाइनेंस कंपनी लोन देने के समय ही प्रत्येक लोन धारक महिलाओं से इंश्योरेंस पॉलिसी क्रय के नाम पर 2,000 रुपये काट ले रही हैं। जबकि बीएसएस माइक्रो फाइनेंस कंपनी द्वारा ऋणधारक को निर्गत दस्तावेज में यह उल्लेख है कि समूह बीमा को लेना या नहीं लेना कर्जदार की इच्छा पर निर्भर है। वहीं इस दो हजार के बदले कर्जदार महिलाओं को कोई दस्तावेजी सबूत उपलब्ध नहीं कराया गया है। महिलाओं का आरोप है कि भारत फ़ाइनेंस कंपनी से जिन भी महिलाओं को लोन दिया गया है, उसके लिए उन्हें किसी भी प्रकार के कागजात उपलब्ध नहीं कराए गए हैं।

किस्त वसूली के भय से खाली हो रहा पूरा गांव

70 परिवारों वाले इस कुटमु गांव में 55 दलित भूमिहीन परिवार, 8 आदिवासी एवं 7 अन्य पिछड़ी जाति को लोग रहते हैं। ऋण लेने वालों में अधिकतर दलित परिवार से हैं। 7 सदस्यीय सकेन्द्र भुईयां का परिवार वसूली एजेंटों के लगातार तगादे से भय खाकर 15 दिन पूर्व केरल चला गया है। इसके पूर्व भी कर्जदार परिवार के सभी कमाऊ सदस्य मजदूरी करने दूसरे राज्यों को पलायन कर गए हैं। इन सूदखोर कंपनियों से परेशान पिछले 1 जून को गांव की अनिता देवी पति मंदीप भुइयां सिमरिया पलायन कर गए। मोहरमानिया देवी, सुनीता देवी और विधवा धूरपतिया देवी रांची चली गईं, वहीं सतनी देवी डाल्टनगंज चली गईं।

इस बावत सामाजिक कार्यकर्ता जेम्स हेरेंज कहते हैं-“ग्रामीण गरीब परिवारों का माइक्रो फाइनेंस कंपनियों के ऊंचे ब्याज दरों वाले कर्ज के मकड़जाल में फंसना सीधे तौर पर सरकारी नीतियों और उसकी क्रियान्वयन की नाकामी के साथ-साथ ब्यूरोक्रेसी की लापरवाही का नतीजा है। यदि इन भूमिहीन परिवारों को जेएसएसपीएल की योजनाएं, मनरेगा, खाद्य सुरक्षा, पेंशन, उचित मजदूरी, वन अधिकार कानून के तहत सामुदायिक पट्टा, वित्तीय साक्षरता, पशुपालन विभाग की योजनाओं व सरकारी बैंकों के लोन जैसी सुविधाओं का समुचित लाभ नियमित रूप से मिलता तो ऐसी गंभीर स्थिति उत्पन्न नहीं होती।”

जेम्स कहते हैं कि “सूदखोरी से जुड़े शोषण को रोकने के लिए 1974 में बिहार साहूकारी अधिनियम बनाकर सूद के कारोबार को कानून के दायरे में लाया गया। वहीं मनी लांड्रिंग कंट्रोल एक्ट 1986 के तहत मनमाना ब्याज वसूलना और शर्तों का उल्लंघन दंडनीय अपराध माना गया है। इन कड़े कानूनों के होते हुए भी आज कुकुरमुत्ते की तरह सभी गांवों में ये फाइनेंस कंपनियां तेजी से अपना पांव पसार रही हैं। इन्हें हर हाल में जिला प्रशासन और सरकार को रोकना चाहिए।”

(झारखंड से विशद कुमार की रिपोर्ट)

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