इधर मोदी जी-7 की बैठक में कनाडा पहुंचे, उधर ट्रंप स्वदेश रवाना हो गये 

मौजूदा दौर में जब यूरोप, दक्षिण एशिया और पश्चिमी एशिया में युद्ध की आग धधक रही हो, शायद ही किसी राष्ट्राध्यक्ष को दूसरे मुल्कों की यात्रा करते देखा जा सकता है। पश्चिम के अमीर मुल्कों के जी-7 की बैठक को छोड़कर, संभवतः सभी मुल्क इस आग की लपटों में अपने-अपने नफा-नुकसान के आकलन और शक्ति-संतुलन को साधने में लगे हैं। खुद भारत में इस समय चारों ओर अराजकता का वातावरण है, लगता ही नहीं देश कानून के राज के तहत काम कर रहा है।

एयर इंडिया की दिल्ली-अहमदाबाद-लंदन फ्लाइट हादसे का सवाल हो या पुणे में बाँध टूटने और उत्तराखंड में केदारनाथ तीर्थ के लिए हेलीकॉप्टर यात्रा में लगातार हो रही दुर्घटनाओं की अनदेखी करना बताता है कि देश को अब पूरी तरह से मुनाफाखोरों के लिए खुला छोड़ दिया गया है। दुर्घटनाओं को बट्टे खाते में डाल नए इवेंट को मीडिया मैनेजमेंट के सहारे अभी तक सफलतापूर्वक दबा देने की कला ने हुक्मरानों को पूरी तरह से बेलगाम बना दिया है।    

ऐसे में, कुएं के भीतर से जितना आसमान दिखे, उसी से अंदाजा लगाने वाले मेढ़क की तरह भले ही हमें सबकुछ अच्छा ही अच्छा दिखे, लेकिन विश्व तो हमारे बनाये कुएं से नहीं देख रहा। इसलिए उसकी समझ और आम भारतीय की समझ में एक महत्वपूर्ण अंतर पैदा हो चुका है, जिसे दुरुस्त किये बिना हम यदि कोई भी पाँव आगे बढ़ाते हैं तो दुर्घटना का शिकार होने की संभावना बढ़ जाती है।

बहरहाल, लौटते हैं आज के घटनाक्रम पर, जिसे ईरान-इजराइल युद्ध के मद्देनजर बेहद अहम माना जा रहा था। कनाडा की अध्यक्षता में जी-7 की दो दिनों तक चलने वाली बैठक में ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका सहित भारत जैसे देश को औपचारिक आमंत्रण दिया गया था, जिनके साथ जी-7 देश दूसरे दिन मुलाक़ात करते हैं। लेकिन ऐसा जान पड़ता है कि पश्चिमी एशिया के हालात अमेरिका के मन-मुताबिक नहीं चल रहे, जिसे एक निश्चित दिशा देने के लिए ट्रंप साहब को उलटे पाँव स्वदेश लौटना पड़ा है।

एक मायने में इसे पीएम मोदी के लिए लकी भी मानना चाहिए, क्योंकि डोनाल्ड ट्रंप बैठक में शामिल होते समय 14वीं बार दुहरा चुके थे कि भारत-पाक सीजफायर उनकी वजह से संभव हो सका, और वे ईरान-इजराइल के बीच भी सीजफायर को अंजाम दे सकते हैं। फिर भारतीय प्रधानमंत्री को अपने सामने देख भला ट्रंप खुद को कैसे रोक पाते, जिन्होंने एक बार भी ट्रंप की मध्यस्थता के दावे को स्वीकृति या ख़ारिज नहीं किया है। 

लेकिन यह भी सच है कि अमेरिकी राष्ट्रपति के बैठक को बीच में ही छोड़ देने से जी-7 की बैठक में अब कुछ भी नहीं बचा है। जी-7 के देशों को उम्मीद थी कि सभी अमीर देशों के राष्ट्राध्यक्ष और यूरोपीय संघ की अध्यक्ष मिलकर अमेरिकी टैरिफ वॉर और यूक्रेन-रूस संघर्ष में डोनाल्ड ट्रंप को परंपरागत लाइन के आसपास राजी कराने में समर्थ हो सकते हैं। लेकिन अमेरिकी टेक कॉर्पोरेट और मिलिट्री इंडस्ट्रियल कॉम्प्लेक्स के हित के मातहत ही पश्चिमी देशों को अब अपने हितों को पुनर्संयोजित करना होगा, इसकी समझ उन्हें जितनी जल्दी हो जाये बेहतर होगा। 

रहा सवाल, भारत जैसे तेजी से उभरते मुल्कों का, जिनका असंतुलित विकास उनके देशों में अमीरी-गरीबी के बीच एक गहरी खाई पैदा कर चुका है, के लिए ऐसे आयोजनों में शामिल होना फोटो-ऑप्स से अधिक कोई लाभ नहीं पहुंचा रहा। इसकी बड़ी भारी कीमत तक हमें तीसरी दुनिया के साथ दूरी बनाने के रूप में चुकानी पड़ रही है।  

यदि ईरान-इजराइल युद्ध के संदर्भ में ही देखें तो भारत लगातार अपने परंपरागत मित्र देशों से दूरी बनाता जा रहा है, और इजराइल के पक्ष में खड़ा नजर आ रहा है। इसे संयुक्त राष्ट्र संघ में प्रस्ताव के समर्थन से अनुपस्थित रहने से लेकर शंघाई कोआपरेटिव ऑर्गनाइजेशन (एससीओ) की ओर से संयुक्त रूप से जारी बयान से अपनी असहमति व्यक्त कर भारत जाहिर कर चुका है। बता दें कि ईरान एससीओ और ब्रिक्स दोनों का सदस्य देश है, जबकि इजराइल का अस्तित्व सिर्फ अमेरिका के बल पर पश्चिमी एशिया में दादागिरी तक सीमित है।

ईरान के जवाबी हमलों की बाढ़ ने न सिर्फ इजराइल को हक्का-बक्का स्थिति में ला खड़ा कर दिया है, बल्कि पश्चिमी मुल्क और अमेरिका तक को सोचने पर विवश कर दिया है। कल रात से ईरान के बैलिस्टिक मिसाइलों की बाढ़ ने इजराइल के घमंड को चकनाचूर कर दिया है। ईरान न्यूज़ ने एक तस्वीर साझा करते हुए सिर्फ दो शब्दों में कहा है, हम वापस आ गये हैं, तेल अबीब! 

भला ऐसी सूरत में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के लिए जी-7 बैठक में अपनी हांकने के लिए गुंजाइश कहाँ बचती थी। यही कारण है कि उन्हें हर अगले दिन अपने बयानों को बदलने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। अब ट्रंप ईरान को साफ़-साफ़ चेतावनी देते हुए सुने जा सकते हैं, “ईरान को परमाणु संधि पर हस्ताक्षर कर देना चाहिए था। कितनी शर्म की बात है, और इससे कितनी बड़ी संख्या में इंसानी जानमाल का नुकसान उठाना पड़ा है। साफ़ शब्दों में कहें तो ईरान को परमाणु हथियार नहीं बनाने दिया जायेगा। मैं इसे कई बार दुहरा चुका हूँ. हर कोई तेहरान छोड़कर चला जाये।”

लेकिन ईरान पर तो परमाणु हथियार बनाने का इल्जाम इजराइल और पश्चिमी देश पिछले तीन दशक से लगा रहे हैं। ईरान परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर करने वाले देशों में से एक है, जिसका साफ़ कहना है कि वह युरेनियम परिष्करण का उपयोग न्यूक्लियर एनर्जी, मेडिकल साइंस सहित वैज्ञानिक अनुसंधान के क्षेत्रों में करने के प्रति कृत संकल्प है। दूसरी ओर, इजराइल न तो एनपीटी का सदस्य है और न ही उसके खिलाफ अन्तराष्ट्रीय प्रतिबंधों का कभी लागू किया गया। पश्चिम एशिया में एकमात्र परमाणु हथियार संपन्न देश होने के बावजूद इजराइल को ही ईरान के परमाणु कार्यक्रम से अस्तित्व का खतरा महसूस होता है, जिसके सिर पर हमेशा अमेरिका का हाथ है।

ऐसे में ईरानी विदेश मंत्रालय का दावा पूरी तरह से तथ्यात्मक लगता है कि हो न हो, इजरायली हमले के पीछे अमेरिका का ही हाथ है। भले ही ट्रंप-नेतन्याहू मीडिया बाइट के लिए यह दिखावा करते रहें कि अमेरिका ईरान के साथ 6वें दौर की वार्ता करने जा रहा था, लेकिन इजराइल ने ईरान पर हमला कर इसे होने नहीं दिया। फिर, नेतन्याहू ने ट्रंप के सामने ईरान के सुप्रीम लीडर अयातुल्ला अली खामेनेई को खत्म करने की पेशकश की, लेकिन डोनाल्ड ट्रंप ने इस विचार को खारिज कर दिया है। और अब नेतन्याहू अमेरिका से बंकर बर्स्टर बम की मांग कर रहा है, ताकि ईरान के भूमिगत परमाणु कार्यक्रम को नष्ट किया जा सके।

ये खबरें पश्चिमी मीडिया के माध्यम से पूरी दुनिया में अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के लिए विभिन्न गुंजाइश की राह तैयार कर रही हैं। इजराइल की पेशकश को ठुकरा देना और बाद में उसे आवश्यक बुराई के तौर पर विश्व जनमत के गले के नीचे ले जाने के तौर पर आजमाया जा रहा है। कल ही साउथ चाइना सी से अमेरिकी जहाजी बेड़े को मध्य-पूर्व की ओर भेज दिया गया है। सब कुछ अमेरिकी रणनीति के तहत हो रहा है, अड़चन सिर्फ यह है कि सब कुछ जैसा सोचा था, वैसा नहीं हो पा रहा।

ईरान की मिसाइल क्षमता और ईरानियों की राष्ट्रभक्ति का अंदाजा लगा पाने में भारी चूक हो गई। तुर्किये सहित अन्य मुस्लिम देशों में बहस तेज हो गई है। चीन ने पहली बार खुलकर किसी देश के पक्ष में इतने कड़े शब्दों में अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। आखिर करे भी क्यों नहीं, बहुध्रुवीय वैश्विक व्यवस्था को साकार करने के लिए चीन के पास रूस के बाद ईरान ही सबसे मजबूत मित्र देश है। भारत-पाक संघर्ष के बाद ऐसा माना जा रहा है कि चीन ने ईरान को सैटलाइट और AI की मदद देकर इजराइल के आयरन डोम को काफी हद तक बेदम करने में मदद पहुंचाई है।

अंत में, सबसे दिलचस्प चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के नाम से X सोशल मीडिया पर बने एक अकाउंट की पोस्ट इस समय खूब वायरल हो रही है, जिसका लब्बोलुआब यह है कि अमेरिका की बादशाहत के दिन अब लद गये।

“दुनिया संयुक्त राज्य अमेरिका के बिना भी आगे बढ़ सकती है। 100 साल पहले, ब्रिटिश साम्राज्य वैश्विक वाणिज्य पर हावी था, दुनिया की 20% से अधिक संपत्ति पर उसका कब्ज़ा था। कई लोगों का मानना ​​था कि उसका सूरज कभी अस्त नहीं होगा।

200 साल पहले, फ्रांस यूरोप के मंच पर छा गया, उसकी सेनाएँ भयभीत थीं, उसकी संस्कृति ईर्ष्या का विषय बनी हुई थी। नेपोलियन ने खुद को अमर घोषित कर दिया था।

400 साल पहले, स्पेनिश राजघराने ने मनीला से लेकर मैक्सिको तक राज किया, उसके खजाने के बेड़े चांदी और रेशम से लदे हुए थे। राजाओं को लगता था कि उनकी महिमा अनंत काल तक रहेगी।

प्रत्येक साम्राज्य ने खुद को अपरिहार्य घोषित किया। लेकिन हर एक अंततः ग्रहणग्रस्त हो गया। ताकत क्षीण हो जाती है, तेज घटने लगता है, और वैधता उसी क्षण समाप्त हो जाती है जब इसे अर्जित करने के बजाय ग्रहण किया जाने लगता है। अगर अमेरिका दुनिया का सम्मान खो देता है, तो उसे पता चलेगा कि हर गिरे हुए साम्राज्य ने बहुत देर से क्या सीखा: दुनिया आगे बढ़ती है। हमेशा।”

इसे शी जिनपिंग का क्लोन अकाउंट कहना बेहतर होगा, लेकिन यह एक कड़वी सच्चाई को बयां कर रहा है। भारतीय हुक्मरान भी देर-सवेर जितनी जल्दी इस सच्चाई से अवगत हो जायें, देश के लिए बेहतर होगा।

(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)

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