आखिर संसद में अडानी,अंबानी का नाम लेने पर इतनी हाय-तौबा क्यों ?

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आज लोकसभा में जब राहुल गांधी बोल रहे थे और उन्होंने जब अपने भाषण में अडानी, अंबानी का नाम लिया, तो अध्यक्ष समेत संसदीय कार्यमंत्री रिजिजू ने नियमों और प्रक्रियाओं का हवाला देते हुए प्रतिवाद किया। इस तरह के प्रतिबंध का अर्थ क्या है? क्या वाकई में जो सदन का सदस्य नहीं है, उसका नाम नहीं लिया जा सकता? आखिर इस व्यवस्था का औचित्य क्या है? क्या अब तक इसका निर्वाह किया गया है? ये तमाम सवाल हैं जो बार-बार जेहन में उतर रहें हैं।

यह व्यवस्था प्रायः उनके संदर्भ में दी जा सकती है (और वह भी सीमित रूप में), जिन पर आरोप लगाए गए हैं और जो इन आरोपों का जवाब देने के लिए अब इस दुनिया में नहीं है। पर यह व्यवस्था भी नियम / प्रक्रिया से ज्यादा व्यावहारिक और मानवीय दृष्टि से प्रेरित है। आखिर उसका नाम लेने से परहेज क्यों किया जाय जिसने भारत की राजनीति और उसके अर्थतंत्र  को गहरे से प्रभावित किया हो। अब यह प्रभाव सकारात्मक और नकारात्मक दोनों रूपों में हो सकता है। 

वर्तमान में अगर अंबानी या अडानी भारत की अर्थव्यवस्था में प्रभावी दखल रखते हैं, अगर अंबानी या अडानी भारत के दूरसंचार, मीडिया, भारत के तेल, रेल और विमानन क्षेत्र में प्रभावी भूमिका निभा रहे हैं। जब सरकार से उनको बड़े-बड़े ठेके मिल रहें हैं। वे जनता के हितों को प्रभावित कर रहे हों, तो ऐसे में उनको रेखांकित क्यों न किया जाय?  ऐसे में उनकी व्यावसायिक भूमिका को लेकर सवाल क्यों न किए जाए?

अरसे से कभी गोपनीयता के नाम पर, कभी संवेदनशीलता के नाम पर, तो कभी सदस्यता के नाम पर पारदर्शिता को प्रभावित करने का काम किया जाता रहा है। कौन नहीं जानता कि इलेक्टोरल बॉन्ड का ब्यौरा छुपाने की कोशिशें की गई। सदन की सदस्यता के नाम पर क्यों न इसे पूंजीपतियों और राजनीतिज्ञों के गठजोड़ को छुपाने के कदम के रूप में देखा जाय?

निश्चित तौर पर अंबानी या अडानी को नागरिक के रूप में वे सब अधिकार मिलने चाहिए, जो अन्य पूंजीपतियों को मिलते हैं। इसके वे पूरी तरह से हकदार हैं। लेकिन यह भी देखना पड़ेगा कि कहीं वे अपने प्रभाव के जरिए अन्य के हक को प्रभावित तो नहीं कर रहे हैं? देखना पड़ेगा कि कहीं इस तरह के प्रयास बहुसंख्यक उद्यमियों की कीमत पर तो नहीं किए जा रहें हैं। देखना यह भी पड़ेगा कि कहीं पूंजी के एकाधिकारवादी प्रयास लोकतांत्रिक पूंजीवाद की धारणा को ध्वस्त तो नहीं कर रहें हैं? ऐसे पूंजीपति जो लोककल्याण को परे रख अपनी पूंजी को बढ़ाने के लिए, अनैतिक तरीकों का इस्तेमाल कर रहे हैं या उनके प्रति ऐसा अंदेशा है तो उनको चर्चा से बाहर क्यों रखा जाय? उनकी ईमानदारी और बेईमानी भी तो चर्चा और जांच से ही पता चलेगी।

साथ ही अगर पूंजीपति देश के अर्थतंत्र को मजबूत करने में अपना योगदान दे रहें हैं, तो भी उनको क्यों बिसराया जाय? अगर वे अच्छा कर रहे हैं तो क्यों न उनके नाम के साथ उनको सदन में याद किया जाय। लोकसभा में सिर्फ वर्तमान सदस्यों का नाम लेना ही जायज रह गया है। और जब सत्ता पक्ष द्वारा नेहरू से लेकर सदन से बाहर के लोगों का जिक्र होता है, तब अध्यक्ष जी को नियम और प्रक्रियाओं की याद क्यों नहीं आती है? क्या अब संसद में सिर्फ सदस्यों का नाम लेना ही जायज रह जाएगा? अगर कोई आतंकवादी पकड़ा जाय तो क्या उसका नाम लेने से इसलिए बचा जाय कि वह सदस्य नहीं है।

सदन तो चर्चा का केंद्र हैं। विमर्श स्थल है। वहां देश से जुड़ी हर अच्छी-बुरी खबर पर चर्चा होगी। 

(संजीव शुक्ल स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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