दालमंडी में बनारस की रूह बेचैन : बीजेपी सरकार के लिए आंख की किरकिरी क्यों बनी यह ऐतिहासिक गली और उसका बाजार-ग्राउंड रिपोर्ट

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वाराणसी। काशी की गलियां… इन्हें सिर्फ रास्तों की तरह देखना, जैसे सदियों की आत्मा को दीवार समझ लेना है। ये गलियां नहीं हैं, ये रूह की तहों में दर्ज दास्तानें हैं। उन्हीं में एक नाम है-दालमंडी। एक ऐसा नाम जो सिर्फ़ नक़्शे पर नहीं, बल्कि बनारसी तहज़ीब की धड़कनों में बसा है। वो तहज़ीब जो रियाज़ की तपिश से तपती थी, घुंघरुओं की थाप पर थिरकती थी, और इश्क़ की ख़ामोशियों में सांस लेती थी। दालमंडी वो जगह थी, जहां हर शाम एक सूरज पैदा होता था और हर सुबह एक राग। ये गली महज़ ईंट-पत्थर की बनावट नहीं थी, यह एक जिंदा एहसास था-एक चलती-फिरती किताब, जिसे महसूस किया जाता था, पढ़ा नहीं। उसे विकास की चादर ओढ़ाकर उसकी आत्मा को बेआबरू करने की तैयारी हो रही है।

दालमंडी को उजाड़ने की तैयारी है जिसने बनारस की आत्मा को सबसे गाढ़े रंगों में रंगा था। दरअसल, दालमंडी का मसला सिर्फ एक गली का नहीं। ये सवाल उस बनारस का है, जो गंगा की धारा सा सबको अपनाता आया है, जो संगीत के सुरों में धर्म की दीवारें बहा देता है, और जो इश्क़ को किसी मज़हब में नहीं बांधता। आज जब दालमंडी की मिट्टी से उसकी पहचान छीनी जा रही है, तो सवाल यह उठता है-क्या हम वाकई बनारस को उसका बनारसपन बचाकर देना चाहते हैं, या उसे सिर्फ एक और ‘स्मार्ट सिटी’ बनाकर छोड़ देंगे, जिसमें कोई आत्मा न हो, कोई धड़कन न हो?

दालमंडी की समस्या पर गुफ्तगू करते व्यापारी नेता

एक वक्त वो भी था जहां हर मोड़ पर एक महफ़िल सजती थी, हर दहलीज़ पर कोई फ़नकार अपने फ़न से बनारस को रचता था। दालमंडी की ख़ामोशियों में आज भी वो सुर हैं जो कभी ठुमरी, दादरा, कजरी और ग़ज़ल के ज़रिये इंसान की रूह को छू जाते थे। ये वो जगह थी जहां सूरज निकलने से पहले तानें गूंजती थीं, और शाम ढलते ही संगीत से सजी हुई दुनिया खुदा के सबसे करीब लगती थी। बनारस की वो आत्मा तिलमिला रही है। वह काशी, जो सहस्र वर्षों से अपनी विविधताओं, अपनी तहजीब, और अपने धड़कते जीवन से पहचानी जाती रही है-आज खामोश खड़ी है। दालमंडी में जहां पहले हर सुबह रौनक होती थी, आज एक अनजानी उदासी पसरी है। बनारस की यही रूह अब धीरे-धीरे किसी सरकारी नक्शे की रेखाओं में गुम होती जा रही है।

वाराणसी की ऐतिहासिक और जीवंत गलियों में शुमार दालमंडी की फिजा इन दिनों बदली-बदली सी है। कुछ दिन पहले तक जो गली तिरपालों से ढंकी रहती थी, अब वहां एक अजीब-सी वीरानी पसरी है। नगर निगम की टीम ने भारी पुलिस बल की मौजूदगी में 650 मीटर लंबी इस गली से तिरपाल हटा दिया। प्रशासनिक तौर पर ये सड़क चौड़ीकरण अभियान का पहला कदम है, लेकिन स्थानीय लोगों के लिए ये उनके वजूद पर पड़ा पहला वार महसूस हो रहा है।

दालमंडी गली में करीब डेढ़ सौ दुकानदारों ने अपने कारोबार को बचाने के लिए तिरपाल लगा रखी थी। एक समय था जब दालमंडी की गलियां रंग-बिरंगी तिरपालों और पन्नियों से ढकी रहती थीं। इन तिरपालों के नीचे न सिर्फ दुकानों का कारोबार चलता था, बल्कि वहां के बाशिंदों का सपना, संघर्ष और रोटियों की खुशबू भी पलती थी। पर अब वो सब कुछ बीते कल की तरह धुंधला हो चला है। चौक-दालमंडी से लेकर नई सड़क तक की इन तंग गलियों में जो कुछ बेतरतीब तिरपाल और पन्नियां सालों से लगी थीं, उन्हें एक झटके में हटा दिया गया। ये कार्रवाई दालमंडी के पार्षद इंद्रेश कुमार की शिकायत के बाद हुई, लेकिन इसका असर सिर्फ अतिक्रमण पर नहीं, वहां की रूह पर भी पड़ा।

कर्नल संदीप शर्मा के नेतृत्व में नगर निगम का प्रवर्तन दल मैदान में उतरा। अतिक्रमण निरीक्षक संजय श्रीवास्तव अपनी टीम के साथ वहां पहुंचे। चौक थाने के सब-इंस्पेक्टर और पुलिस बल ने भी मोर्चा संभाला। और फिर एक-एक कर तिरपालें हटाई जाने लगीं, जैसे किसी ने किसी की छांव छीन ली हो। जिस बाजार में कभी रौनक थी, वहां अब एक अजीब सी खामोशी है। तिरपालों के हटने से दुकानों की असलियत, उनका फैलाव और उनकी सीमाएं सब उजागर हो गईं। वर्षों से जो तिरपालें बारिश, धूप और धूल से दुकानदारों को बचाती थीं, अब इतिहास बन चुकी हैं।

अधिकारियों की नजर में यह अतिक्रमण हटाने की एक सामान्य कार्यवाही थी, लेकिन वहां के लोगों के लिए यह उनके जीवन की परतों को उधेड़ने जैसा था। जो तिरपालें कभी रोज़ी-रोटी की ढाल थीं, आज उन्हीं के हटने से कई आंखें नम हैं। दालमंडी का बाज़ार अब खुला ज़रूर है, पर दिलों में कसक भी उतनी ही गहरी। ये सिर्फ तिरपाल नहीं थे, ये उम्मीदों की छतें थीं, जिन्हें अचानक हटा दिया गया। तिरपाल हटते ही जैसे दालमंडी की हकीकत नंगी हो गई-हर वो अतिक्रमण, जो अब तक छुपा था, खुल कर सामने आ गया। छतों के ऊपर लटकते बिजली के तार अब आसमान से बातें करते दिख रहे हैं, और गली-जिसे कुछ लोग अपना सब कुछ कहते हैं-अब जैसे एक उजड़ा हुआ मंजर बन गई है।

एक रास्ता जो सिर्फ सड़क नहीं, इतिहास है

उत्तर प्रदेश सरकार ने दालमंडी के सड़क चौड़ीकरण प्रोजेक्ट को लेकर बड़ा कदम उठाया है। पहले चरण में 22 करोड़ रुपये की धनराशि जारी कर दी गई है। यह रकम उस परियोजना की पहली किश्त है, जिसका कुल बजट 222 करोड़ रुपए है। प्रस्ताव के मुताबिक लगभग 700 मीटर लंबे इस मार्ग को अब 17 मीटर चौड़ा किया जाएगा। इसमें मुआवज़ा, सड़क चौड़ीकरण, सीवर और विद्युत व्यवस्था जैसे कार्यों के लिए राशि तय की गई है। 22 करोड़ की पहली किश्त जारी हो चुकी है और इसके बाद पीडब्ल्यूडी की टीम ने मकानों की नाप-जोख शुरू कर दी है-कितने मंजिल का मकान है, सड़क कितनी चौड़ी है, और कौन-सा घर कितनी जद में आएगा।

दालमंडी के दुकानदार बाले यादव

अब तक 150 से अधिक दुकानों और घरों की माप ली जा चुकी है। बुलडोज़र की गूंज अब दूर नहीं। मगर इस विकास की कीमत किसे चुकानी होगी? दालमंडी के निवासियों और व्यापारियों की आंखों में चिंता साफ झलकती है, लेकिन कैमरे के सामने कोई बोलने को तैयार नहीं। ऑफ कैमरा कहते हैं, “जनाब, ये सड़क नहीं, एक गली है। क्या कोई गली 17 मीटर चौड़ी होती है? चौक की सड़क भी इतनी चौड़ी नहीं। पहले कहा गया था कि 23 फीट तक चौड़ीकरण होगा, मान लिया। पर अब 17 मीटर? क्या दालमंडी का वजूद मिटा देने की तैयारी है?”

इस परियोजना में सिर्फ सड़क नहीं बन रही, इसके साथ एक पुराना और जटिल ताना-बाना भी बदलने जा रहा है। नई सीवर लाइन बिछेगी, बिजली की व्यवस्था सुधरेगी, पोल शिफ्ट होंगे, और सबसे बड़ा सवाल-मुआवज़ा। प्रस्तावित डीपीआर में 100 करोड़ रुपये से ज़्यादा की राशि केवल मुआवज़े के लिए निर्धारित की गई है। लेकिन क्या इस मुआवज़े में वो जज़्बात भी शामिल हैं जो यहां की हर दुकान, हर कोने में सांस लेते हैं?

दालमंडी में करीब 10,000 कारोबारी अपनी रोज़ी-रोटी का संसार सजाए हुए हैं। यह इलाका कपड़ा, बर्तन, मोबाइल, इलेक्ट्रॉनिक सामान, आढ़त और तमाम छोटे-बड़े व्यवसायों का केंद्र है। यहां से सिर्फ सामान नहीं, उम्मीदें और ज़रूरतें भी सप्लाई होती हैं-पूरे पूर्वांचल में। चौक से दालमंडी में प्रवेश करते ही करीब 300 मीटर तक मोबाइल फोन, एसेसरीज और रिपेयरिंग की दुकानें सजी हैं। जैसे ही कोई ग्राहक भीतर आता है, दुकानदारों की आंखों में उम्मीदें जग जाती हैं। कोई पुराना फोन चमक जाता है, कोई टूटी स्क्रीन फिर से मुस्कराने लगती है। इन गलियों में मोबाइल सिर्फ सामान नहीं, आज की दुनिया से जुड़ने का माध्यम हैं।

नई सड़क की ओर से आते ही एक अलग ही दुनिया खुलती है-रंग-बिरंगे कपड़ों की। त्योहारों का मौसम हो या शादी-ब्याह का समय, हर मौके की तैयारी यहीं से शुरू होती है। ईद की टोपी हो या दिवाली के लाइटिंग वाले कपड़े, होली के रंग हों या मकर संक्रांति की पतंगे-दालमंडी सबकी ज़रूरत पूरी करता है। यहां 500 से अधिक इलेक्ट्रॉनिक दुकानों की जगमगाहट है। खिलौनों से लेकर सजावटी सामान, बिजली के पुर्ज़े हों या रोज़मर्रा के काम के इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स-हर चीज़ यहां मिलती है। ब्रांडेड चीज़ों की डुप्लीकेट भी मिल जाती है, लेकिन भरोसे की कमी नहीं होती।

सरकारी योजनाओं की फाइलों में दर्ज ये ‘सड़क चौड़ीकरण’ एक स्थानीय व्यापारी के लिए केवल कुछ इंच जमीन नहीं, उसका पूरा आशियाना है। उसकी दुकान का कोना है, उसकी दुआओं की दीवार है, उसका बच्चा है जो उसी दुकान में बैठकर स्कूल की किताबें पढ़ता है। ये सिर्फ 17 मीटर की बात नहीं है-यह उन रिश्तों, उस भरोसे, उस आवाजाही की बात है, जो दालमंडी को एक ज़िंदा बाज़ार बनाते हैं।

अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही दालमंडी

आज यही दालमंडी अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। जिस गली में पीढ़ियों का व्यापार पलता रहा, जहां हर ईंट में किसी की मेहनत की कहानियां छिपी हैं, अब वह उजड़ने की कगार पर है। सरकार कहती है विकास होगा। गलियां चौड़ी होंगी, रास्ते आसान होंगे, श्रद्धालुओं को सुगमता मिलेगी। लेकिन क्या कोई पूछेगा उन लोगों से, जिनकी पूरी दुनिया इन्हीं तंग गलियों में सिमटी थी? क्या विकास की परिभाषा सिर्फ बुलडोजर से लिखी जाएगी?

जिया काजिम-उनकी आंखों में अब भी अपने दादा की मुस्कान छिपी है, जिन्होंने 129 साल पहले जीलट वाच की नींव रखी थी। वे कहते हैं, “ये दुकान हमारी पहचान है। जब ये टूटेगी, तो हमारी सांसें भी साथ टूट जाएंगी।” उनके शब्दों में जो दर्द है, वह सिर्फ उनकी नहीं, उन सैकड़ों दुकानदारों की कहानी है, जिनके लिए यह गली एक जीवनरेखा है।

जीलट वाच के मालिक जिया काजिम

अब्दुल वहीद, जो वर्षों से बर्तनों की दुकान चला रहे हैं, अपने कांपते हाथों से पुराना ताम्बे का लोटा उठाते हुए कहते हैं, “हमने यहां सिर्फ दुकान नहीं चलाई, हमने अपनी जिंदगी बनाई। अब सरकार कहती है सब खत्म कर दो। क्या ये विकास है, या उजड़ने की शुरुआत? ” उनके शब्दों में गूंजता सवाल हर बनारसी की आत्मा को झकझोर देता है। इन गलियों की हर ईंट गवाह है उन कहानियों की, जो इतिहास के पन्नों में दर्ज नहीं, बल्कि हवा में गूंथी हुई हैं। यह वही दालमंडी है, जहां कभी कोठों से घुंघरुओं की आवाज गूंजा करती थी, ठुमरी की गूंज से शामें महकती थीं। जहां मुगलिया तहजीब की परछाइयां आज भी हवाओं में घुली हैं। चुनार के लाल पत्थरों से बनी सौ-सौ साल पुरानी इमारतें सिर्फ इमारतें नहीं, वक़्त के आईने हैं, जिनमें बनारस अपनी शक्ल देखता रहा है।

आज उन इमारतों पर खतरे की तलवार लटक रही है। दालमंडी में 10,000 से ज़्यादा दुकानें हैं। लेकिन हर दुकान सिर्फ एक व्यापार नहीं, एक कहानी है, एक रिश्ता है, एक सपना है। मोहम्मद सलीम, चाय की दुकान पर बैठकर कहते हैं, “यह बाजार हमारी रगों में बहता है। जब यह खत्म होगा, तो बनारस का दिल धड़कना बंद कर देगा। दालमंडी-एक नाम नहीं, एक अहसास है। एक गली नहीं, एक ज़िंदा इतिहास है। वही दालमंडी, जहां सुबह की पहली अज़ान और मंदिरों की आरती की धुनें एक साथ गूंजा करती थीं। जहां पान की दुकान पर बैठा दुकानदार अपने ग्राहक को गपशप के साथ गर्मजोशी परोसता था, वहीं बगल की दुकान में कोई ग्राहक चूड़ियों की खनक में अपने त्योहार की तैयारी करता था। यह सिर्फ एक बाजार नहीं, बनारस की धड़कन थी।”

हर त्योहार, हर रंग, हर रौशनी दालमंडी से होकर गुजरती थी। होली के अबीर से लेकर ईद की सेवइयों तक, राखियों की झालर से लेकर दीवाली के दीप तक-हर त्योहार की शुरुआत यहीं से होती थी। वसीम अंसारी कहते हैं, “अब त्योहार भी फीके लगते हैं। जैसे बाज़ार की धड़कन रुक गई हो।” उनकी आंखों में वो चमक नहीं जो कभी इन गलियों की रौनक हुआ करती थी। व्यापारियों को जो दर्द है, वह सिर्फ दुकान के उजड़ने का नहीं, पहचान के मिटने का है। रेहान अहमद की बात जैसे इस पूरे बाजार की चीख बन जाती है-“अब बनारस नहीं बसता, बस नक्शे हैं, योजनाएं हैं, और बुलडोज़र हैं।”

सरकार ने मुआवज़ा देने की बात कही है, लेकिन क्या पैसे से वो रिश्ते, वो यादें, वो इतिहास खरीदा जा सकता है जो इन दुकानों से जुड़ा है? जुल्फकार आलम की आंखें भर आती हैं जब वो कहते हैं, “पिता के साथ इस दुकान पर बैठना शुरू किया था। अगर ये दुकान नहीं रहेगी, तो मैं भी नहीं रहूंगा।”

“पहले बसा लो, फिर उजाड़ना…”

दालमंडी के कारोबारी शकील अहमद की आंखों में बस एक ही सवाल तैरता है, “पहले रोज़ी का इंतज़ाम तो करिए जनाब, फिर उजाड़ने की बात करिए।”हमें कभी ऐतराज़ नहीं रहा कि अतिक्रमण हटाया जाए, लेकिन जिस सड़क पर हमारी सांसें बसी हैं, उसे यूं बेरहमी से मत कुचलिए। चौड़ीकरण के नाम पर जब पूर्वांचल की रोटी-बाज़ार ही उजड़ जाएगी, तो फिर चौड़ी सड़क पर चलने के लिए बचेगा कौन?” शाहिद अहमद की आवाज़ में वो सिसकी है, जो दालमंडी की गलियों में सदियों से गूंजती रही, “इस रास्ते पर हमने बचपन की साइकिलें दौड़ाई हैं, 3.5 मीटर की यह गलियां, 5.5 मीटर की ये सांसें – यही तो हमारी दुनिया रही है। अब कह रहे हैं कि ये तंग है… मगर इन तंग रास्तों में कितनी ज़िंदगियां, कितनी उम्मीदें और कितनी दुकानों की रौशनी पल रही थी। अब अगर ये टूटेगी, तो घर नहीं… पूरे परिवार तबाह हो जाएंगे।”

राशिद खान की आवाज़ अब किसी विरोध की नहीं,एक थके हुए दुकानदार की गुहार है, “पूरी की पूरी मंडी अगर उजड़ गई, तो पेट कहां से भरेगा? हम सड़क पर नहीं, भूख पर आ जाएंगे। जो लोग योजनाएं बना रहे हैं,उनसे बस एक ही गुज़ारिश है, पहले सोचिए बसाने की बात, फिर कीजिए उजाड़ने की बात। वरना ये सिर्फ दुकानों का सवाल नहीं होगा, यह रोटी का जनाज़ा होगा।”

व्यापारी नेता बदरूद्दीन अहमद कहते हैं, “दालमंडी को यूं ही बनारस का सुपर मार्केट नहीं कहा जाता। यह सिर्फ एक बाज़ार नहीं, बल्कि एक एहसास है-हर दुकानदार की मेहनत का, हर ग्राहक की पसंद का, और हर बनारसी की पहचान का। यहां वो सब कुछ मिलता है, जो किसी घर, किसी रिश्ते, किसी त्योहार को पूरा करता है। कपड़े हों या जूलरी, खानपान से लेकर पूजा-पाठ का सामान, मोबाइल से लेकर इलेक्ट्रॉनिक्स तक-हर ज़रूरत की चीज़ यहां सजी रहती है। हर दुकान के पीछे एक कहानी है, एक परिवार है, एक सपना है।”

बदरुद्दीन यह भी कहते हैं, “पूर्वांचल के कोने-कोने से कारोबारी यहां आते हैं। किसी को थोक में सौदा चाहिए, तो किसी को त्योहार की तैयारी करनी होती है-दालमंडी सबका स्वागत करती है। यहां दिन में इतनी भीड़ होती है कि पैदल चलना भी किसी सफ़र से कम नहीं लगता। लोगों की आवाजाही, दुकानदारों की पुकार, और ग्राहकों की जुगत से ये गलियां हमेशा ज़िंदा रहती हैं। लेकिन जैसे ही सूरज ढलता है, और बाज़ार की हलचल कुछ थमती है, उसी दालमंडी की एक और तस्वीर सामने आती है। नई सड़क से चौक तक का रास्ता, जो दिन में साइकिल को भी तरसता है, रात में चार पहिया गाड़ियों के लिए खुल जाता है। और तब लगता है, जैसे बनारस की रगों में बहता जीवन कुछ पल के लिए ठहर गया हो-बस इस बाज़ार की सांसें सुनाई देती हैं।”

खामोश होती गलियों में गूंजता आहट का दर्द

दालमंडी की तंग गलियां… जहां कभी रूमानी कहानियां जन्म लेती थीं, जहां हर त्योहार की पहली झलक इन दुकानों की रौनक से मिलती थी, अब वो गलियां खामोश हैं। इन गलियों में फैली हुई वो पुरानी लकड़ी की अलमारियां, जिनमें पीढ़ियों से गहने, चूड़ियां, कपड़े, घड़ियां और किताबें सजी थीं, अब धूल फांक रही हैं। एक समय था जब इन दुकानों के बाहर ग्राहकों की भीड़ लगी रहती थी, अब वहीं डर की चादर तनी हुई है।

दालमंडी सिर्फ एक व्यापारिक केंद्र नहीं, यह बनारस की धड़कन है। यह मोहल्ला, जहां सुभाषचंद्र बोस के समर्थन में नारे लगे थे, जहां गंगा-जमुनी तहज़ीब की सबसे खूबसूरत मिसालें दिखती थीं, आज विकास के नाम पर मिटाई जा रही है। इस मिटाए जाने में सिर्फ दुकानों का टूटना नहीं है, बल्कि उन यादों, उन रिश्तों और उस सांस्कृतिक विरासत का छिन जाना है जो वर्षों से इन गलियों में सांस ले रही थी। 75 साल के घड़ी दुकानदार अतहर सिद्दीकी की आंखें बोलती हैं, “यहां हर घड़ी सिर्फ समय नहीं बताती थी, यह पीढ़ियों की मेहनत की गवाही देती थी। अब वह घड़ी शायद कभी न चले।”

बाबा सर्राफ के मालिक जुल्फकार आलम

हर दुकान का मालिक अब सिर्फ अपना नहीं, अपने पुरखों का सपना भी टूटता देख रहा है। वे खामोश हैं, लेकिन उस खामोशी में चुभन है, शिकायत है और सबसे ज़्यादा, बेबसी है। उनके पास न कोई बड़ी आवाज़ है, न कोई मंच, बस एक सवाल है, “क्या विकास का मतलब हमारे वजूद को मिटा देना है? ” 35 वर्षीय फरहान, जिनकी ‘प्रिंस कम्युनिकेशन’ की दुकान सालों से मोबाइल रिपेयरिंग का भरोसा रही है, धीरे से कहते हैं, “हम बदलाव के खिलाफ नहीं हैं, पर यह बदलाव हमारी मिट्टी को ही खोद रहा है। दालमंडी को अगर फर्श से उड़ाकर आसमान पर टांग दिया गया, तो उसकी जड़ें कौन सींचेगा? “

यह बाजार अब भी जीवित है, लेकिन सांसें कम हो रही हैं। दुकानों के बाहर बैठने वाले चाय वाले, गलियों में बसी महकती इत्र की दुकानें, सेवई बनाती पुरानी अम्मियां, अब डर में जी रहे हैं। रोज सुबह यह सोचकर दुकान खोलते हैं कि पता नहीं कब नोटिस आ जाए, कब जेसीबी आकर उनकी रोज़ी का आख़िरी सहारा छीन ले। व्यापारी कहते हैं कि अगर सरकार वाकई चाहती है कि विकास और विरासत साथ चले, तो क्यों नहीं ऐसी योजना लाई जाती जिसमें दोनों की जगह हो? क्यों नहीं अंडरग्राउंड मार्केट तैयार किया जाता, जिसमें इन दुकानों को यथास्थान बसाया जाए? क्यों नहीं इन पुरानी गलियों की बनावट और पहचान को सुरक्षित रखते हुए तकनीकी सुधार किए जाते?

हर मोड़ पर खड़े लोग बस एक बात कहते हैं, “काश! हमें सुना जाता।” दालमंडी की आवाज़ अब मीडिया की सुर्खियां नहीं, बल्कि आंखों में कैद आंसू हैं। हर दुकानदार, हर ग्राहक, हर बच्चा जो इन गलियों में बड़ा हुआ है, अपने अतीत को बचाने की जद्दोजहद में है। सरकार कहती है कि गली चौड़ी होगी, एंबुलेंस चलेगी, दमकल पहुंचेगी, पर्यटक आएंगे। लेकिन कोई यह नहीं पूछता कि जिन गलियों में आज सांसें थम रही हैं, वहां कल क्या बचेगा? इन गलियों की जगह अगर मॉल और रेस्तरां खुल भी जाएं, तो क्या वह दालमंडी होगी?

बनारस की आत्मा का संघर्ष

बनारस की आत्मा को अगर किसी गली में समेटना हो, तो वह गली दालमंडी होगी। यह सिर्फ एक व्यापारिक मंडी नहीं, बल्कि बनारस की रूह का ठिकाना है। यहां की दीवारें भी कहानियां सुनाती हैं, रियाज़ की थाप, घुंघरुओं की छनक, और शाम की महफिलों की गूंज अब भी इन हवाओं में बसी है। लेकिन आज यह सब कुछ खतरे में है। बनारसी साड़ियों के विक्रेता सद्दाम हुसैन की आंखों में उम्मीद और चिंता दोनों झलकते हैं। वो कहते हैं, “हमारी दुकानें हमारी जड़ें हैं, इन्हें उजाड़ना हमारी ज़िंदगी को बेघर करने जैसा है। दालमंडी सिर्फ ईंट और पत्थर नहीं, यादों और रिवायतों का क़िला है।”

दालमंडी की गलियों में घूमते हुए ऐसा लगता है जैसे कोई पुराना गीत किसी कोने में अटका हो, जो फिर से गाए जाने की आस लगाए बैठा है। इन गलियों में एक वक़्त शाम के बाद संगीत बहता था, और हवा में तबले की थापों के साथ पान की खुशबू घुल जाती थी। यहीं से उभरीं थीं सितारा देवी, बागेश्वरी देवी, रसूलन बाई और निर्मला देवी, जिनकी कला आज भी बनारस के आकाश में गूंजती है।

यह गली वो जगह थी, जहां रईस लोग संगीत को सिर्फ सुनते नहीं थे, उसे जीते थे। यहां अदब था, तहज़ीब थी, और वो राग था जिसमें बनारस अपनी पहचान ढूंढ़ता था। लच्छू महाराज की हवेली, जहां उनकी उंगलियों से तबला बोलता था, अब एक मार्केटिंग कॉम्प्लेक्स में तब्दील हो चुकी है। मगर पुराने बनारस के लोग अब भी बताते हैं कि जब लच्छू महाराज “तिटकत-धिन-धिन” बजाते थे, तो पूरी गली थिरकने लगती थी।

दालमंडी का ज़िक्र हो और उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ान का नाम न आए, ये मुमकिन ही नहीं। उन्होंने खुद कहा था, “अगर दालमंडी और वहां की तवायफें न होतीं, तो बिस्मिल्लाह ख़ान भी न होते।” इस कथन में वो स्वीकारोक्ति है, जो यह साबित करती है कि कला का सबसे सच्चा रूप इन्हीं गलियों में पनपा था। कचौड़ी गली सून कइला बलमु: दालमंडी, वो इश्क़, जो मिटाया नहीं जा सकता…।

बनारस की हर गली एक राग है, हर मोड़ कोई कहानी। लेकिन दालमंडी… वह सिर्फ गली नहीं, एक जीवित तहज़ीब है, सुरों की पालकी, मोहब्बत की चौखट और विरासत की छांव। आज जब इस गली पर बुलडोज़र के पहिये घूम रहे हैं, तो ऐसा लगता है जैसे कोई पुराना राग गला घोंटकर खामोश किया जा रहा हो। यह दालमंडी कभी बनारस की सांझ का सुरम्य मुकाम हुआ करती थी। यहां हर कदम पर कोई रियाज़ करता हुआ मिलता, कोई ग़ज़ल तन्हाई में सांसें लेती, कोई ठुमरी बरगद की छांव में बिखर जाती। यहां संगीत था, प्रेम था, और उन तवायफों की करुण कहानियां थीं, जिन्होंने अपने रियाज़ को पूजा समझा और अपने इश्क़ को इबादत।

गौहर जान… हां, वही बनारसी गौहर, जिसने अपने सुरों से हवाओं में राग घोल दिया था। वह किसी महल की मलिका नहीं, दालमंडी की मल्लिका थी। उसका इश्क़ कोई किताबों में दर्ज़ कहानी नहीं था, वह इश्क़ तो कचौड़ी गली में शाम के साए तले खड़े असलम की एक झलक में सिमट आया करता था। वह इश्क़ जो चुप था, मगर मुकम्मल था।

गौहर की आवाज़ में रूह बसती थी। कहते हैं, जब वह गाती थी, तो समय थम जाता था – ठुमरी में विरह का रंग, कजरी में सावन की हूक, और दादरा में दिल का टूटना। बनारस की रूह को सुर देने वाली वह नाज़ुक सी औरत, जिसने एक क्रांतिकारी से मोहब्बत की और फिर उसके इंतज़ार में उम्र काट दी।

“मिर्ज़ापुर कइला गुलज़ार हो, कचौड़ी गली सून कैला बलमु…।”

लोक गायिका मालिनी अवस्थी जब इसे गाती हैं, तो सिर्फ गीत नहीं गूंजता, पूरी दालमंडी एक बार फिर ज़िंदा हो उठती है। हर बंद मकान की खिड़की से कोई सुर झांकने लगता है, हर टूटती दीवार से एक मोहब्बत रिसती है। मालिनी कहती हैं, “गौहर जान कोई आम तवायफ नहीं थी। वह एक इंकलाब थी। उसने गांधी जी को आंदोलन के लिए चंदा दिया, और अपने सुरों से देश को एकता का संगीत सुनाया।”

दालमंडी की गलियां कहानियों से अटी पड़ी हैं। फ़र्रुख़ाबाद से आये उस्तादों की बंदिशें, लखनऊ से बहती ठुमरियों का प्रवाह, कानपुर के पायल की छमछम, और बनारस की वह गंध, जहां घुंघरुओं की खनक किसी संध्या वंदन जैसी लगती थी। और अब… इन्हीं गलियों में जब बुलडोज़र चलता है, तो ऐसा लगता है जैसे किसी मंदिर की घंटियां तोड़ी जा रही हों। जैसे कोई विरासत रेत की तरह उंगलियों से फिसल रही हो। क्या केवल दीवारें गिर रही हैं? या फिर गिर रही हैं सदियों की मोहब्बतें, समर्पण, संगीत और सपने? क्या कोई मलबा दबा सकता है वो इंतज़ार, जो एक पालकी से दीदार तक सिमटा था? क्या कोई नक़्शा मिटा सकता है वो इश्क़, जो बिना कहे मुकम्मल था? नहीं…कभी नहीं।

दालमंडी की मिट्टी में सुर हैं, मोहब्बतें हैं, बगावतें हैं और दुआएं हैं। यह वह जगह है जहां हिंदू और मुसलमान एक ही चौक पर चाय पीते हैं, मिठाई बांटते हैं और मिलकर ईद-दिवाली मनाते हैं। यह वह जगह है जहां रेशमी साड़ियों के बीच संस्कृति की नाज़ुक कढ़ाई बुनी जाती थी। दालमंडी सिर्फ गली नहीं, बनारस की आत्मा है। और जब आप आत्मा को मिटाना चाहते हैं, तो इतिहास गवाह बन जाता है… और कचौड़ी गली की वीरानी एक बार फिर चीख़ती है, “कचौड़ी गली सून कइला बलमु…।”

यह पुकार सिर्फ एक तवायफ की नहीं है। यह बनारस की सिसकी है। यह उस सभ्यता की आख़िरी सांसें हैं, जो अब भी सुरों के सहारे ज़िंदा रहना चाहती है। उसे मत मारो। दालमंडी को जीने दो। लेकिन वक्त बदलता है, और वक्त के साथ बनारस की यह आत्मा भी सिमटने लगी है। हवेलियां अब दुकानों में बदल रही हैं, महफिलें खामोश हो चुकी हैं, और कलाकारों की वह पीढ़ी जो सुर और ताल से शहर को जीवंत रखती थी, अब इतिहास की किताबों में दर्ज हो रही है।

देशभक्ति की आवाज

दालमंडी की गलियां महज़ रेशमी कपड़ों की दुकानों और चूड़ियों की खनक तक सीमित नहीं रहीं। ये वही गलियां थीं जहां घुंघरुओं की झंकार के बीच आज़ादी की धमक भी सुनाई देती थी। जब देश गुलामी की जंजीरों में जकड़ा था, तब इन गलियों की तवायफ़ें सिर्फ मनोरंजन की मूर्ति नहीं, बल्कि प्रतिरोध की परछाई बन चुकी थीं। इनकी महफ़िलें नाच-गाने की नहीं, क्रांति की बैठकें थीं। वो कोठे, जहां कभी राग दरबारी गूंजती थी, अब ‘वंदे मातरम्’ और ‘सरफरोशी की तमन्ना’ की आवाज़ में गूंजने लगे थे।

विद्याधरी बाई जब पहली बार अपने कोठे पर देशभक्ति का मुजरा लेकर आईं, तो महज़ गीत नहीं गाया गया था, एक अलख जगी थी। उनके लिखे गीतों में आज़ादी की वह गूंज थी जो बांसुरी की तरह दिलों में उतरती थी। उन्होंने अपनी कला को क्रांति का औजार बना दिया। धनेसरीबाई, जिनका नाम सुनते ही कोठों पर ठहर जाने वाली निगाहें झुक जाती थीं, चंद्रशेखर आज़ाद को अपने घर में छिपा कर अंग्रेजों से आंख मिलाने का साहस रखती थीं। उनका दरवाज़ा एक शरणस्थली था, और उनका हौसला एक मिसाल। अंग्रेज जब उनके दरवाज़े तक पहुंचे, तो उनके तेवरों में ऐसा प्रतिकार था कि दुश्मन भी एक पल को ठिठक जाए।

रसूलन बाई, जिनकी आवाज़ में इबादत बसती थी, जब दंगाइयों की आग में अपना आशियाना खो बैठीं, तो चाय की दुकान पर बैठकर भी देशभक्ति के सुर नहीं छोड़े। उन्होंने अपने गहनों को तब तक नहीं पहना, जब तक देश ने आज़ादी का सूरज नहीं देखा। यही उनका प्रेम था उस मिट्टी से, जिसे वो स्वर देती रहीं।

दुलारीबाई ने जब नन्हकू से अंग्रेजों के खिलाफ हथियार उठवाया, तो यह साबित कर दिया कि ये महिलाएं महज़ अदाओं की नहीं, इरादों की मल्लिका थीं। उनके कोठों से क्रांति के बीज बोए गए। उनकी पहचान गुलाबी साड़ियों और पान की महक से नहीं, बल्कि लहू में घुले साहस से बनी। जद्दनबाई, सिद्धेश्वरी देवी, तौकीबाई, हुस्नाबाई, जानकीबाई, और गौहरजान- ये नाम अब इतिहास की किताबों में सीमित हो सकते हैं, लेकिन दालमंडी की दीवारें आज भी इन्हें पुकारती हैं। इनका संगीत, इनकी कविताएं, और उनका जज्बा इस बाजार के कोने-कोने में गूंजता है।

इनकी कला न केवल आत्मा को छूने वाली थी, बल्कि आत्मबल को भी जगाने वाली थी। ये महिलाएं बनारसी तहज़ीब की ज़िंदा मिसाल थीं, जिनकी रचनाएं आज़ादी के नायकों में ऊर्जा भरती थीं। गुलशन कपूर की नज़र में दालमंडी काशी के चार पुरुषार्थों-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-की एक प्रतीक भूमि है। उनका मानना है कि यह मार्ग न केवल व्यापार और भोग का केंद्र था, बल्कि आत्मा के संगीत और संस्कृति का भी धाम था। लेकिन आज जब दालमंडी का नाम बदल कर ‘हकीम मोहम्मद जाफर मार्ग’ कर दिया गया है, तो सवाल उठता है, क्या एक नाम बदल देने से इतिहास मिट सकता है? बदरुद्दीन अहमद की बातों में वह टीस झलकती है जो एक सांस्कृतिक धरोहर के क्रमशः खोने से उपजी है।

काशी विश्वनाथ मंदिर के पास रहने वाले वरिष्ठ पत्रकार ऋषि झिंगरन, जो वर्षों से बनारस की सांस्कृतिक परंपराओं को शब्दों में पिरोते आ रहे हैं, कहते हैं, “दालमंडी की गलियां कभी सांझ ढलने पर जाग उठती थीं। यह वह जगह थी जहां त्योहार और तवायफ, पूजा और प्रेम, गीत और ग़ज़ल – सभी एक साथ सांस लेते थे। यहां की मिट्टी में साझी विरासत की सोंधी गंध आज की राजनीति की धूल में दबा दी गई है। आज जब दालमंडी की गलियां फिर एक बार उजड़ने की कगार पर हैं, तब वहीं से एक धीमी, किंतु अडिग आवाज़ उठती है, देशभक्ति की वह आवाज़ जो कभी घुंघरुओं की छनक में गूंजती थी, बांसुरी सी बहती थी, और शहनाई में सजती थी। यह आवाज़ न दबाई जा सकती है, न मिटाई जा सकती है।”

“यह दालमंडी की तवायफों की वह अनसुनी गाथा है जो इतिहास की किताबों में नहीं, दिलों में दर्ज है। दालमंडी की तवायफें इतिहास की वे जीवित कविताएं हैं जिन्हें आज भी पढ़ने और समझने की ज़रूरत है। इन्होंने अपने फन से देश को सजाया और अपने जज़्बे से आज़ादी की लौ प्रज्वलित की। बावजूद इसके, जब दालमंडी की किसी पुरानी दुकान से ‘इन्हीं लोगों ने ले लीना दुपट्टा मेरा’ की धुन सुनाई देती है, तो ऐसा लगता है जैसे यह गली खुद को याद दिलाने की कोशिश कर रही हो, ‘मैं अब भी ज़िंदा हूं, बस किसी ने मेरी धड़कनों को बहुत दिनों से सुना नहीं है।”

काशी विश्वनाथ मंदिर के पूर्न महंत राजेंद्र तिवारी

काशी विश्वनाथ मंदिर के पूर्व महंत राजेंद्र तिवारी की आंखों में वे गलियां आज भी जीवंत हैं। वे कहते हैं, “विश्वनाथ कॉरिडोर के नाम पर मोदी-योगी सरकार ने इतने मंदिर ध्वस्त करवा दिए, जितने शायद मुगल शासकों ने भी नहीं तोड़वाए। बनारस की गलियां बाबा की जटाओं की तरह मानी जाती रही हैं, जिन्हें देखने दुनिया भर से लोग आते थे। पर अब, राजनीतिक स्वार्थवश उन गलियों की पहचान मिटाई जा रही है। इस बार निशाने पर दालमंडी है। यह अध्याय सिर्फ अतीत का शोकगीत नहीं, बल्कि भविष्य की चेतावनी है। यदि हम दालमंडी को नहीं बचा सके, तो बनारस की आत्मा को खो देंगे और आत्मा के बिना कोई भी नगर केवल ईंटों और दीवारों का ढेर भर रह जाएगा। अगर बनारस को जीवित रहना है, तो दालमंडी को फिर से सांस लेनी होगी। वहां की गलियों में फिर से राग की सरगम गूंजनी होगी, तबले की थाप सुनाई देनी होगी। तभी बनारस वही बनारस रहेगा, जो कभी ‘संगीत की राजधानी’ कहलाता था।”

राजेंद्र तिवारी आगे कहते हैं, “जो बाज़ार कभी पूरे बनारस की नब्ज़ हुआ करता था, वह अब ख़ामोशी की चादर ओढ़े अंतिम सांसें गिन रहा है। शायद भविष्य का कोई इतिहासकार लिखेगा – ‘एक समय था जब दालमंडी में त्योहारों की रौनक थी, आज वहां ईंटों की खामोशी पसरी है।’ काशी को सिर्फ़ सड़कों से मत देखिए, उसे इन गलियों की धड़कनों में महसूस कीजिए। क्योंकि जिस दिन दालमंडी का शोर थम जाएगा, उस दिन हमारे भीतर भी कुछ टूटकर सदा के लिए खामोश हो जाएगा।”

(विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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