अमेरिका ने प्रवासियों के मुद्दे पर मोदी के ‘वैश्विक प्रभुत्व’ की कलई खोल दी

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जिस तरह अमेरिका द्वारा भारत के अवैध प्रवासियों को बेड़ी और हथकड़ियों में भारत भेजा गया, वह भारत के वैश्विक प्रभुत्व की कलई खोलता है। जबकि देखा गया है कि अमेरिका ने अन्य देशों के प्रवासियों को भेजने में एक जैसे मानक नहीं अपनाए। हमारे मुखिया ने आपत्ति तक न जताई। कम से कम इसके संकेत तो न दिखे। अगर आपत्ति जताने के बाद अमेरिका ने ऐसा किया तब तो और भी गलत है। इन प्रवासियों के साथ घोर अमानवीय व्यवहार किया गया। ये कोई पेशेवर हत्यारे तो नहीं थे।

डंका बजने की घोषणा अपने मुँह से नहीं की जाती। तारीफ तो तब है जब दूसरे करे। लेकिन हमारे वाले इसकी राह नहीं देखते। वे इस मामले में पूरी तरह आत्मनिर्भर हैं।

डंका सिर्फ भौतिक शक्ति से ही नहीं बजता बल्कि सच कहा जाय तो डंका नैतिक बल से ही बजता है। नैतिक बल के आगे भौतिक शक्ति भी नत होती है। जब आप नैतिक रूप से सही होते हैं तो बड़ी से बड़ी सत्ता से भी आप टकरा जाने का हौसला रखते हैं। ब्रिटेन के राजमहल के सारे प्रोटोकॉल को धता बताते हुए महात्मा गांधी अपनी शर्तों पर ब्रिटेन के राजा से मिलते हैं।

इसी तरह गांधी के ब्रिटिश प्रधानमंत्री से मिलने का आंखों देखा हाल बताते हुए फ्रैंक मॉरिस लिखते हैं – “अधनंगे फकीर के ब्रिटिश प्रधानमंत्री से वार्ता हेतु सेंट जेम्स पैलेस की सीढ़ियाँ चढ़ने का दृश्य अपने आपमें अनोखा एवं दिव्य प्रभाव उत्पन्न करने वाला था”

गांधी के व्यक्तित्व को सबसे बढ़िया इरविन के इन शब्दों में समझा जा सकता है। उन्होंने कहा-“मैंने एक विशाल शक्तिशाली व्यक्तित्व देखा। वह शारीरिक दृष्टि से तगड़ा नहीं है। उसका कद छोटा है, मुख पर झुर्रियां हैं, दुबला-पतला है, आगे से दांत गिर गए हैं, उसका शरीर वस्त्रों आदि की संसारी सजावट से सजा हुआ भी नहीं है, फिर भी उसकी गहरी और छोटी-छोटी आँखों के पीछे और अति सक्रिय मस्तिष्क के पीछे उसके चरित्र का बल है। इसके प्रभाव से कोई नहीं बच सकता।”

गांधी न कभी सत्ता से प्रभावित हुए और न कभी उन्होंने सत्ता के आतंक के आगे समर्पण किया। वे अपने देशवासियों को सत्ता के आतंक से जूझना सिखा रहे थे। वे उसी ब्रिटिश राज्य के कानूनों को चुनौती दे रहे थे जिसका आधी दुनिया पर राज्य कायम था। नैतिक बल के अभाव में यह संभव न था।

शोषक सत्ता यदि किसी से डरती है तो वह है नैतिक बल। भगतसिंह और उनके साथी क्रांतिकारियों को तय समय से पहले फांसी देने और उनके शवों को आधी रात में जला देने के पीछे यही डर था। भगतसिंह और उनके साथियों के नैतिक संघर्ष का सामना करने का साहस सरकार में न था, इसीलिए उसने इन आवाजों को चुप कराने के लिए दिन की जगह रात को चुना।

शोषण की प्रतीक ब्रिटिश सरकार अपने अस्तित्व के नैतिक आधार को पुष्ट करने के लिए ही औपचारिक ही सही, पर अदालतों के जरिए कानून के राज का भ्रम बनाए रखना चाहती थी।

यह नैतिक बल ही था कि नए स्वतंत्र हुए देश के प्रधानमंत्री की अगवानी के लिए अमेरिका के राष्ट्रपति घंटों पहले हवाई अड्डे पर मौजूद रहे। यह नेहरू के सिद्धांतों की राजनीति का आभामंडल ही था कि अमरीका के राष्ट्रपति कैनेडी उनको रिसीव करने के लिए विमान के अंदर तक गए। यह अभूतपूर्व दृश्य था। नेहरू के बारे में पार्सिवल स्पीयर लिखते हैं – नेहरू भारत पर पूर्णरूपेण छाई हुए थे, जैसे दी गॉल फ्रांस पर। … जैसे लुई XIV अपने विषय में कहते थे, “राज्य सरकार, वह तो मैं ही हूँ।” यही बात भारत और नेहरू के विषय में भी कही जा सकती है।

यह आभामंडल तब आता है जब आप मूल्यों की राजनीति करते हैं। नैतिकता को सर्वोच्च स्थान देते हैं। आज बांग्लादेश के राजनयिक की भाषा भारत की गरिमा को ठेस पहुंचाने वाली है। पर इसके जिम्मेदार हम भी हैं। हम किस आधार पर उनको आईना दिखा सकते हैं, जब यहां के अल्पसंख्यकों के प्रति हमारी खुद की भाषा स्तरहीन जुमलों से भरी हुई है।

(संजीव शुक्ल स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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