बीजेपी और आरएसएस : स्वार्थों पर टिका बेटे और बाप का रिश्ता

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इंडियन एक्सप्रेस में आरएसएस से अपनी स्वतंत्रता की घोषणा करने वाले जगतप्रकाश नड्डा के वक्तव्य पर अभी खूब चर्चा चल रही है। दरअसल, यह अपने प्रकार का एक फ्रायडियन संकट है जिसमें बेटा वयस्क और स्वतंत्र हो जाने पर पिता का ही प्रतिद्वंद्वी बन जाता है। पिता भी उससे इतना ख़फ़ा रहता है कि घर की चौखट से ही बेटे को दुत्कार कर लौटा देने के लिए तत्पर रहता है।

बीजेपी और आरएसएस के संबंध को कुछ इस आधार पर भी व्याख्यायित करने की ज़रूरत है।

इस मामले में बेटा अपनी संपत्ति में बाप को हिस्सेदारी देने के लिए तैयार नहीं है। वह कह रहा है कि उसके अपने खर्च कम नहीं है। वह अब बाप की फ़िज़ूलख़र्ची को सहन करने के लिए तैयार नहीं है।

भाजपा ने खुद अरबों करोड़ कमाए हैं और अपने पिता आरएसएस को भी कमा कर दिये हैं।

इसके बावजूद पिता बेटे के सामने समर्पण करने के बजाय अकड़ दिखाए, यह बेटे को स्वीकार्य नहीं है। वह पिता को उसकी औक़ात बता देना चाहता है।

मोदी जानते हैं कि अब बेटा नहीं बूढ़ा बाप उन पर आश्रित है। उसे अब वानप्रस्थ आश्रम में जाने की सोचना चाहिए, न कि पर्दे के पीछे मोदी के विकल्पों की तलाश की राजनीति करनी चाहिए।

आरएसएस हमेशा इस बात पर गर्व करता था कि उसके संघ परिवार के सब घटकों को स्वतंत्रता मिली हुई है, कोई एक दूसरे में हस्तक्षेप नहीं करता है।

सवाल है कि आज नड्डा के ज़रिए बीजेपी की स्वतंत्रता की घोषणा के बाद आरएसएस क्या अपनी उसी बात को दोहरायेगा कि उसे बीजेपी के इस मत पर गर्व है ?

क्या आरएसएस कहेगा कि वह बेटे मोदी की इच्छा का पालन करते हुए वानप्रस्थ आश्रम में जाने के लिए तैयार है। उसे मोदी की संपत्तियों में कोई दिलचस्पी नहीं है।

यह पूरा प्रकरण बताता है कि अब बीजेपी और आरएसएस, दोनों के लिए ही सत्ता प्रमुख है, कोई तथाकथित विचारधारा नहीं।

(अरुण माहेश्वरी आलोचक एवं स्तंभकार हैं)

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