कहने को तो देश में बाल विवाह निषेध कानून है लेकिन परंपरा और गरीबी के सामने किसी कानून की क्या हैसियत हो सकती है? कहने को तो देश में और भी बहुत सारे कानून हैं लेकिन उसका पालन कौन करता है? बड़ी बात तो यह है कि जिस संसद और विधान सभा में कानून बनाने का ढोंग किया जाता है उसी संसद और विधान सभा में कानून की धज्जियाँ उड़ाने वाले माननीय भी बैठे होते हैं और बड़ी बात कि वे जनता और समाज के हित के लिए कानून भी बनाने का दावा करते हैं।
इसी देश में संविधान में साफ़ दर्ज है कि भारत एक सेक्युलर देश है जहां हर जाति और धर्म के लोगों को सामान अधिकार है। महिला और पुरुष बराबर हैं। संविधान यह भी कहता है कि कोई भी किसी धर्म के खिलाफ और मानव समाज के खिलाफ ऐसा माहौल नहीं खड़ा करेगा जिससे समाज में खाई पैदा हो।
संसद और सदन में बैठने वाले सदस्यों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे सदाचारी होंगे और न झूठ बोलेंगे और न ही अपराधी प्रवृत्ति के होंगे। लेकिन ऐसा तो है नहीं। संसद का माहौल क्या है और संसद में बैठने वाले लोग किस आचरण के हैं यह कौन नहीं जानता? यह सब होते हुए भी देश चल रहा है और हम सब एक हैं। एक नहीं भी हैं तो एक होने का ढोंग तो कर ही लेते हैं और यही भारत की महानता है और नेताओं का बड़प्पन भी।
हाँ तो हम चर्चा कर रहे थे कि बाल विवाह पर हमारे देश में रोक लगी हुई है और इसके लिए कठोर सजा की भी व्यवस्था है। लेकिन ओडिशा से जो जानकारी आ रही है वह चौंकाने वाली है। खबर ये है कि है कि ओडिशा में प्रतिदिन तीन बाल विवाह होते हैं। सूबे का नबरंगपुर जिला 1,347 मामलों के साथ सूची में सबसे ऊपर है तो गंजम जिला 966 मामलों के साथ दूसरे स्थान पर है। जबकि कोरापुट 636 मामलों के साथ तीसरे स्थान पर है।
आंकड़ों से पता चलता है कि 2019 से अब तक ओडिशा में 8,159 बाल विवाह हुए हैं। ये सब क्यों हुए और कैसे हुए इसकी जानकारी सदन को होती है। नेताओं को होती है और बड़ी बात कि सरकार के लोगों को भी होती है। लेकिन इस पर कोई रोक नहीं। आखिर रोक लगाए भी कौन? जब कोई भी सरकार गरीबी को ख़त्म नहीं कर सकती, शिक्षित समाज का निर्माण नहीं कर सकती और जनता की उम्मीदों पर खरा नहीं उतर सकती तो वह कैसे किसी गरीब माँ बाप को उसके कर्म से रोक सकती है?
ऐसा नहीं है कि सरकारी तंत्र बाल विवाह को रोकने का प्रयास नहीं करता लेकिन यह प्रयास केवल प्रचार तक ही सीमित है। एक्शन में कुछ भी नहीं। यही वजह है कि ओडिशा में सरकारी आंकड़ों के अनुसार, प्रशासन द्वारा की गई कई पहलों के बावजूद, पिछले छह वर्षों के दौरान हर दिन कम से कम तीन ऐसे मामले सामने आए हैं।
इस क्षेत्र में काम करने वाले कार्यकर्ता इस चौंकाने वाले आंकड़े के लिए आदिवासी प्रथा, दहेज, मजदूर परिवारों के पलायन और माता-पिता के इस डर को जिम्मेदार मानते हैं कि बेटियाँ भाग सकती हैं।आंकड़ों से पता चलता है कि 2019 से फरवरी 2025 तक ओडिशा में 8,159 बाल विवाह हुए हैं। उनमें से, नबरंगपुर में 1,347 मामले सामने आए हैं, जो उस अवधि के दौरान ओडिशा के सभी 30 जिलों में सबसे अधिक है।
गंजम जिला 966 मामलों के साथ दूसरे स्थान पर है, जबकि कोरापुट 636 मामलों के साथ तीसरे स्थान पर है। इसके बाद मयूरभंज (594), रायगढ़ (408), बालासोर (361), क्योंझर (328), कंधमाल (308) और नयागढ़ (308) का स्थान है। इन छह वर्षों में झारसुगुड़ा जिले में सबसे कम 57 मामले पाए गए हैं। सामाजिक कार्यकर्ता कहते हैं कि कि, “बाल विवाह को रातों-रात पूरी तरह से रोका नहीं जा सकता। हमें लड़कियों और उनके माता-पिता के लिए ऐसा माहौल और समाज बनाना होगा, ताकि वे ऐसे कदम न उठाएं।”
वे यह भी मानते हैं कि कम उम्र के बच्चों की शादी आदिवासियों की एक पारंपरिक प्रथा है, खासकर विशेष रूप से कमजोर आदिवासी समूहों के लिए।
जानकार कहते हैं कि माता-पिता जो आमतौर पर आजीविका के लिए दूसरे स्थानों पर चले जाते हैं, वे भी अपनी लड़कियों की शादी कानूनी उम्र से पहले कर देते हैं, ताकि उनका भविष्य सुरक्षित हो और उनकी सुरक्षा भी बनी रहे, क्योंकि उन्हें डर है कि लड़की किसी के साथ भाग सकती है, जिससे परिवार की बदनामी हो सकती है।
सामाजिक कार्यकर्ता ने कहा कि दहेज भी ऐसी शादियों का कारण है, क्योंकि दुल्हन जितनी बड़ी होती है, उतनी ही ज़्यादा मांग होती है। अगर हम उन्हें उचित शिक्षा या कौशल विकास प्रशिक्षण प्रदान करने में सक्षम हों, ताकि वे स्व-रोजगार कर सकें, तो यह समस्या समाप्त हो सकती है, ताकि उन्हें यह न लगे कि लड़कियों के भविष्य के लिए शादी ही एकमात्र कदम है। एक अधिकारी ने कहा कि बाल विवाह को रोकने के लिए ओडिशा सरकार हर तीन महीने में पंचायत, ब्लॉक और आंगनबाड़ी स्तर पर जागरूकता अभियान चला रही है।
बाल विकास परियोजना अधिकारी, पंचायत कार्यकारी अधिकारी और आवासीय छात्रावासों के वार्डन/मैट्रन को मुख्य विवाह निषेध अधिकारी के रूप में नामित किया गया है। इसी तरह, सभी स्कूलों और कॉलेजों के प्रमुखों को मुख्य विवाह सूचना अधिकारी के रूप में नामित किया गया है, अधिकारी ने कहा। इसके अलावा, सरकार हर छह महीने में बाल विवाह निषेध अधिनियम के तहत गठित राज्य स्तरीय समितियों की बैठकें आयोजित कर रही है। कम उम्र में विवाह के साथ-साथ, राज्य बाल श्रम की चुनौती से भी जूझ रहा है।
ओडिशा सरकार ने बाल विवाह रोकने के लिए पंचायत अधिकारियों और वार्डन को सीएमपीओ शक्ति प्रदान की। इन छह वर्षों में, अधिकारियों ने मजदूरी कर रहे 328 बच्चों को बचाया है। आंकड़ों से पता चला है कि 2019-20 में जहां 85 बच्चों को बचाया गया, वहीं 2020-21 और 2021-22 में यह संख्या क्रमशः चार और 43 थी। इसी तरह, 2022-23 में राज्य के विभिन्न हिस्सों से 107 और अगले साल 44 बाल मजदूरों को बचाया गया है। चालू वित्त वर्ष के दौरान 15 फरवरी तक अधिकारियों ने ओडिशा के विभिन्न जिलों से 45 बाल मजदूरों को बचाया है।
संभव है कि ये सब गरीबी और अशिक्षा की वजह से हो रहे हैं। आगे भी होते रहेंगे। इसका खात्मा तो तभी हो सकता है जब समाज से असमानता जाएगी और लोगों का जीवन स्तर ऊंचा होगा। शिक्षा दर में बढ़ोत्तरी होगी और लड़कियों को बेहतर जीवन जीने का माहौल मिलेगा। लेकिन ऐसा है क्या?
बाल विवाह की कहानी ओडिशा तक ही सीमित नहीं है। देश के कई इलाकों में यह प्रथा आज भी धड़ल्ले से जारी है। कई विवाह में तो नेता गण भी उपस्थित होते देखे गए हैं। राजस्थान, बिहार और झारखंड के अलावा कई और भी राज्य हैं जहां बाल विवाह पर कोई रोकथाम नहीं। सरकार को इस पर ध्यान देने की जरूरत है और उन लोगों को भी अपने बच्चों को कम उम्र में न शादी करने पर सोचने की जरूरत है जो हमेशा यह कहते रहते हैं कि परंपरा और प्रथा के साथ ही गरीबी की वजह से वे ऐसा कर रहे हैं।
अगर ओडिशा के साथ ही देश पर भी नजर डालें तो चौंकाने वाले आंकड़े सामने आते हैं। भारत में 2011 के बाद अब तक देश में कोई जनगणना नहीं हुई है लेकिन 2011 के जनगणना के विश्लेषण से एक आंकड़ा चौंकाता है और सरकार की नीतियों पर सवाल भी उठाता है। देशवार ये आंकड़े बता रहे हैं कि देश में आज भी अशिक्षा और गरीबी की चलते कितने मासूमों की जिंदगी बर्बाद हो जाती है। एक विश्लेषण से पता चलता है कि लगभग 12 मिलियन भारतीय बच्चों की शादी दस वर्ष की आयु से पहले हो गई थी। इन बच्चों में 84 फीसदी हिन्दू और करीब 11 फीसदी मुस्लिम बच्चे थे।
आंकड़े यह बता रहे हैं कि 12 मिलियन बच्चों में से 7.84 मिलियन (65%) विवाहित बच्चों में से अधिकांश लड़कियाँ थीं। इसके साथ ही 10 में से आठ अशिक्षित बच्चे भी लड़कियाँ थीं। आंकड़े यह भी बताते हैं कि 10 वर्ष से पहले विवाहित सभी हिंदू लड़कियों में से 72% ग्रामीण क्षेत्रों में थीं, जबकि 58.5% मुस्लिम लड़कियाँ थीं, जिनमें उच्च शिक्षा का स्तर बाद में विवाह से संबंधित था।
आंकड़ों के मुताबिक जैन महिलाएं सबसे बाद में शादी करती हैं (20.8 वर्ष की औसत आयु में), उसके बाद ईसाई महिलाएँ (20.6 वर्ष) और सिख महिलाएँ (19.9 वर्ष) आती हैं। हिंदू और मुस्लिम महिलाओं की पहली शादी की औसत आयु सबसे कम (16.7 वर्ष) है।
इंडिया स्पेंड की रिपोर्ट में यह भी उल्लेख किया गया है कि 12 या उससे अधिक वर्षों की शिक्षा प्राप्त महिलाओं की तुलना में बिना शिक्षा वाली महिलाओं में किशोरावस्था में गर्भधारण और मातृत्व का स्तर नौ गुना अधिक है।
10 वर्ष से कम आयु के 5.4 मिलियन (44%) विवाहित बच्चे अशिक्षित थे – उनमें से 80% लड़कियाँ थीं। इस आंकड़े से यह भी पता चलता है कि शिक्षा का निम्न स्तर कम आयु में विवाह से कैसे संबंधित है। प्रति 1,000 पुरुषों की तुलना में 1,403 लड़कियाँ कभी किसी शैक्षणिक संस्थान में नहीं गईं। सरकार लड़कियों को आगे बढ़ाने अजर पढ़ाने के लिए कहने को कई योजनाएं चला रही है लेकिन समुचित प्रबंधन के अभाव में लड़कियां आगे नहीं पढ़ पा रही हैं।
बाल विवाह निषेध अधिनियम के अनुसार भारत में लड़की 18 वर्ष की आयु से पहले और लड़का 21 वर्ष की आयु से पहले विवाह नहीं कर सकता। गुजरात उच्च न्यायालय और दिल्ली उच्च न्यायालय ने अलग-अलग निर्णयों में उल्लेख किया है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुसार, मुस्लिम लड़की यौवन प्राप्त करने या 15 वर्ष की आयु पूरी करने पर विवाह कर सकती है। 2011 में 102 मिलियन लड़कियां (महिला आबादी का 30%) 18 वर्ष की आयु से पहले विवाहित थीं; 2001 में यह संख्या 119 मिलियन थी (महिला आबादी का 44%), जो कि दशक भर में 14 प्रतिशत अंकों की कमी है। लड़कों में, 2011 में 125 मिलियन लड़के 21 वर्ष की आयु से पहले विवाहित थे (पुरुष आबादी का 42%); 2001 में यह संख्या 120 मिलियन थी (पुरुष आबादी का 49%), जो कि दशक भर में 7 प्रतिशत अंकों की कमी है।
भारत का यह ऐसा सच है जो सरकार और सरकार की नीतियों पर तो तमाचा मारता ही है सरकार के उस नारे को भी झूठा साबित करता ही जिसमें कहा जाता है कि भारत विकसित देश के दौर में है और जल्द ही भारत दुनिया के विकसित देशों की सूची में शामिल हो जाएगा।
(अखिलेश अखिल वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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