प्रत्यायोजित विधान या डेलीगेटेड लेजिस्लेशन हाल-फिलहाल सुर्खियों में बना रहा है जब सर्वोच्च न्यायालय की जज जस्टिस नागरत्ना ने मामले में सुनवाई के दौरान इस बात पर अपना एक मतभेद निर्णय (डिसेंटिंग जजमेंट) सुनाया। मामले में अपने निर्णय (ओबीटर डिक्टा) के दौरान यह कहा कि “महत्वपूर्ण योजनागत मामलों में कार्यकारी नोटिस द्वारा पॉलिसी बनाए जाने के चलन को ठीक नहीं कहा जा सकता है।”
मामला इस वक्तव्य के बाद सुर्खियों में आया यह कहना न्यायोचित नहीं होगा बल्कि यह कहना ठीक होगा कि सर्वोच्च न्यायालय को भी इस मामले में बात रखनी पड़ी। स्थिति ऐसी बन गई है जहां जस्टिस नागरत्ना डिमोनेटाइजेशन के मामले पर अपनी मत रखते हुए यह कह रही हैं कि जिस प्रकार से एक सरकारी सूचना द्वारा इसे लागू किया गया वह एक विधायी प्रक्रिया द्वारा गुजारनी जरूरी थी, वही दूसरे जजों का यह मत था कि सरकार लगातार रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के अधिकारियों से सम्पर्क और सलाह के साथ काम कर रही थी।
अगर हम सर्वोच्च न्यायालय को एक तरफ रखते हुए स्थिति का सही मूल्यांकन करें तो एक बेहतर तस्वीर सामने आ सकती है जहां पर तथ्यों के आधार पर ट्रेंड्स को समझ पाना ज्यादा आसान हो पाएगा। उपेंद्र बक्शी अपने लेख में इस बात को स्पष्ट रूप से शामिल करते हैं कि जब वह दिल्ली विश्वविद्यालय के फैकल्टी ऑफ लॉ में पढ़ा रहे थे उसी समय एसेंशियल कमोडिटीज एक्ट (आवश्यक वस्तु अधिनियम), 1955 में जिसमें कुल मिला कर 16 धाराएं हैं वहीं उसके अंदर इससे कहीं ज्यादा संशोधन प्रत्यायोजित विधान द्वारा कराया गया है जो कई एक बार मूल अधिनियम से भी ज्यादा व्यापक हो जा रहा है।
समय के साथ इस प्रवृत्ति में एक वृद्धि देखी गई है जहां सेबी (सिक्योरिटीज एंड एक्सचेंज बोर्ड ऑफ इंडिया) के कानून में 80 से ज्यादा संशोधन 2021 के रेगुलेशन में किए गए हैं। यही हाल कॉरपोरेट कानूनों में भी देखा जा सकता है। वहीं दूसरी तरफ सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक निर्णय में डेलीगेटेड लेजिस्लेशन पर बात करते हुए इस बात को स्पष्ट किया कि “यह एक आवश्यक शत्रु के समान है। विधायिका का मुख्य कार्य कानून बनाना है और वह इस कार्य को प्रत्यायोजित किसी भी हालत में नहीं कर सकती है।
प्रत्यायोजित विधायन क्या है?
सर्वोच्च कानून राज्य की सर्वोच्च शक्ति, संसद द्वारा अधिनियमित विधान है। सर्वोच्च प्राधिकारी द्वारा प्रदत्त शक्ति के पद पर सर्वोच्च प्राधिकारी के अलावा किसी अन्य प्राधिकारी द्वारा अधिनियमित कानून को उत्तराधिकारी/प्रत्यायोजित विधान के रूप में जाना जाता है। अर्थात जब कार्यपालिका को विधायिका द्वारा बनाए गए नियमों के अनुपालन में आने वाली समस्याओं, चुनौतियों को ठीक करने के लिए कुछ छोटे और मामूली संशोधन करने पड़ते हैं उसके लिए प्रत्यायोजित विधायन का सहारा लिया जाता है।
प्रत्यायोजित विधायन की संवैधानिक व्याख्या
अगर प्रत्यायोजित विधायन के संवैधानिकता पर बात करें तो यह पहली बार चर्चा में स्वतंत्रता– पूर्व 1878 में क्वीन बनाम बूरा के मामले में सामने आया जहां प्रिवी काउंसिल को एक सीमित स्तर पर नियम बनाने को वैद्य ठहराया गया। संविधान बनने के बाद इसमें में एक परिवर्तन देखने को मिलता है। जहां प्रत्यायोजित विधायन की चर्चा पूरे संविधान में प्रत्यक्ष रूप से कहीं नहीं है परन्तु अनुच्छेद 312 के व्याख्या से यह अस्तित्व में आया।
इस मामले में एक नया मोड़ राजनारायण सिंह बनाम चेयरमैन पटना एडमिनिस्ट्रेशन (1954) के मामले से आया जहां सर्वोच्च न्यायालय ने प्रत्यायोजित विधायन की वैद्यता को न केवल स्वीकार कर लिया बल्कि इसके द्वारा संशोधन की सीमा को बढ़ा कर उस स्तर पर कर दिया जहां उसका उच्चतर मानक “उस कानून के प्रकृति की सीमा” से पहले तक जाता है। अर्थात कार्यपालिका को कानून में परिवर्तन या संशोधन की ऊपरी सीमा कानून के मूल आत्मा में संशोधन हिब्केवल नहीं था। इस मामले की गहराई में जाने से यह स्पष्ट हो पाता है कि यह वास्तविकता में पटना म्युनिसिपालिटी के क्षेत्राधिकार में एक व्यापक वृद्धि को अनुमोदित करता है।
इसका परिणाम जल्द ही देखने को मिला जब सर्वोच्च न्यायालय को हमदर्द दवाखाना मामले (1959) में पुनर्विचार करते हुए अपना फैसला सुनाया जिसमें सरकार ने ड्रग एंड मैजिक रेमेडीज (आपत्तिजनक प्रायोजक) अधिनियम, 1954 में सरकार के प्रत्यायोजित विधायन पर नियंत्रण लगानी पड़ी। परन्तु इसके बाद डी. एस. ग्रेवाल बनाम स्टेट ऑफ पंजाब में सर्वोच्च न्यायालय ने न केवल प्रत्यायोजित विधायन के संसद के कानूनी शक्ति को वैद्यता प्रदान की वहीं एक तुलनात्मक अध्ययन द्वारा ब्रिटेन के प्रत्यायोजित विधायन को भारत और अमेरिका से तुलना किया करते हुए यह बताया कि भारत में विधायिका को कुछ सीमा तक ही प्रत्यायोजित करने की शक्ति है।
निष्कर्ष
भारतीय संसदीय लोकतंत्र का मूल स्तंभ बेसिक स्ट्रक्चर है जिसमें संसदीय लोकतंत्र को वरीयता दी गई है न कि प्रत्यायोजित लोकतंत्र को। कानून का लगातार प्रत्यायोजन एक अधिनायकतंत्र की तरफ ले जाता है और यह एक अधिनायक को जन्म देता है। इतिहास इस बात का उदाहरण है कि अगर इस ट्रेंड पर आगे बढ़ते हैं तो वह दिन दूर नहीं जब ये कभी-कभी का प्रयास पूरी तरीके से एक व्यवस्था बन जाएगी और लोगों के आलोचनात्मक दृष्टि से लोकतंत्र की यह परिभाषा धूमिल हो जाएगी।
हिटलर ने अपने एक वक्तव्य में कहा था, कि अगर हमें पहले के इतिहास को मिटाना है तो हमें नए इतिहास को बताना होगा और पुराने पर प्रहार करना होगा। पब्लिक मेमोरी उसके रणनीति का अहम हिस्सा था। आज के समय और हालत को देखते हुए यह चीजें बहुत दूर की बात नहीं लगती हैं कि किस तरीके से इतिहासकार इतिहास के विरोध में खड़े हो रहे हैं और युवा मान्यताओं की किताबें संस्कृति की दुहाई देकर पढ़े जा रहे हैं पर मूल तथ्य पर बात करने को तैयार नहीं है।
(निशांत आनंद स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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