उम्मीद और हताशा की कहानी : बनारस के दानियालपुर में एक पुल की आस, जो हर साल बाढ़ में बह जाता है-ग्राउंड रिपोर्ट

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वाराणसी। उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिला मुख्यालय से चंद फासलों पर बसे दानियालपुर गांव के लोग रोज़मर्रा की ज़िंदगी में जिस संघर्ष से गुजरते हैं, वह केवल एक अदद पुल की कमी का नतीजा नहीं है; यह दशकों की अनदेखी और निराशा का प्रतीक है।

वरुणा नदी के पार जीवन की ओर देखता यह गांव, जहां सात छोटे-छोटे पुरवों पर बसा है। दानियालपुर भले ही गांव है, लेकिन अब यह शहर का हिस्सा है, फिर भी विकास से कोसों दूर है। करीब इकतीस हजार से ज़्यादा लोग रहते हैं, जो अपनी दुश्वारियों के साथ जीना सीख गए हैं।

बच्चों की किलकारियां, बुज़ुर्गों की दुआएं, और महिलाओं की दिनचर्या–सब इस बात से प्रभावित हैं कि दानियालपुर गांव को शहर से जोड़ने वाला कोई सीधा रास्ता नहीं है। बनारस से इस गांव का फासला फकत तीन किमी है।

इस गांव में पहुंचने के लिए एक वैकल्पिक सड़क है, लेकिन वह इतनी लंबी और मुश्किल है कि इसका इस्तेमाल केवल मजबूरी में ही किया जा सकता है। नदी को पार करने का सबसे आसान रास्ता दशकों पहले एक नाव हुआ करती थी, लेकिन अब नावें भी नहीं चलतीं।

दनियालपुर का यही रास्ता वरुणा पुल नदी तक जाता है

अजय जैसे ग्रामीण जब बीते दिनों को याद करते हैं तो उनकी आवाज़ में निराशा झलकती है। वह कहते हैं, “पहले नावें थीं। फिर सरकार ने ध्यान नहीं दिया। हम पुल की मांग करते रहे, लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई। अब हमारे पास और कोई चारा नहीं है, सिवाय इसके कि हम खुद ही बांस का पुल बनाएं।” अजय की आवाज़ में वह दर्द है जो दशकों की अनदेखी का परिणाम है।

चंदे से बनता है बांस का पुल

बांस का पुल, जो हर साल दानियालपुर गांव के लोगों की मेहनत और चंदे से बनता है। यह केवल एक अस्थायी उपाय है। तीन-चार लाख रुपये की लागत और महीनों की मेहनत के बाद तैयार होने वाला यह पुल भी बारिश और बाढ़ के थपेड़ों को नहीं झेल पाता है। बांस के पुल के बिना जीवन ठहर जाता है। गनेश पटेल कहते हैं, “यह पुल हमारी ज़रूरत है, हमारा सपना और हमारी मजबूरी। हम सरकार से बार-बार कहते हैं कि स्थायी पुल बनाएं, लेकिन अब तो हमारी उम्मीदें भी डगमगाने लगी हैं।”

बांस का पुल बनाते ग्रामीण

वाराणसी के दानियालपुर गांव के लोग वरुणा नदी पर पुल न होने के कारण रोजमर्रा की जिंदगी में कई परेशानियों का सामना कर रहे हैं। गांव की निर्मला बताती हैं कि पहले यहां नावों का संचालन होता था, जिससे लोगों को आवागमन में सुविधा थी। लेकिन पिछले आठ सालों से प्रशासन ने नाव बंद कर दी, जिससे लोगों की मुश्किलें और बढ़ गईं। अब गांव के लोग चंदा इकट्ठा कर हर साल बांस का अस्थायी झूला पुल बनाते हैं, जो बारिश और बाढ़ में बह जाता है।

टूट रही शिक्षा और जीवन की डोर

गांव में केवल एक प्राइमरी स्कूल है। इसके आगे की पढ़ाई के लिए बच्चों को शिवपुर या फुलवरिया जाना पड़ता है, जो यहां से सात किलोमीटर दूर है। इस दूरी और परिवहन के साधन की कमी के कारण अधिकांश बच्चों की पढ़ाई बीच में ही छूट जाती है। खासकर लड़कियों की शिक्षा पूरी तरह से रुक जाती है। निर्मला ने बताया कि उनकी बेटी इंटर के बाद पढ़ाई नहीं कर सकी, क्योंकि फुलवरिया जाने का कोई साधन नहीं था।

पुल न होने से न केवल शिक्षा, बल्कि स्वास्थ्य सेवाएं भी प्रभावित होती हैं। जब किसी बच्चे को बुखार या अन्य गंभीर बीमारी होती है, तो परिवार के सदस्यों का दिल दहशत में आ जाता है। समय पर इलाज तक पहुंच पाना बहुत मुश्किल हो जाता है। दानियालपुर के किसान सहादुल पटेल ने बताया कि लोहता और फुलवरिया का सारा मलजल वरुणा नदी में सीधे छोड़ा जाता है, जिससे नदी का पानी दूषित हो चुका है। नदी के पास खड़ा होना भी मुश्किल हो गया है।

पुल न होने से औरतों की चिंता बढ़ती जा रही

दानियालपुर के नौजवान सूरज पटेल ने बताया कि गांव के लोगों ने आपसी सहयोग से बांस का पुल बनाकर समस्या का समाधान निकालने की कोशिश की है। हालांकि, यह पुल स्थायी नहीं है और हर साल बाढ़ में बह जाता है। बांस के इस पुल से फुलवरिया पहुंचने में केवल पांच मिनट लगते हैं, जबकि पुल टूटने के बाद सात किलोमीटर का सफर पैदल तय करने में दो से तीन घंटे लग जाते हैं।

झूलते पुल पर दांव पर ज़िंदगी

दानियालपुर गांव, जहां के लोग दशरथ मांझी की तरह अपनी समस्याओं का समाधान खुद करने पर मजबूर हैं। इस गांव में एक पक्के पुल की मांग पिछले दो दशक से हो रही है। लेकिन सरकार और नेताओं की अनदेखी ने ग्रामीणों को बांस का जुगाड़ पुल बनाने पर मजबूर कर दिया है। दानियालपुर गांव वरुणा नदी के किनारे बसा है। यहां से बनारस आने के लिए एकमात्र रास्ता लगभग आठ से दस किलोमीटर लंबा है, जो ग्रामीणों के लिए भारी परेशानी का सबब है।

दानियालपुर गांव के लोग वरुणा नदी के ऊपर हर साल झूलता हुआ बांस का पुल बनाते हैं। यह पुल दानियालपुर गांव और वरुणापुरी कॉलोनी को जोड़ता है। यह पुल एक ऐसा जरिया है, जो न केवल खतरनाक है, बल्कि यहां के लोगों की रोजमर्रा की मजबूरी का प्रतीक है। बारिश के मौसम में जब वरुणा नदी का जलस्तर बढ़ जाता है, तो यह पुल और भी खतरनाक हो जाता है। पानी के बीच से गुजरते बांस के पुल पर हर रोज़ सैकड़ों लोग अपनी जान हथेली पर लेकर आते-जाते हैं।

दानियालपुर गांव के लोग यह समझ चुके हैं कि अगर वे खुद के लिए खड़े नहीं होंगे, तो कोई उनकी मदद करने नहीं आएगा। उनकी जिंदगी, उनकी तकलीफें, और उनकी उम्मीदें – सब कुछ उस बांस के पुल की तरह अस्थायी लगने लगा है। लेकिन उनके हौसले और उनके सपने इस अस्थायी पुल से कहीं ज़्यादा मजबूत हैं। दानियालपुर के लोगों का संघर्ष केवल भौतिक पुल के लिए नहीं है, बल्कि उन सपनों और हक़ के लिए है, जो किसी भी नागरिक का बुनियादी अधिकार है।

दानियालपुर गांव में जीवन केवल समय से संघर्ष नहीं है, बल्कि उन हालात से जूझने का नाम है जो लगातार इनकी मेहनत और धैर्य की परीक्षा लेते हैं। हर बार जब कोई बच्चा स्कूल के लिए समय पर नहीं पहुंच पाता, कोई बीमार बुज़ुर्ग डॉक्टर के पास नहीं जा पाता, या कोई किसान अपनी फसल बेचने से चूक जाता है, तब इस पुल की कमी और गहरी चोट देती है।

झकझोरती है डर और बेबसी

दानियालपुर के नौजवान गनेश पटेल यह भी बताते हैं, “हमारा गांव तीन तरफ से वरुणा नदी से घिरा हुआ है। शहर से जुड़ने का यही एक रास्ता है। दूसरा रास्ता तो है, लेकिन उससे सात-आठ किलोमीटर का लंबा चक्कर लगाना पड़ता है। इसलिए हमें इसी जर्जर पुल से गुजरना पड़ता है। मौजूदा समय में बास का पुल भी बाढ़ में बह चुका है। गांव के नौजवान चंदा जुटा रहे हैं। बांस और पैसा जुट जाएगा तो झूलता हुआ पुल आकार ले लेगा।” गनेश की आवाज़ में झलकता डर और बेबसी किसी भी संवेदनशील इंसान को झकझोर सकती है।

विजय बताते हैं कि वरुणा पर बनाए जाने वाले झूला पुल की हालत इतनी खस्ता होती है कि हमेशा नदी में गिरने का खतरा बना रहता है। वजह यह है कि पुल पर कोई रेलिंग तक नहीं होती है। बारिश के दिनों में बांस का पुल नदी में डूब जाता है। फिर भी यहां के लोग मजबूरी में इस पुल का इस्तेमाल करते हैं। एक अन्य नौजवान शशिकांत भारद्वाज ने जनचौक से कहा, “हमारे पास कोई और विकल्प नहीं है। हर बार जब इस पुल से गुजरता हूं, तो मन में डर रहता है कि कहीं हादसा न हो जाए। लेकिन काम पर जाना भी तो ज़रूरी है।”

उत्तर प्रदेश विधानसभा में इस इलाके का प्रतिनिधित्व सूबे के काबीना मंत्री अनिल राजभर करते हैं। दानियालपुर के लोगों ने इस साल भी उनसे कई बार गुहार लगाई, लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई, तो ग्रामीणों ने आपस में चंदा जुटाकर बांस का पुल बनाना शुरू किया। जितना चंदा जुट पा रहा है उससे बांस खरीदा जा रहा है। ग्रामीणों के मुताबिक, इस अस्थायी पुल को तैयार करने में करीब तीन-चार लाख रुपये खर्च होते हैं और इसे बनाने में करीब एक महीने का समय लगता है।

दानियालपुर गांव के छोटे बच्चे और छात्राएं स्कूल जाने में खुद को असुरक्षित महसूस करती हैं। 11वीं में पढ़ने वाली छात्रा अनुराधा कहती बताती हैं, “रास्ता लंबा होने और सुरक्षित न होने के कारण हमारी कई सहेलियों ने पढ़ाई छोड़ दी है। स्कूल और ट्यूशन के लिए हमें आठ-दस किलोमीटर का सफर तय करना हमारे लिए कठिन है। सरकार अगर पक्का पुल नहीं बनवा सकती तो पीपे का पुल ही बनवा देती, तब भी लोगों को राहत मिल जाती।”

दुश्वारियों का ओर-छोर नहीं

बुजुर्ग किसान मुलकी देवी कहती हैं, “पुल न होने की वजह से महिलाओं को सब्जियां बेचने और नौकरी के लिए शहर जाना मुश्किल हो जाता है। स्वास्थ्य सेवाओं की अनुपलब्धता की वजह से गर्भवती महिलाओं को समय पर इलाज नहीं मिल पाता। कई बार रास्ते में ही डिलीवरी हो जाती है। दानियालपुर निवासी गुलाब राजभर के बेटे राजू की पत्नी को डिलिवरी होनी थी। आवागमन का साधन नहीं होने की वजह से वह पैदल अस्पताल के लिए निकली। रास्ते में वह बेहोश हो गई। अस्पताल पहुंचते ही उसकी तब मौत हो गई, जब उसने एक बेटे को जन्म दिया। यह घटना इसी साल तीन महीने पहले की है। मां की मौत के बाद राजू और उसके पिता गुलाब अब बच्चे की देखभाल कर रहे हैं। “

हर साल जब बांस का पुल बनाने का समय आता है, तो यह केवल एक निर्माण कार्य नहीं होता। यह दानियालपुर के लोगों की एकजुटता, उनके संघर्ष और उनके स्वाभिमान का प्रतीक बन जाता है। सुबह की ठंडी हवा में कंधे पर बांस उठाए चलते ग्रामीण हों, या महिलाएं जो चाय और खाना बनाकर मजदूरों की मदद करती हैं, हर कोई इस पुल को अपना योगदान देता है। यह पल उन्हें उनकी सामूहिक शक्ति का एहसास कराता है।

बांस का पुल बनाते ग्रामीण

लेकिन इन क्षणों के पीछे छिपा है एक ऐसा दर्द, जो न केवल उनके शरीर को थकाता है, बल्कि उनकी आत्मा को भी चोट पहुंचाता है। ग्रामीण अजय की पत्नी मीना बताती हैं, “हर बार जब यह पुल बनता है, तो मन में सवाल उठता है – क्या हम इसी तरह अपनी पूरी ज़िंदगी गुजार देंगे? क्या हमारे बच्चे भी यही सब झेलेंगे?” मीना की आंखों में नमी और आवाज़ में घुटन साफ झलकती है।

गांव के बुज़ुर्ग रामस्वरूप कहते हैं, “जब बांस का पुल बनता है, तो ऐसा लगता है जैसे हम एक बड़ी लड़ाई जीत गए हों। लेकिन यह जीत भी अधूरी है। हर बार यह डर लगा रहता है कि बरसात में पुल बह जाएगा और हमें फिर से शून्य से शुरुआत करनी पड़ेगी।”

बरसात का मौसम दानियालपुर के लिए हमेशा से एक चुनौती रहा है। नदी का पानी उफान पर आते ही बांस का पुल बहा ले जाता है। कई बार बच्चे स्कूल नहीं जा पाते, और मरीज अस्पताल पहुंचने से पहले ही दम तोड़ देते हैं। ऐसे में दानियालपुर के लोग खुद को बेसहारा महसूस करते हैं।

नौजवानों से बात करने पर छलकता है दर्द

पड़ोसी गांव के किसान संजय पटेल कहते हैं, “जब हम अपनी फसल को बेचने के लिए मंडी ले जाते हैं, तो रास्ते में कितना समय और पैसा बर्बाद होता है, यह केवल हम जानते हैं। पुल न होने से हमारे लिए हर चीज़ महंगी हो जाती है। हमारा श्रम, हमारा समय, सब कुछ।”

दानियालपुर का हर व्यक्ति इस लड़ाई का सिपाही है। यहां के युवाओं ने कई बार सोशल मीडिया पर अपनी बात रखने की कोशिश की। उन्होंने वीडियो बनाए, पोस्ट किए, और प्रशासन का ध्यान खींचने की कोशिश की। लेकिन अब तक उनकी आवाज़ सुनने वाला कोई नहीं मिला।

सहादुल पटेल के साथ उनकी पत्नी मुलकी देवी

दानियालपुर के लोगों एक दूसरी शिकायत भी है। बुजुर्ग किसान सहादुल पटेल ने बताया कि फुलवरिया के कुछ दबंग पशुपालक उनकी फसलों को जबरन चरवा देते हैं, लेकिन पुलिस कोई कार्रवाई नहीं करती।

हर साल नई शुरुआत, फिर वही कहानी

दानियालपुर में बांस का झूलता हुआ पुल कोई स्थायी समाधान नहीं है। यहां के लोग हर साल चंदा जुटाते हैं और बाद में अथक कोशिश करके पुल बनाते हैं। जैसे ही बारिश का मौसम आता है, इस झूला पुल के साथ उनके अरमान भी डूब जाता हैं या फिर बह जाता है। इसके बावजूद, लोग हर साल इसे बनाने के लिए जद्दोजहद करते हैं। यह बांस का पुल दानियालपुर के लोगों की जीवटता का नहीं, बल्कि प्रशासन की अनदेखी का सबूत है।

दानियालपुर के नौजवान नितेश राय कहते हैं, “हमने  गांव वालों ने कई बार शिवपुर विधानसभा के विधायक अनिल राजभर और स्थानीय प्रशासन को इस समस्या के समाधान के लिए पत्र लिखे। लेकिन हर बार केवल आश्वासन ही मिला। बांस के पुल के स्थान पर पक्का पुल बनाने की मांग वर्षों से की जा रही है, लेकिन अब तक इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया। अगर वो चाहते तो पीपे का पुल तो जरूर बनवा सकते थे।”

“अगर वो ऐसा नहीं कर पा रहे हैं तो इसका मतलब यह है कि योगी सरकार में उनकी नहीं सुनी जाती। उनके पास गाड़ी है, बंगला है, नौकर-चाकर और गार्ड हैं, लेकिन शिवपुर विधानसभा क्षेत्र के लोगों की दुश्वारियों का निराकरण कराने का उनके पास न जज्बा है, न ही अधिकार। अगर वह पावरफुल होते तो पीपा पुल तो बन ही गया होता।”  

दानियालपुर के लोग उस स्थान पर पुल बनाते हैं, जहां बौलिया और फुलवरिया का मलजल वरुणा नदी में गिराया जाता है। भयानक बदबू और सड़ांध के बावजूद उसी जगह से आना-जाना और ढेरों दुश्वारियों, खतरों को झेलना हमारी रोज की दिनचर्या है। बांस का जो पुल हम बनाते हैं उस पर रेलिंग नहीं होती। रेलिंग न होने और जर्जर स्थिति के कारण हमेशा हादसों का खतरा बना रहता है।

फिर बनाया जा रहा बांस का पुल

दानियालपुर के युवक राजेश सरोज बताते हैं, “हमने पुल के लिए कई बार आवेदन किया, लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई। नेता सिर्फ निरीक्षण करने आते हैं, लेकिन कार्रवाई कभी नहीं होती। बच्चे स्कूल जाते हैं, किसान अपनी फसल लेकर मंडी जाते हैं, और बीमार लोग अस्पताल जाने के लिए इसी पुल पर निर्भर होते हैं। हर कदम पर उनके दिल में यह ख्याल रहता है कि अगर एक चूक हो गई, तो क्या होगा? “

सरकार की असफलता

दानियालपुर और फुलवरिया को जोड़ने के लिए पुल बनाने का प्रस्ताव दो बरस पहले सेतु निगम ने बनाकर शासन को भेजा था। इस पुल के निर्माण को लेकर डीपीआर बनाकर मंजूरी के लिए शासन के पास भेजा गया था, लेकिन न पुल मंजूर हुआ और न इसकी फाइल आगे बढ़ पाई।

फुलवरिया फोरलेन और पिसौर पुल के बीच वरुणा नदी पर पुल बनाने का प्रस्ताव कैबिनेट मंत्री अनिल राजभर ने दिया था, जिसे राजकीय सेतु निगम ने स्वीकार कर दो साल पहले डीपीआर तैयार कराया था। उस समय इस परियोजना पर करीब 9.17 करोड़ रुपये का अनुमानित खर्च बताया गया था। जाहिर है कि महंगाई बढ़ने की वजह से इस पुल की लागत बढ़ गई होगी। संभावना व्यक्त की जा रही है कि अब पुल बनाने  पर करीब 12 करोड़ से अधिक की लागत आएगी।

दानियालपुर और फुलवरिया पुल के बनने पर भवानीपुर, दनियालपुर, तरना, हरहुआ, फुलवरिया, महेशपुर, चंदनपुर, केराकतपुर, खरका, गंगापुर कॉलोनी, आजाद नगर, भीम नगर, इंद्रपुर, कादीपुर, शिवपुर कोटवां, तरैया, पिसौर और श्यान नगर, जैसे गांवों के लोगों को सीधा लाभ होगा।

सेतु निगम ने शासन को इस पुल के लिए जो प्रस्ताव भेजा है उसे दनियालपुर-फुलवरिया रूट पर बनाया जाना है। इसकी लंबाई 79.88 मीटर होगी। कुछ विभागों से अनापत्ति प्रमाण-पत्र प्राप्त करने की प्रक्रिया चल रही है। शासन के पास डीपीआर दो साल पहले ही भेजा जा चुका है।

वाराणसी के कमिश्नर कौशल राज शर्मा भी कई बार दानियालपुर में पक्के पुल का निर्माण कराने का वादा कर चुके हैं। शर्मा कहते हैं, “पक्के पुल के निर्माण के लिए प्रस्ताव तैयार करने का आदेश दिया गया है। जल्द ही पुल का निर्माण शुरू किया जाएगा।” लेकिन गांव वालों के लिए यह सवाल बना हुआ है कि “जल्द” कब आएगा?

इलाकाई विधायक और काबीना मंत्री अनिल राजभर का कहना है कि पुल बनाने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। जल शक्ति विभाग की एकमात्र एनओसी बाकी है, जिसके बाद निर्माण कार्य शुरू होगा। उन्होंने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की पहल का हवाला देते हुए कहा कि धनराशि आवंटित हो चुकी है।

गौरतलब है कि जिले में वरुणा नदी पर पहले से ही 11 पुल मौजूद हैं, जिनमें कोनिया, पुराना पुल, नक्खी घाट, चौका घाट, कचहरी के दो पुल, फुलवरिया फोरलेन, पिसौर, रामेश्वर और कालिका धाम पुल शामिल हैं। नया पुल बनने के बाद इस संख्या में इजाफा होगा, जिससे आवागमन और सुगम हो जाएगा।

नया पुल न केवल स्थानीय लोगों की दैनिक समस्याओं का समाधान करेगा, बल्कि इस क्षेत्र के समग्र विकास में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। इस परियोजना से जुड़ी हर गतिविधि पर स्थानीय निवासियों की नजरें टिकी हुई हैं।

बेअसर साबित हो रहे नेता-मंत्री

संसद में फुलवरिया गांव का प्रतिनिधित्व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी करते हैं और इसके ठीक सामने वरुणा नदी के पार बसे दानियालपुर के सांसद वीरेंद्र सिंह हैं। अब से पहले दो टर्म तक इस गांव के लोगों ने केंद्र में काबीना मंत्री रहे डा.महेंद्रनाथ पांडेय को सांसद बनाया था। सत्ता में होने के बावजूद उन्होंने ग्रामीणों की मुश्किलों को गंभीरता से नहीं लिया।

इस पुल के निर्माण के लिए सांसद वीरेंद्र सिंह ने पहल शुरू की है। बड़ा सवाल यह है कि जब काबीना मंत्री रहे डा.महेंद्रनाथ पांडेय और मौजूदा कैबिनेट मिनिस्टर अनिल राजभर कुछ नहीं कर सके तो वीरेंद्र सिंह की पहल कितना असर दिखाएगी।

दानियालपुर के लोग पुल न होने के कारण शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के अवसरों से वंचित हो रहे हैं। अस्थायी बांस का पुल इस समस्या का स्थायी समाधान नहीं है। गांव वालों का कहना है कि प्रशासन को यहां एक स्थायी पुल बनवाना चाहिए ताकि उनके जीवन की मुश्किलें कम हो सकें।

बांस के पुल के पास जुटे ग्रामीण दुखड़ा सुनाते हुए

दनियालपुर गांव के लोग अब भी उम्मीद लगाए बैठे हैं कि उनकी समस्याओं का समाधान होगा। लेकिन जब तक पक्का पुल नहीं बनता, तब तक उन्हें बांस और लकड़ी के पुल के सहारे ही जिंदगी गुजारनी पड़ेगी। यह रिपोर्ट केवल दनियालपुर गांव की कहानी नहीं है, बल्कि उन तमाम गांवों की है, जो विकास की मुख्यधारा से दूर छूट गए हैं।

दानियालपुर के लोगों की यह कहानी केवल एक पुल की जरूरत तक सीमित नहीं है। यह उनकी इच्छाशक्ति, उनकी लड़ाई और उनकी अनदेखी का दस्तावेज़ है। हर गुजरते दिन के साथ यह पुल उनकी उम्मीदों और उनकी हताशा दोनों को साथ लेकर चलता है।

(विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं। वाराणसी से उनकी ग्राउंड रिपोर्ट)

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