क्या मोदी-शाह जोड़ी की सट्टा बाजार में नियोजन की सलाह जनविरोधी है?

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पहले चंद बुनियादी सवाल:

  1. क्या चुनाव के दौरान देश के शिखर नेतृत्व के लिए देशवासियों से शेयर बाजार (चालू भाषा में-सट्टा बाजार) में नियोजित करने की सलाह देना वांछित है?
  2. क्या मतदाता प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और अन्य माननीयों को जनता से शेयर खरीदने की सलाह देने के लिए चुनते हैं?
  3. क्या शिखर नेतृत्व का ऐसा कृत्य मतदाताओं के साथ विश्वासघात नहीं है?
  4. क्या भविष्य में एग्जिट पोल के परिणामों पर भरोसा किया जाना चाहिए?
  5. क्या मीडिया द्वारा प्रायोजित परिणामों का अंधाधुंध प्रचार-प्रसारण किया जाना चाहिए?
  6. क्या ऐसी हरक़तों से लोकतंत्र कमज़ोर नहीं होगा और प्रकारांतर से अराजकता को जन्म मिलेगा?
  7. क्या भविष्य में एग्जिट परिणामों पर प्रतिबन्ध नहीं लगाया जाना चाहिए?
  8. क्या निर्वाचित प्रतिनिधियों पर भी चंचल शेयर बाजार में नियोजन की सलाह देने पर पाबंदी नहीं होनी चाहिए?

कांग्रेस नेता ने कल शाम प्रेस वार्ता में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह पर आरोप लगाया है कि उनकी सलाह पर लोगों ने शेयर बाजार में तीन जून को लाखों रुपयों का नियोजन किया और अगले दिन 4 जून को बाज़ार बैठ गया। फलस्वरूप, खुदरा शेयर धारकों के 30लाख करोड़ रुपये डूब गए। गोदी मीडिया ने भी एग्जिट पोल के परिणामों के प्रसारण के माध्यम से बाज़ार की कृत्रिम छलांग में अपना योगदान दिया। प्रधानमंत्री ने ऐसे घरानों के चैनलों को इंटरव्यू दिए हैं जिन पर सेबी की जांच चल रही है। यह एक महाघोटाला है। इसलिए संयुक्त संसदीय समिति द्वारा इस प्रकरण की जांच कराई जानी चाहिए।

समिति गठित होगी भी या नहीं, जांच कैसी होगी, कौन इसके अपराधी होंगे और इस प्रकरण से किन-किन घरानों को लाभ पहुंचा है, यह तो भविष्य ही बताएगा। इस कांड के तार किस-किस से जुड़े हुए हैं और इसकी पटकथा किसने लिखी थी, यह जांच का विषय है। लेकिन, राहुल गांधी ने जो मुद्दा उठाया है, उस पर चिंतन की ज़रुरत है। यह तो साफ़ है कि देश के दो शिखर नेताओं के उत्साही कथनों से बाज़ार में उछाल आया, लोगों ने सट्टा बाजार में नियोजन भी किया और 4 जून को प्रतिकूल परिणाम आते ही बाजार धड़ाम से नीचे गिरा।

कांग्रेस नेता का आरोप यह भी है कि प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को कथित रूप से मालूम भी था कि भाजपा को 220 सीटें मिल रही हैं। लेकिन, उन्होंने ने तीन सौ पार का माहौल बनाया और लोग शेयर खरीदने के लिए उछलने लगे। यदि, शिखर नेता ऐसा नहीं करते तो बाज़ार में अस्वाभाविक उछाल और गिरावट नहीं आते। मीडिया ने भी नियोजन के लिए लोगों को उकसाने में अपनी भूमिका निभाई है। इसके पीछे एक सोची-समझी चाल दिखाई देती है।

राहुल गांधी मूलतः नेता हैं। उनके कथित आरोपों को स्थगित रखते हैं। पर असल मुद्दा यह है कि प्रधानमंत्री और गृह मंत्री को ऐसा करना चाहिए था? संयोग से दोनों ही शिखर नेता गुजरात से हैं जिसकी धमनियों में ‘काम-धंधा’ प्रबलता के साथ बहता है। राजनैतिक नैतिकता की दृष्टि से सोचें तो क्या शिखर नेताओं के ‘निवेश कथन’ कल्याणकारी हैं? यह जोड़ी इस दारुण यथार्थ से निश्चित ही अनभिज्ञ नहीं होगी कि देश की 80 -81 करोड़ की आबादी सरकारी सहायता पर जी रही है। जहां लोगों को पीने का साफ़ पानी नहीं मिलता है, किसान खुदकुशी करते हैं और सरकारी क्षेत्रों में चिकित्सा सुविधाओं का दर्दनाक अभाव है। क्या ऐसे देश के प्रधानमंत्री व गृहमंत्री से यह अपेक्षा नहीं की जाती है कि वे जनता को शेयर बाज़ार में पैसा लगाने के लिए प्रोत्साहित करें। यह अनैतिक है।

मोदी-शाह की जोड़ी को इस सच्चाई से भी वाकिफ़ होना चाहिए कि देश की जनता को रचनात्मक कामों के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। यदि शासक ही कुपथ का मार्ग दिखलायेगा तो समाज में कैसे मूल्य जन्म लेंगे? तर्क दिया जा सकता है कि महाभारत में भी तो सत्यवादी व धर्मप्राण पांडवों ने जुआ खेला था। लेकिन, उसका परिणाम ‘द्रौपदी- चीरहरण’ निकला। चीरहरण की पराकाष्ठा था कौरव-पांडव युद्ध। कलियुग में लोकतंत्र हमारी द्रौपदी है और राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री धर्मराज हैं। शिखर नेतृत्व से ऐसी अपेक्षा सरासर नहीं की जाती है।

क्या नेहरू काल से मनमोहन सिंह काल की अवधि में किसी प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने लोगों से कहा था कि वे अपना धन सट्टा बाजार में लगाएं, शेयर खरीदें क्योंकि मार्किट में उछाल आनेवाला है। कल्पना करें, जब दुनिया के राष्ट्राध्यक्ष और शासनाध्यक्ष जनता को सट्टा बाज़ार में नियोजन करने के लिए उकसाने में सक्रिय हो जाएं, तब देश-समाज-राष्ट्र का कैसा चेहरा होगा? चारों तरफ ‘ जुआरी संस्कृति’ फैली हुई दिखाई देगी। वास्तव में, भारत विकृत पूंजीवाद की दिशा में बढ़ता जा रहा है, जिसमें न कोई नैतिकता है और न ही मर्यादा। क्या सट्टा बाज़ार के माध्यम से एक स्वस्थ पूंजीवादी समाज की रचना की जा सकती है?

सटोरिये कभी भी स्वस्थ पूंजीवाद को जन्म नहीं दे सकते। सटोरिया संस्कृति से लोक-कल्याणकारी समाज को जन्म मिलेगा, ऐसा सोचना मूर्खता होगी। शिखर नेतृत्व को याद रखना चाहिए कि उसके शब्दों से वर्तमान और भावी पीढ़ियां प्रभावित होती हैं। यदि उनके शब्दों को आधार बना कर लोग सट्टाबाजार में मगन होने लगे तो इसका क्या परिणाम निकलेगा? सड़ांघ में धंसी पूंजीवादी व्यवस्था पैदा होगी। ऐसी व्यवस्था से विरासत का पतन नहीं होने लगेगा? क्या इसे हिंदुत्व की संस्कृति कहा जायेगा? लोगों के मनों में शंकाएं उठने लगी हैं कि मोदी+शाह जोड़ी ने संघ से ऐसे संस्कार पाए हैं!

शिखर नेताओं के नियोजनोमुख उवाच+मार्किट छलांग व गिरावट+मीडिया प्रचार-प्रसार= कुटिल समीकरण व अस्वाभाविक संयोग प्रतीत होता है। ऐसे खौफनाक़ संयोग लोकतंत्र, नागरिक स्वतंत्रता और स्वस्थ शासन प्रणाली के लिए घातक ही सिद्ध होंगे। देश में शिखर नेतृत्व के कथनों पर बहस होनी चाहिए। मोदी जी के कई कथन ऊल-जलूल रहते हैं। चूंकि, विकलांग भाजपा के नेतृत्व में बहुमत वाले गठजोड़ की सरकार बनने जा रही है, तब घटकों के नेताओं से अपेक्षा की जाती है कि वे अपने प्रधानमंत्री मोदी को पटरी से उतरने नहीं दें और उनकी अभिव्यक्ति को लोक कल्याणकारी व लोकतांत्रिक बनाएं रखें। वरना शिखर नेतृत्व के ऊटपटांग कथन ‘आत्मघाती’ सिद्ध होंगे!

(रामशरण जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)

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