ग्राउंड रिपोर्ट: नूंह, जहां जिंदगी का नाम ही जहालत है

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(ऐतिहासिक धरोहरों के शहर नूंह की अनदेखी और बदहाली यहां के बाशिंदों की चेहरों की बेबसी में साफ झलकती है। पिछड़ेपन की फेहरिस्त में सबसे ऊपरी पायदान पर लगातार बने नूंह (पहले मेवात) की स्थिति देखकर लगता नहीं कि कभी यह तेजी से तरक्की की सीढ़ियां चढ़कर विश्व फलक पर किसी सितारे की तरह चमकने वाले गुरुग्राम का हिस्सा रह चुका है। विडंबना ही है कि जिस स्थान के इतिहास में पौराणिक से लेकर स्वतंत्रता संग्राम तक की समृद्धि झलकती है, उसका भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक और यहां तक कि राजनीतिक स्तर इतना निम्न है।

नूंह चमकता है, कभी घटनाओं में, तो कभी चुनावी संग्राम के ठोस धरातल के रूप में। तभी तो हर मेव (नूंह या मेवात निवासियों को कहा जाता है) के चेहरे पर बेबसी और आवाज में गुस्सा होता है और कहता है कि नेताओं का चेहरा पांच वर्षों में एक बार दिखता है। यहां पर विकास का मुद्दा केवल चुनावी प्रचार तक उछलता है, इसके बाद वह अगले चुनावों में ही लौटता है। इस लोकसभा चुनावों में क्या हैं निवासियों के असल मुद्दे और किस ओर है सियासी हवा का रुख, इस बारे में नूंह के ग्राउंड जीरो से पेश है एक रिपोर्ट।)

44 डिग्री तापमान की चिलचिलाती धूप और गर्मी में पानी की कतार में लगी महिलाएं पानी भर लेने की जद्दोजहद में इस तपती गर्मी की तपिश का कोई खास एहसास नहीं लेतीं। लें भी कैसे, गर्मी नहीं बर्दाश्त करेंगी तो फिर बिन पानी क्या…? सब सून…। बाई गांव की महिलाएं पूरे जिले के सभी गावों की स्थिति का आईना है। यूं कहें कि पानी को लेकर जिले की स्थिति किसी रेगिस्तान से कम नहीं, तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। किंवदंतियों के मुताबिक जहां वनवास से लौटे पांडवों ने अपनी प्यास बुझाई थी वहां आज लोग पानी की एक-एक बूंद के लिए तरस रहे हैं।

पास ही स्थित नलहड़ महादेव मंदिर में पानी के स्रोत को लेकर पौराणिक मान्यता है। नैसर्गिक आकर्षण और आध्यात्मिक महत्व के साथ यह स्थान कभी प्राकृतिक जल स्रोत का आश्चर्यजनक नमूना पेश करता था। आज भी अरावली की तलहटी में बने शिव मंदिर के पास जल स्रोतों के होने के प्रमाण साफ नजर आते हैं। खैर, हम आगे बढ़ते हैं। नूंह की तरफ, वहां की मुख्य सड़कों पर हैंडपंप से जूझती महिलाएं। असीमा कहती हैं, इस एक घड़े पानी से हम खाना भी बनाएंगे और बर्तन भी धोएंगे।

पानी के लिए कतार में लगी महिलाएं

दो घड़े लाने वाली सोनू कहती हैं, इसमें परिवार नहा भी लेगा। सुनकर ही स्थिति पर किसी को भी तरस आ जाए लेकिन यहां से वोट चाहने वाली पार्टियों और प्रत्याशियों को यह परेशानियां नजर नहीं आती। महिलाएं कहती हैं कि वे परिवार के कहने पर वोट देंगी, फिर याद आता है कि पानी बड़ा मुद्दा है तो कुछ सोचकर कहती हैं इस बार किसी और को मौका देंगे।

पांच वर्ष पर एक बार दिखते हैं प्रत्याशियों के चेहरे

इन दिनों नूंह के दिन बहुरे नजर आ रहे हैं। जहां वर्षों कोई नेता नहीं पहुंचता वहां इन दिनों नेताओं का तांता लगा हुआ है। लोकसभा चुनावों की घोषणा के बाद मनोहर लाल और यहां तक कि प्रदेश के नए मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी ने कई बार इलाके का दौरा कर लिया। उधर कांग्रेस प्रत्याशी राज बब्बर ने तो नूंह पहुंचकर यहां घर बनाने तक की बात कर डाली। यहां तक कह डाला कि लोग उन पर इस चुनाव में भरोसा दिखाएं तो वे यहीं घर बना लेंगे। भाजपा प्रत्याशी राव इंद्रजीत की बेटी आरती राव नूंह में हफ्ते भर से डेरा डाले हुए हैं। स्थानीय निवासियों के बीच उनकी अपनी बनकर, उनकी संवेदनाओं और पिता के लिए वोटों की चाह में।

क्या उन्हें यह बेबसी नजर नहीं आती। खैर बात करते हैं कांग्रेस प्रत्याशी राज बब्बर की। महिलाएं और बुजुर्ग अन्य मुद्दों की बात करते हैं, तो पहली बार गुड़गांव लोकसभा क्षेत्र से उतरे प्रत्याशी का फिल्मी फैक्टर खासतौर पर युवाओं को आकर्षित करता नजर आ रहा है। अकेड़ा गांव की मुख्य सड़क पर चाय की दुकान चलाने वाले नदीम महंगाई, सड़क और विकास की अनदेखी को लेकर परेशान हैं लेकिन जब राज बब्बर की बात करते हैं तो उनके चेहरे पर खुशी के भाव तैर जाते हैं और कहते हैं कि यह सेलिब्रिटी कांटे की टक्कर दे रहा है और यहां से जीत हासिल करेगा।

वहां बैठे शाकिर बेरोजगारी, सड़क (जिसे छह लेन किया जाना है और अभी मात्र दो लेन की है, आए दिन हादसों से इस सड़क को खूनी सड़क के नाम से जाना जाता है) और पानी का मुद्दा रखते हैं लेकिन कांग्रेस की जीत को लेकर आश्वस्त हैं। हालांकि उनके पास बैठे बुजुर्गों की बातों में दुख, असंतोष और लाचारी दिखती है और वे सभी पार्टियों को कोसते हैं। अस्सी वर्षीय बुजुर्ग सुलेमान हुक्के की कश खींचते हुए चुनावों और मुद्दों को लेकर हुए सवाल पर आंखें मूंद लेते हैं। लगता है जवाब ही नहीं देना चाहते लेकिन अगले ही पल वे शुरू हो जाते हैं और फिर इलाके की दुर्दशा से लेकर प्रत्याशियों की यहां के विकास को लेकर बदनीयती पर बोलते चले जाते हैं। कहते हैं, कोई भी प्रत्याशी हो, चेहरा सिर्फ चुनाव में ही दिखता है।

आकेड़ा गांव के निवासी

77 वर्षीय जुबैर विकास के मुद्दे पर केवल व्यंग्यात्मक हंसी हंसकर रह जाते हैं। हसरुद्दीन और जाकिर हुसैन इलाके में पानी की समस्या से एक बार फिर से यहां की वास्तविक स्थिति से रूबरू करवाते हैं। चचा सुलेमान हमारी गाड़ी की अगली सीट पर बैठ जाते हैं और दुख और गर्व मिश्रित भाव से बताते हैं कि नूंह में आसपास के इलाकों में सबसे बड़ी झील है, उसे दिखाने के लिए हमें टेढ़े-मेढ़े कच्चे रास्तों पर ले जाते हैं जिन पर आगे बढ़ते हुए लगता है कि वापस लौटना असंभव है। 

कागजों तक ही सीमित झील का पानी

कोटला झील की योजना तो वास्तव में बड़ी ही खूबसूरत है लेकिन दुर्भाग्य यह है कि जल संचयन केवल कागजों में ही है। जमीनी हकीकत तो यह है कि बजट पास होने के बाद भी झील को विकास का अमलीजामा नहीं पहनाया जा सका, नतीजतन झील में पानी की एक बूंद तक नहीं है। यहां लगे एक दो संयंत्र जंग खा रहे हैं। अरावली की पहाड़ियों से घिरी विशाल झील बहुत सी संभावनाएं लिए नजर आती है। इसके बारे में सुलेमान बताते हैं कि कांग्रेस के समय में सरकार ने 108 किले जमीन झील के लिए एक्वायर की थी जिसका मुआवजा बीजेपी सरकार के समय में मिला था।

झील तो बनी लेकिन नहीं हुआ काम, उपकरणों में लग चुका है जंग

2018 में इसके लिए 82 करोड़ रुपए का बजट भी मिला लेकिन कुछ नहीं हुआ। हां, बरसात में इसमें पानी आता है और आसपास के गावों और खेतों की प्यास बुझाता है लेकिन अक्टूबर नवंबर तक ही यह पानी दिखता है इसके बाद इस पानी को नालों के जरिए यमुना में भेजना पड़ता है क्योंकि यह झील ऊंचाई पर है और गावों में पानी भरने लगता है। इस झील में सरकार को इस जल के संग्रहण के लिए काम करना था लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है।

संभावनाओं से भरी कोटला झील में नहीं है एक बूंद पानी

पानी आपूर्ति के लिए 2013-14 में कांग्रेस सरकार ने दादरी से एक लाइन केएमपी (कुंडली-मानेसर-पलवल) रोड के साथ लाकर मेवात में शुरू की थी जिससे 17 गावों में पानी आपूर्ति होती है। हालांकि यह नाकाफी है। निवासियों का मानना है कि प्राकृतिक जल निकायों को यदि पुनर्जीवित किया जाए तो पानी की समस्या का समाधान हो जाएगा, साथ ही यहां पर मछली पालन और पर्यटन को भी बढ़ावा मिलेगा। विकास की गुंजाइश और तरीके बहुत हैं लेकिन मुद्दा यही है कि इस पर काम कौन करे।  

लचर शिक्षा व्यवस्था और बेरोजगारी

गांव मोहम्मदवास की हनीफा की बातों में उतरे दर्द से अंदाजा लगा कि युवती कमजोर शिक्षा व्यवस्था की शिकार है और उसकी प्रतिभा को माहौल नहीं मिल सका, हनीफा डॉक्टर बनना चाहती थीं लेकिन आर्थिक तंगी और शिक्षा की ऐसी स्थिति से उन्हें नर्सिंग में संतोष करना पड़ा। उनका कहना है कि किसी भी इलाके की रीढ़ वहां की शिक्षा व्यवस्था होती है लेकिन इसके नाम पर कुछ महंगे स्कूल हैं जहां पर आम आदमी अपना बच्चा नहीं पढ़ा सकता।

नूंह में कम नज़र आती है स्कूली छात्राओं की संख्या

ऐसे में 14-15 वर्ष की आयु तक पहुंचने के बाद बच्चे को लेबर के काम में लगा दिया जाता है। हनीफा की तरह सलीमा का कहना है कि इलाके के प्रतिभावान बच्चे पीछे रह जाते हैं। मेडिकल कॉलेज में आरक्षण होना चाहिए। अशिक्षा और बेरोजगारी के कारण युवा या तो कोल्ड ड्रिंक बेच रहे हैं या घरों के बाहर बैठे मानो विकास की उस सपनीली लौ की राह देख रहे हैं जिसका इंतजार जिला वर्षों से कर रहा है। 

आज भी जलते हैं लकड़ी के चूल्हे

जब आम तौर पर लोग घरों में आराम कर रहे होते हैं तब यहां की महिलाएं और छोटी-छोटी बच्चियां इसी धूप में लकड़ियां तोड़ती नजर आती हैं। सड़कों के किनारे चल रही स्कूली विद्यार्थियों की पंक्ति में लड़कियों की संख्या बेहद कम नजर आती है। आएगी भी कैसे, वे पढ़ने लगीं तो चूल्हा जलाने के लिए लकड़ियां और पीने के लिए पानी कौन लाएगा। नूंह के गावों की स्थिति देखकर एक बार रुककर सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि क्या हम सचमुच उसी दौर में खड़े हैं जहां दुनिया चांद तक को अपनी मुट्ठी में ले चुकी है। यहां आज भी लकड़ी से चूल्हे जलते हैं।

चूल्हा जलाने के लिए लकड़ियां इकट्ठा करती हैं महिलाएं

मालब गांव की अनीशा कहती हैं कि वे उसी को वोट देंगी जो विकास लाएगा, उन्हें गैस कनेक्शन दिलवाएगा। समीना कहती हैं, हमें सिलेंडर दिलवा दो, वोट ले जाओ। इनकी बातों के भोलेपन पर तरस आता है, यही लगता है कि इन्हें कुछ भी अंदाजा नहीं है कि काम कैसे होता है। मोहम्मद अनवर कहते हैं कि गैस कनेक्शन के लिए उनके पिता जी ने भी आवेदन किया था और अब उन्होंने भी आवेदन किया है, पीढ़ियां बदल गईं लेकिन इनके हालात नहीं। उज्जवला योजना इनके लिए जैसे बनी ही न हो, यहां की महिलाओं का दम तो रसोई के चूल्हे में घुटकर रह जाएगा।

राजनीतिक बैकग्राउंड  

मेवात में 80 प्रतिशत मुस्लिम और 20 प्रतिशत हिंदू आबादी है। जाहिर सी बात है यहां की राजनीति मुद्दों पर नहीं होती, बल्कि परिवारवाद के इर्द गिर्द घूमती है। प्रदेश की राजनीति की बात करें तो नूंह की सियासी पिच पर केवल दो परिवार ही बैटिंग करते रहे हैं। तैयब परिवार और खुर्शीद अहमद का परिवार यहां की राजनीतिक बिसात पर गोटियां सेट करने में कामयाब रहा है। तैयब हुसैन के परिवार के अलावा खुर्शीद अहमद के पिता और इनका बेटा आफताब अहमद यहां से जीतते रहे हैं। ऐसे में यहां की राजनीति दो परिवारों की होकर रह गई। यहां की सियासी हवा का रुख हमेशा एंटी बीजेपी रहा है।

पिछले दोनों लोकसभा चुनावों  में भले ही बीजेपी प्रत्याशी राव इंद्रजीत ने गुड़गांव लोक सभा सीट पर कामयाबी पाई हो लेकिन नूंह से इनके हिस्से शिकस्त ही आई है। एक समय तक यहां पर बूथ कैप्चरिंग जैसी चीजें बदस्तूर चली आ रही थीं लेकिन कुछ समय से प्रशासन की सख्ती और केंद्र सरकार की नीतियों से यह चीजें बदली हैं। टक्कर कांटे की है लेकिन यहां एक पत्ता निर्णायक साबित हो सकता है। वह है जिले में पंजाबी समुदाय। यहां पर पंजाबी समुदाय की आबादी लगभग 2,70,000 है। ऐसे में अंदाजा लगाया जा रहा है कि अगर राज बब्बर का पंजाबी फैक्टर चल जाए तो उनकी जीत की राहें आसान हो जाएंगी। 

(जनचौक की रिपोर्ट।)

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