शख्सियत: 25 साल बाद बिहार में लाल झंडा बुलंद करने वाले राजाराम सिंह और सुदामा प्रसाद

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पटना। 2024 के लोकसभा चुनाव के ऐलान के बाद से ही एक सवाल आम जनमानस के बीच गूंज रहा था कि 2020 के विधानसभा चुनाव में प्रमुखता से दस्तक देने वाली कम्युनिस्ट पार्टी क्या लोकसभा चुनाव-2024 में कोई नया इतिहास बना पाएगी? जब परिणाम आया तो माले के दो सांसद सदन में दस्तक देने को तैयार खड़े हैं।

भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी पहली विपक्षी पार्टी के रूप में उभरी थी। साल ‌1957 में, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने केरल राज्य में ऐतिहासिक चुनावी जीत दर्ज की। गौरतलब है कि केरल राज्य में दुनिया की पहली लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई कम्युनिस्ट सरकार बनाई और संसद में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी बन गई थी।

धीरे-धीरे इसकी पकड़ देश के कई राज्यों में दिखने लगी थी। जिसमें बिहार भी शामिल था। 90 के दशक में दलित और पिछड़ी जातियों के हक के लिए सबसे ज्यादा कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता शहीद हुए थे। उसके बाद पूंजीपतियों और कट्टर हिंदुत्व संगठन के द्वारा तमाम षडयंत्रों के कारण कम्युनिस्ट पार्टी कई राज्यों में पूरी तरह बिखरने लगी या खत्म होने लगी। 

वहीं जब पूरा देश राष्ट्रवाद और पूंजीवाद की जकड़न में फंसने जा रहा था तब देश ने एक मजबूत विपक्ष को लोकतंत्र में जगह दी है। इस कड़ी में बिहार की सियासी सरजमीं पर 25 साल बाद इस बार के लोकसभा चुनाव में वामदल का ‘लाल झंडा’ बुलंद हुआ है। इस बार के चुनाव में 25 साल के बाद वामदल के दो प्रत्याशी सुदामा प्रसाद और राजाराम सिंह ने बिहार में लाल झंडा बुलंद किया है।

वर्ष 1999 में इससे पहले भागलपुर लोकसभा सीट पर माकपा प्रत्याशी सुबोध राय अंतिम बार सांसद बने थे। वहीं, जहां कम्युनिस्ट पार्टी हारी वहां भी कांटे का टक्कर दिया। भोजपुर के अगिआंव विधानसभा सीट पर हो रहे उपचुनाव में भी जीत दर्ज की। गौरतलब है कि बिहार लोकसभा चुनाव 2024 के लिए इंडियन नेशनल डेमोक्रेटिक इन्क्लूसिव अलायंस (इंडिया गठबंधन) के घटक दलों के बीच सीटों के तालमेल के तहत वाम दल पांच सीटों पर चुनाव लड़ रही थी। 

कौन हैं आरा के नए सांसद सुदामा प्रसाद?

देश के पहले दलित डिप्टी पीएम जगजीवन बाबू की राजनीतिक भूमि और रणवीर सेना का गढ़ आरा लोकसभा सीट से सीपीआई-एमएल के सुदामा प्रसाद ने भाजपा के बड़े नेता और केंद्रीय मंत्री आरके सिंह को चुनाव में हराया है। सुदामा प्रसाद ने 5,29,382 वोटों लेकर जीत दर्ज की है सुदामा प्रसाद शुरुआती रुझानों में ही आगे चल रहे थे और अंत में उन्होंने जीत दर्ज की। यहां से भाजपा ने आरके सिंह को टिकट दिया था जिन्हें 4,69,574 वोट मिले हैं।

तरारी विधानसभा के दो बार से विधायक सुदामा प्रसाद अतिपिछड़ा वैश्य समाज यानी हलवाई जाति से आते है। सुदामा प्रसाद भोजपुर जिले स्थित पवना थानांतर्गत अरैला गांव निवासी गंगा दयाल साह के पुत्र हैं। जो एक मिठाई दुकानदार थे। गरीब परिवार से ताल्लुक रखने वाले सुदामा प्रसाद सन् 1978 में हर प्रसाद दास जैन स्कूल, आरा से मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के उपरांत जैन कॉलेज आरा में नामांकन कराया, लेकिन 1982 में पढ़ाई बीच में ही छोड़कर वे भाकपा-माले पार्टी में शामिल हो गए।

सुदामा प्रसाद ने जन संस्कृति मंच, युवा नीति से 1979 में अपनी राजनीति की शुरुआत की थी। इसी मंच के माध्यम से उन्होंने सरकारी साढ़, पत्ताखोर, कामधेनु और सिंहासन खाली करो जैसे नाटकों में जबरदस्त अभिनय किया। कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़कर सुदामा प्रसाद गरीब तबके के लोगों के लिए हमेशा आवाज उठाते आए हैं। स्थानीय पत्रकार प्रिंस सिंह के मुताबिक 2014 में उनके द्वारा शुरू किए गए आंदोलन की वजह से भोजपुर में 1660 रु. प्रति क्विंटल की दर से बटाईदार किसानों का 28 हजार क्विंटल धान खरीदा गया था। 

चुनाव आयोग को दिए अपने एफिडेविट के मुताबिक सुदामा प्रसाद के पास 90 लाख की संपत्ति है, जबकि उनके पास 1 लाख रुपए कैश में हैं। 20 लाख की जमीन है, जबकि 31 लाख की जमीन उनकी पत्नी के नाम पर है। साथ ही 8 लाख रुपए का इंश्योरेंस भी खरीद रखा है।‌

स्थानीय पत्रकार प्रिंस सिंह के मुताबिक 1985 में वो पहली बार जेल गए थे जब भोजपुर के क्रांतिकारी किसान आंदोलन के शहीद जीउत-सहतू की श्रद्धांजलि सभा के दौरान पुलिस रेड में गिरफ्तार हुए थे। फिर यह सिलसिला लगातार जारी रहा है। जेल बंदियों के पक्ष में आवाज उठाने पर 1989 में केंद्रीय कारा बक्सर एवं 1991 में मंडल कारा आरा में लाठी से बर्बरतापूर्वक पिटाई भी हुई थी।

1995 में आरा में धरना पर भाषण देते समय अपराधियों ने ग्रेनेड से हमला किया था, जिसमें वे बाल–बाल बच गए थे। सुदामा प्रसाद  पर एक ऊंची जाति के जमींदार की हत्या के मामले में भी आरोप लगाया गया था, हालांकि बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें यह कहते हुए बरी कर दिया कि उन्हें पीड़ित किया गया था और गवाहों ने अदालत में झूठी गवाही दी थी। 

राजनीति की शुरुआत में सुदामा प्रसाद बक्सर लोकसभा सीट से 2009 में चुनाव लड़े थे, जहां उन्हें हार का सामना करना पड़ा था। आरा विधानसभा से भी चार बार चुनाव लड़ चुके है, लेकिन हर बार इनको हार का सामना करना पड़ा है। वरिष्ठ नेता और साफ और ईमानदार छवि होने की वजह से माले पार्टी ने इनको 2015 विधानसभा के चुनाव में तरारी विधानसभा से फिर से प्रत्याशी बनाया था।

जहां इन्होंने भूमिहार जाति से ताल्लुक रखने वाले बाहुबली सुनील पांडेय की पत्नी गीता पांडेय को 272 वोटों से हराकर जीत दर्ज की थी। इसके बाद 2020 में सुनील पांडेय को 11015 वोटों से मात दी थी। इनकी पत्नी शोभा देवी भी सीपीआई एमएल से जुड़ी हुई है। बिहार में हुए हाल के नगर निगम चुनाव में मेयर पद के लिए चुनाव भी लड़ चुकी हैं हालांकि हार का सामना करना पड़ा था। 1993 में जेल से निकलने के बाद उन्होंने शोभा मंडल से अंतर्जातीय शादी की थी।

माले के स्थानीय कार्यकर्ता राहुल कुमार के मुताबिक इन्होंने 2017 के गुजरात विधानसभा चुनाव में बडगाम विधानसभा क्षेत्र के लिए दलित कार्यकर्ता और स्वतंत्र उम्मीदवार जिग्नेश मेवाणी के अभियान का समर्थन किया था।

जिस सीट पर हुई थी जमानत जब्त, वहां से राजाराम बने सांसद

काराकाट लोकसभा में सीपीआई (एमएल) के उम्मीदवार राजाराम सिंह 105858 वोटों से चुनाव जीते। राजाराम सिंह को 380581 वोट मिले। वहीं दूसरे नंबर पर रहे भोजपुरी फिल्मों के पावर स्टार पवन सिंह को लगभग पौने तीन लाख वोट मिले।

पिछले कई दिनों से काराकाट लोकसभा सीट काफी चर्चा में थी। चर्चा में होने की वजह भोजपुरी स्टार पवन सिंह और पूर्व सांसद उपेंद्र कुशवाहा थे। मेनस्ट्रीम मीडिया में कहीं भी राजाराम सिंह की चर्चा नहीं हो रही थी, हालांकि चुनाव जीतने के बाद राजाराम सिंह अचानक मीडिया की सुर्खियों में आ चुके हैं। 

कुशवाहा समुदाय (कोइरी) से ताल्लुक रखने वाले राजाराम सिंह का जन्म बिहार के औरंगाबाद जिले में दीपन सिंह के घर हुआ था। राजनीति में आने से पहले सिंह एक सामाजिक कार्यकर्ता थे और उनकी पत्नी रेलवे प्राइमरी स्कूल की प्रिंसिपल हैं।

वर्तमान में भाकपा माले के राष्ट्रीय नेता राजाराम ने भाकपा माले जॉइन करने के बाद औरंगाबाद जिला स्थित ओबरा विधानसभा क्षेत्र से उन्होंने वर्ष 1995 व 2000 में जीत हासिल की थी। वर्तमान में राजाराम सिंह अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के बिहार-झारखंड यूनिट के राज्य प्रमुख और किसान अधिकार संगठन अखिल भारतीय किसान महासभा के राष्ट्रीय सचिव हैं। साथ ही वह भाकपा माले के पोलित ब्यूरो के मेम्बर हैं।

काराकाट के लोकल पत्रकार अनूप सिंह बताते हैं कि “राजाराम सिंह जी का संघर्ष काफी ज्यादा है। दो बार विधायक बनने के बाद इन्होंने वर्ष 2009,2014 और 2019 में परिसीमन के बाद काराकाट संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़ा। राजाराम सिंह का प्रदर्शन तीनों ही चुनाव में खराब रहा है। तीनों चुनाव में राजाराम सिंह अपनी जमानत तक नहीं बचा सके हैं। 2009 में उन्हें 37493 मत मिले थे तो वहीं 2014 में 32684 मत मिले। 2019 के लोकसभा चुनाव में उन्हें वर्ष 2009 व 2014 से भी कम मत मिले हैं। मात्र 24932 मत ही मिल सके। जमानत जब्त हो गई थी। वर्ष 2015 में उन्होंने ओबरा से विधानसभा चुनाव भी लड़ा था, जहां उन्हें हार का सामना करना पड़ा था।”

स्थानीय पत्रकार के मुताबिक राजाराम सिंह किसानों के मुद्दों को उठाते रहते हैं। 29 मार्च 2012 को हसपुरा- पचरूखिया रोड में सलेमपुर गांव के नजदीक भाकपा माले पार्टी के समर्थक देवेंद्र कुमार उर्फ छोटू मुखिया की हत्या गोली मार कर कर दी गयी थी। हत्या के बाद हत्यारों को गिरफ्तारी के लिए जन आंदोलन हुआ था। मुखिया देवेंद्र कुमार की हत्या की सीबीआई जांच की मांग को लेकर प्रदर्शन में शामिल होने की वजह से राजाराम सिंह को जेल भी जाना पड़ा था।

कम्युनिस्ट पार्टी का मुद्दा क्या था? 

कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े अमित चौधरी दोनों लोकसभा सीट पर प्रचार कर चुके है। वो बताते हैं कि “कम्युनिस्ट पार्टी गांव-गांव जाकर इस बात का प्रचार प्रसार किया कि मोदी जी अगर रहे तो लोकतंत्र नहीं बचेगा, संविधान नहीं बचेगा। इसमें महिलाएं भी शामिल थी। हमारी संगीत टोली भी गीत-गाने के माध्यम से इस बात को लगातार उठाती रही। सीपीआई (एमएल) हमेशा गरीबों के मुद्दे पर मुखर रहा है। आशा, रसोईया और जीविका के मुद्दे पर भी हमने आंदोलन किया था। साथ ही स्थानीय मुद्दे की बात तो लगातार की ही जा रही थी। इस वजह से हमारी पार्टी का परफॉर्मेंस इतना बेहतर रहा।”

बिहार में लेफ़्ट पार्टियों का ऐसा प्रदर्शन कैसे संभव हुआ? इस सवाल के जवाब में बिहार के वरिष्ठ पत्रकार रविशंकर कुमार बताते हैं कि “जब भी सरकार बचाने का दौर आता है, सभी पार्टियों के विधायक दिल्ली चले जाते हैं लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी के विधायक अपने क्षेत्र में ही रहते है। यही कम्युनिस्ट पार्टी की ताकत है। लेफ़्ट पार्टियों का बिहार में सामाजिक आधार हमेशा से रहा है। 90 के दशक के बाद से लेकर अब तक समाजवादी पार्टियों जैसे राजद और जदयू ने काफ़ी नुक़सान पहुंचाया, इसके बावजूद इनका कोर वोट हमेशा इनके साथ रहा। आज जब समाजवादी और वामपंथी दल एक साथ हैं तो सबसे ज्यादा फायदा वामपंथी पार्टी को मिल रहा है।”

(बिहार से राहुल की रिपोर्ट)

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