भारत के लोगों के लिए शादी जीवन का एक अहम भाग है जहां समाज के लोग महिला और पुरुष को शादी के लिए न केवल प्रेरित करेंगे अपितु उसमें बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेंगे। शादी का ऐतिहासिक काल से ही राजनीति के साथ सीधा संबंध रहा है या यूं कहना सही होगा कि शादी के इर्द गिर्द एक व्यापक राजनीतिक अर्थशास्त्र घूमता है। जहां भारत में एक तरफ शादी आज भी अपनी प्रतिष्ठा को आगे बढ़ाने और समाज में अपने रसूख को बनाए रखने का एक तरीका है वहीं दूसरी तरफ जातीय संरचना को अनवरत बनाए रखने में इसका एक बहुत बड़ा योगदान है। परन्तु आज के समाज में प्रेम विवाह बढ़ा है जिसपर लोगों की अलग-अलग राय है। कुछ लोग इसे पसंद कर रहे हैं और एक व्यापक जनता है जो इसे गलत मान रही है।
विवाह के राजनीतिक अर्थशास्त्र में हमेशा से धर्म के बड़ा पहलू रहा है परन्तु यह बात जब अंतरधार्मिक विवाह की हो तो मामला संजीदा हो जाता है। भारत में अंतरधार्मिक विवाह को लेकर एक विशेष कानून 1954 में बनाया गया, जिसके अनुसार किसी भी धर्म के लोग किसी भी धर्म से शादी करने के लिए स्वतंत्र है और भारत का संविधान उसकी स्वयं दिशा निर्देश करता है। परन्तु पिछले 30–35 सालों में एक शब्द जो काफी में चर्चा में रहा है वह “लव जिहाद” है। परन्तु हमारे इस लेख का केंद्र लव जिहाद न होकर “विशेष विवाह अधिनियम” पर चर्चा करना है।
हाल ही में मेरी एक एडवोकेट से बात हो रही थी जिसमें वह बता रहे थे कि “हम तो अमूमन धर्मांतरण करके हिंदू विवाह अधिनियम के तहत लोगों की शादी कर देते हैं। दोनों लोग प्यार करके शादी करते हैं तो ज्यादा दिक्कत भी नहीं आती है। नहीं तो 1 महीने की नोटिस के कारण हमारे ऊपर भी काफी दबाव होता है।” यह दबाव स्वाभाविक है और चिंताजनक है। विशेष विवाह अधिनियम की धारा 6(2) और 6(3) को देखे तो यह निर्दिष्ट करता है कि जो भी जोड़ा इस अधिनियम के तहत शादी करना चाहते हैं उनका नाम और पता के साथ उनके विवरण को मैरिज ऑफिसर के यहां पब्लिक में लिख कर एक नोटिस के तरह डाला जाएगा, जिसके विरोध में कोई भी अपनी शिकायत दर्ज कर सकता है। अर्थात शादी किसी की भी हो उसमें पूरे समाज को उंगली उठाने का हक यह कानून देता है।
2017 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने कुलदीप सिंह मीणा बनाम राजस्थान राज्य मामले की सुनवाई में यह बात स्पष्ट रखा था कि आवेदकों के घर पर इस तरह से नोटिस का चिपकाया जाना उनके निजता का हनन है और एक गैरजरूरी प्रक्रिया है जिसका कोई औचित्य नहीं है। वहीं हरियाणा पंजाब उच्च न्यायालय ने एक मामले की सुनवाई में कहा कि हरियाणा राज्य में जो दो प्रावधान हैं जिसके अंतर्गत समाचारपत्र और परिवार जन को नोटिस भेजा जाता है वह निजता के अधिकार का सीधे तौर पर उल्लंघन है।
वहीं अगर दूसरी तरफ बात की जाए तो ये प्रावधान हिन्दू विवाह अधिनियम या मुस्लिम विवाह अधिनियम में मौजूद नहीं है। इससे यह स्पष्ट है कि यह एक भेदकरी प्रावधान है। यह प्रावधान सीधे तौर पर अनुच्छेद 14 और 15 की अवहेलना करता है जिसमें स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति को धर्म के आधार में असमानता का सामना नहीं करना पड़ेगा।
निजता के साथ स्वतंत्रता का सवाल
शादी न केवल निजता का प्रश्न है अपितु स्वतंत्र अभिव्यक्ति और अपने जीवन को सम्मान से जीने के एक पहलू के रूप में भी है। 2018 में इस मुद्दे को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में एक रिट पिटिशन दायर किया गया था जिसमें इस प्रावधान के कारण होने वाले हॉनर किलिंग और धार्मिक उन्मादियों द्वारा याचिकाकर्ताओं पर हमले की बात को सामने लाने का प्रयास किया गया था। देश आज यूनिफॉर्म सिविल कोड के नारे से गूंज रहा है जिससे लोगों को यह समझने का प्रयास किया जा रहा है कि चीजें ठीक हो जाएंगी। परन्तु उससे कहीं बड़े सवाल इसके द्वारा ठंडे बस्ते में डाल दिए जा रहे हैं।
लॉ कमीशन ऑफ इंडिया ने 2020 में “रिफॉर्म ऑफ फैमिली लॉ” के नाम से एक पेपर निकला जिसमें 30 दिन के नोटिस के प्रावधान को हटाने की बात की है, जिसपर सरकार ने अभी तक कोई ध्यान नहीं दिया है, वहीं दूसरी तरफ अंतरधार्मिक विवाह पर जोड़ों के ऊपर अटैक बढ़ें हैं। वहीं दूसरी तरफ इसे पूरी तरह से राजनीतिक बनाने का प्रयास वर्तमान की भारतीय जनता पार्टी कर रही है और जहां भी उनकी राज्य में सरकारें हैं वह एंटी कन्वर्शन अधिनियम को लाकर धर्मांतरण को मुश्किल बना रहे हैं वहीं इसको लेकर जो प्रोपेगंडा किया जा रहा है जिसके आधार पर वह हिन्दू हितैषी बनते हुए उस पूरे मामले को राजनीतिक तूल दे रहे हैं। एक नया ट्रेंड जो सामने आया है वह ये है कि अगर लड़का मुस्लिम है और लड़की हिंदू है तब परिवारजन पुलिस में जाने के बजाय हिंदुत्व फासीवादी गिरोह के पास जाते हैं जो ज्यादातर मामले में लड़के पर अटैक करके उसे मिसाल की तरह पेश करते हैं।
ऐसा ही मामला आंध्रप्रदेश के बेलागवी में सामने आया जब अरबाज मुल्लाह को एक हिंदू लड़की से प्यार करने की सजा मिली और उसकी लाश रेलवे ट्रैक पर मिली। इसके अलावा नंदिनी परवीन के रिट पिटिशन को काफी विस्तार से पढ़ें जाने की जरूरत हैं जिसमें उन्होंने काफी विस्तार से यह बताने का प्रयास किया है कि लोगों के ऊपर कैसे इस प्रावधान के कारण अटैक हुए और कई को अपनी जान गंवानी पड़ी। वहीं केरल सरकार के भी पहल पर गौर करने की जरूरत है जहां 2021 में यह फैसला लिया गया कि पार्टीज के विवरण को वेबसाइट पर नहीं डाला जाएगा। परन्तु रजिस्ट्रार ऑफिस से कोई भी आकर उसे देख सकता है। बड़ा सवाल यह उठता है कि जिन्हें इसी आधार पर राजनीति करनी है क्या वह रजिस्ट्रार के ऑफिस में जाकर नहीं देख सकते हैं। वहीं एक मामले में चंद्रचूड़ समेत अन्य जजों ने इस प्रावधान की संवैधानिकता में गए बिना केवल पार्टीज की सुरक्षा तक मुद्दे को लाकर सीमित कर दिया।
पर बड़ा सवाल अभी भी यही है कि ये प्रावधान कांग्रेस सरकार के समय ही बने और व्यापक चर्चा में भी रहे। इसके दूरगामी परिणाम को देखते हुए ही इस तरह के प्रावधान को जोड़ा गया ताकि अंतरधार्मिक विवाह न हो सके। जो कि स्पष्ट भी है। अगर भाजपा सरकार इस प्रावधान को आगे बढ़ते हुए ऐसा करने वालों को बढ़ावा दे रही है तो कांग्रेस ने भी कोई बहुत प्रगतिशील पहल नहीं ली है।
(निशांत आनंद स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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