वाराणसी-जिसे बनारस और काशी के नाम से जाना जाता है, हमेशा से अपनी संस्कृति, परंपरा और विरासत के लिए मशहूर रहा है। इस शहर की रगों में बुनकरी का हुनर बहता है, जिसमें बनारसी साड़ियां सिर्फ एक कपड़ा नहीं, बल्कि एक इतिहास, एक पहचान और एक जज्बा होती हैं। कभी शोरूम की शान रही ये साड़ियां, लकड़ी की अलमारियों में अदब से सजी रहती थीं, जिनकी कीमत उनकी कारीगरी और बुनकरों के सपनों से तय होती थी। लेकिन आज, मैदागिन, चौक, गोदौलिया से लेकर मदनपुर तक, यही बनारसी साड़ियां सड़क किनारे बिक रही हैं-एक मजबूरी, एक समझौता, और एक बिखरती हुई परंपरा का आइना।
बनारस प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संसदीय क्षेत्र है, और बनारसी साड़ियों का इतिहास सदियों पुराना है। कभी नवाबों के दरबार की शान हुआ करती थीं, तो कभी दुल्हनों के सपनों का हिस्सा। मगर अब, मंडी की मार और बाजार की बेरुखी ने इन्हें सड़क पर लाकर खड़ा कर दिया है। हालात ऐसे बन गए हैं कि बुनकर, जो कभी अपने हुनर पर गर्व महसूस करते थे, अब सड़कों पर अपनी मेहनत का सौदा करने को मजबूर हैं। दुकानों की जगमगाहट से दूर, धूल और धूप के बीच उनकी बेबसी किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को भीतर तक झकझोर सकती है।

मजबूरी की इस पराकाष्ठा को बनारस की सड़कों पर बिछी साड़ियों में साफ देखा जा सकता है। बुनकर, जो कभी अपनी कला से चमत्कार रचते थे, आज अपने ही हाथों की बनाई बेशकीमती कारीगरी को औने-पौने दाम में बेचने को विवश हैं। यह न केवल उनकी आर्थिक बेबसी को दर्शाता है, बल्कि बनारसी विरासत के लिए एक चेतावनी भी है।
सड़क पर बिछ गई बनारसी शान
कभी बनारसी रेशम साड़ी का जलवा बाज़ार में सिरमौर था, लेकिन 1991 में व्यापारिक नीतियों में बदलाव और पावरलूम के बढ़ते प्रभाव ने इस उद्योग की नींव हिला दी। आज बनारस के बुनकरों की व्यथा उनके आंसुओं में छलक रही है। पीलीकोठी के कटेहर इलाके में पीढ़ियों से हथकरघों पर बुनकर बनारसी साड़ी तैयार कर रहे हैं। अब्दुल कलाम और उनके बेटे समेत आठ लोग अब भी इस परंपरा को जीवित रखने की कोशिश कर रहे हैं। अब्दुल बताते हैं, “बाज़ार में प्रतिस्पर्धा बढ़ गई है। चीनी धागों और नकली बनारसी साड़ियों की आमद ने हमारे काम को बुरी तरह प्रभावित किया है। गद्दीदार भी दबाव में हैं, जिससे हमें उचित दाम नहीं मिल पाता।”

बनारस के पीलीकोठी, बड़ी बाज़ार, छित्तनपुरा, लल्लापुरा, बजरडीहा, सरैया, बटलोइया, नक्खीघाट जैसे इलाकों में बुनकरों की बड़ी आबादी बसती है। जियाउल रहमान, कलीमुद्दीन, हाफिज, मोजाम्मिन हसन, टीपू सुल्तान, सगीर, हसीन अहमद, वसीम जैसे सैकड़ों कारीगर सरकारी उपेक्षा का शिकार हैं। उनकी शिकायत है कि सरकार उनके जीवन को संवारने के लिए गंभीर नहीं दिखती।
बनारसी साड़ियों के बड़े कारोबारी सूर्यकांत बताते हैं, “ब्रोकेड, जरदोजी, ज़री मेटल, गुलाबी, मीनाकारी, कुंदनकारी, ज्वेलरी और रियल ज़री की साड़ियों की आज भी भारी मांग है। लेकिन प्योर सिल्क को अब चीन की सस्ती साड़ियों से चुनौती मिल रही है। समझ नहीं आता कि हम क्या करें?”
सरैया की तरन्नुम स्कूल नहीं जाती, क्योंकि परिवार के पास उसकी पढ़ाई का खर्च उठाने की ताकत नहीं है। उसकी मां रानी कहती हैं, “हमारे पास रहने के लिए ठीक-ठाक घर नहीं, पीने को शुद्ध पानी नहीं, दाल-सब्जी जुटाना मुश्किल है।
आमतौर पर लल्लापुरा, अलईपुर और बजरडीहा जैसे इलाकों में रोज़ कमाने-खाने वालों की बड़ी आबादी बसती है। लेकिन पिछले डेढ़ साल में इन मेहनतकश लोगों का जीवन तहस-नहस हो गया है। ये वे लोग हैं जो अपनी मेहनत की कमाई पर निर्भर रहते हैं, सरकारी या गैर-सरकारी खैरात की तरफ़ नहीं ताकते। यही वजह है कि वे किसी राजनीतिक दल की जय-जयकार में दिलचस्पी नहीं रखते, बल्कि उन्हें इस सच्चाई का बखूबी एहसास है कि मौजूदा सत्ता ने समाज में ज़हर घोल दिया है और इसकी सबसे भयानक कीमत मेहनतकश लोगों को ही चुकानी पड़ी है।

बुनकर बहुल इलाका बजरडीहा। यहां रेशमा, निखत, रोजी, रबीना जैसे न जाने कितने चेहरे हैं, जिनकी जिंदगी की रोशनी धीरे-धीरे मंद पड़ती जा रही है। इतने पैसे भी नहीं कि बच्चों को स्कूल भेज सकें। इन मासूमों को अपना भविष्य तक नहीं दिखता। जिन नन्हीं उंगलियों में हुनर छिपा था, वे ज्ञानवापी के हंगामे में कहीं गुम हो गईं। साड़ी कारोबारी एजे लारी की जुबान पर दर्द छलक आता है- “आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक तौर पर पिछड़े बुनकरों को जिसने चाहा, जैसे चाहा, नचाया। हुकूमत ने कभी बुनकरों का दर्द महसूस ही नहीं किया। हर कोई बनारस के इस बेजोड़ हस्तशिल्प को बचाना चाहता है, लेकिन इसके लिए शहर में सुकून चाहिए, न कि बवाल। वरना बुनकरी का यह बेमिसाल हुनर धीरे-धीरे दम तोड़ देगा।”
बनारस का नाटी इमली इलाका- यहां बुनकरों का बड़ा तबका रहता है। वे सिल्क की साड़ियों पर जरी के नायाब डिजाइन उकेरते हैं, जिनकी वजह से बनारसी साड़ी का नाम दुनिया भर में गूंजता है। मगर अब यही बुनकर कहते हैं कि उनका कारोबार चौपट हो रहा है। ज्ञानवापी विवाद ने जख्मों पर नमक छिड़कने का काम किया है। मोहम्मद अहमद अंसारी बताते हैं, “बनारस के आधे से ज्यादा बुनकर पलायन कर गए हैं। अब वे बेंगलुरु की फैक्ट्रियों में तयशुदा तनख्वाह पर मजदूरी कर रहे हैं। बहुतों ने अपना पुश्तैनी काम ही छोड़ दिया। पावरलूम हैं, मगर 12 घंटे की कड़ी मेहनत के बावजूद 400 रुपये जुटाना मुश्किल हो जाता है। बिजली की बढ़ती दरें और महंगाई ने बुनकरों को कटोरा पकड़ने पर मजबूर कर दिया है। बनारस में जहाँ भी जाइए, कोई न कोई बुनकर पान बेचता या पकौड़े तलता मिल जाएगा।”
अहमद अंसारी का कहा सच ही तो है। सरैया के हाजी कटरा में रहने वाले बदरुद्दीन कभी रेशमी ताने-बाने पर सोने-चांदी की साड़ियां बुनते थे। उनके पास पावरलूम थे, हथकरघे थे। लॉकडाउन में सब बिक गए। अब वे टॉफी-बिस्कुट बेचकर पेट पाल रहे हैं। सूफी शहीद इलाके के अजीजुर्रहमान ने बुनकरी छोड़कर आटा चक्की खोल ली है। इब्राहिमपुरा के बुनकर भूख से तंग आकर बिस्कुट और पाव रोटी बेचने लगे। सबकी आंखों में सवाल हैं- हमारे सांसद, हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से, “सालों गुजर गए, उनके वादे जमीनी हकीकत कब बनेंगे? बुनकरों का बुरा वक्त कब खत्म होगा? ये हुनरमंद हाथ हथकरघा छोड़ रिक्शा, फावड़ा या कटोरा क्यों पकड़ रहे हैं?”

अस्सी के दशक तक बनारसी साड़ी उद्योग लाखों बुनकरों को रोजगार देता था। बनारस का नाम इसकी वजह से पूरी दुनिया में था। 2007 तक यहां करीब 5,255 छोटी-बड़ी इकाइयां थीं, जहां सिर्फ साड़ियाँ ही नहीं, ब्रोकेड, जरदोजी, जरी, गुलाबी मीनाकारी, कुंदनकारी, पत्थर की कटाई, बीड्स, दरी, कारपेट, मुकुट वर्क जैसे कई हस्तशिल्प बनाए जाते थे। ये कारोबार बनारस की रीढ़ हुआ करते थे। यहाँ हर साल 7,500 करोड़ रुपये का कारोबार होता था। मगर आज? ज्यादातर इकाइयां बंद हो चुकी हैं, कुछ बंद होने के कगार पर हैं।
उदारीकरण के दौर में लगा ग्रहण
बनारसी साड़ी का चलन 16वीं शताब्दी में गुजरात से बनारस पहुंचा। मुगल शासकों ने इसे सहारा दिया, और दस्तकारी में उनकी झलक दिखने लगी। मगर उदारीकरण के दौर में इस पर ग्रहण लग गया। पॉवरलूम ने दस्तक दी, चीनी सिल्क और सूरत की साड़ियों ने बची-खुची कमर तोड़ दी। फिर नोटबंदी और जीएसटी ने रही-सही कसर पूरी कर दी।
पीएम नरेंद्र मोदी ने बनारसी बुनकरों को उम्मीद बंधाई। 500 करोड़ रुपये की लागत से लालपुर में ट्रेड फैसिलिटी सेंटर बनवाया। मगर वहाँ की साड़ी बुनकरों तक पहुँची ही नहीं। हकीकत यह है कि पहले नोटबंदी, फिर जीएसटी, फिर कोरोना और अब ज्ञानवापी विवाद ने इस उद्योग की चूलें हिला दी हैं। बुनकरी से बुनकर दूर होते जा रहे हैं। और बनारस की गलियों में अब बुनकर नहीं, उनकी बेबसी घूम रही है। बनारसी साड़ियों का वह पुराना जलवा फीका पड़ता जा रहा है। इससे न सिर्फ यह गौरवशाली कला संकट में है, बल्कि बुनकरों की जिंदगी भी अंधेरे में डूबती जा रही है।

कभी अपने हुनर से चमत्कार रचने वाले हजारों बुनकर अब बेरोज़गारी की मार झेल रहे हैं। जिन हाथों में कभी बारीक ज़री के धागे हुआ करते थे, आज वे या तो रिक्शा खींच रहे हैं, या मज़दूरी कर रहे हैं, या फिर भीख मांगने पर मजबूर हो गए हैं।
बुनकर शाहिद अंसारी कहते हैं, “पिछले छह सालों में बुनकरों की हालत बहुत बिगड़ गई है। हमारे पास काम नहीं है, बाज़ार में पड़ा माल वापस आ रहा है, छोटे व्यापारी और कारीगरों को भारी नुकसान हुआ है। हालात इतने बुरे हैं कि कई बुनकर मजबूरी में आत्महत्या कर रहे हैं।”
शाहिद के अनुसार, “पिछली सरकारों की निर्यात नीतियां गलत थीं और पॉवरलूम ने हैंडलूम बुनकरों की कमर तोड़ दी है। हैंडलूम पर काम ज्यादा मेहनत और समय मांगता है, जबकि पॉवरलूम पर उत्पादन तेज और सस्ता होता है। इसी वजह से व्यापारियों ने हथकरघे को छोड़कर पॉवरलूम का दामन थाम लिया है।”
बुनकरों की बदहाली की वजह सिर्फ पॉवरलूम ही नहीं, बल्कि सरकारी नीतियां भी हैं। बिजली कटौती, सूरत में बनारसी साड़ियों की नकल करने वाला कपड़ा उद्योग, पिछली सरकारों की आर्थिक नीतियां, बुनकरों को किसी भी तरह की आर्थिक सुरक्षा न मिलना और बाढ़-सूखे के कारण ठंडे पड़े बाज़ार – ये सभी कारण बुनकरों की दिक्कतें बढ़ाने के लिए ज़िम्मेदार हैं।
बुनकर आफ़ताब आलम अब सरकार से कोई उम्मीद नहीं रखते। हथकरघा छोड़कर अब वह साइकिल पर बिस्कुट बेच रहे हैं। आफ़ताब बताते हैं, “पिछले कई सालों से कोई कायदे का काम नहीं मिला। रोज़ की कमाई 70-80 रुपये भी नहीं हो रही। मज़दूरी भी नहीं मिल रही, क्योंकि बाढ़ और सूखा झेल रहे हज़ारों लोग इस शहर में आकर पहले से ही मज़दूरी के लिए मारे-मारे फिर रहे हैं।”
संस्कृति और रोज़ी-रोटी की जंग
बनारस की गलियों में जब कोई साड़ी खरीदने निकलता था, तो शोरूमों में बैठकर नफ़ासत से तह की हुई साड़ियों को परखा जाता था। ग्राहक के बैठने के लिए कुशन वाली कुर्सियां होती थीं, और बुनकर या दुकानदार चाय-पान की पेशकश करते थे। लेकिन अब हालात यह हैं कि बनारसी साड़ियां गोदौलिया से मदनपुर तक सड़क किनारे बिछी मिलती हैं। दुकानों के भीतर प्रदर्शित होने वाली ये साड़ियां अब खुले आसमान के नीचे मजबूरी और संकट की कहानी कह रही हैं।

इस बार महाकुंभ से लौटने वाली भीड़ ने बनारसी साड़ी उद्योग के हालातों की एक नई तस्वीर पेश कर दी है। लाखों की तादाद में आई भीड़ ने देखा कि बनारस, जो कभी रिवायतों को सहेजकर रखता था, अब अपनी परंपराओं को टूटते हुए देख रहा है। साड़ियों की सड़क पर बिक्री सिर्फ एक व्यापारिक बदलाव नहीं है, बल्कि एक सांस्कृतिक झटका भी है। यह उस शहर के लिए एक चेतावनी है, जो खुद को “जिंदा शहर” कहता आया है।
बुनकरों की दशा पर शोध करने वाली डॉ. मुनीजा खान कहती हैं, “बनारस के बुनकर इतने टूट चुके हैं कि वे अपनी व्यथा भी खुलकर नहीं कहते। कुरेदने पर वे अपने संघर्षों को साझा करते हैं, लेकिन उनकी आंखों में बसी नमी उनके दर्द की गवाही देती है।”
डॉ. मुनीजा बताती हैं, “कोई रिक्शा चलाने को मजबूर हो गया, कोई मज़दूरी करने लगा और कुछ ने तो आत्महत्या तक कर ली। परिवार के परिवार उजड़ गए। यहां तक कि बच्चों की भूख मिटाने के लिए लोगों ने कबीरचौरा और बीएचयू अस्पतालों में अपना खून बेचकर रोटी का इंतज़ाम किया। हालत इतनी खराब हो चुकी है कि लोगों के चेहरे से उम्मीद की आखिरी किरण भी गायब हो चुकी है।”
बनारसी साड़ी को जीआई टैग मिल चुका है और इसे ‘एक ज़िला, एक उत्पाद’ (ओडीओपी) योजना में भी शामिल किया गया है। बावजूद इसके, बुनकरों की स्थिति जस की तस बनी हुई है। “जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘लोकल फॉर वोकल’ को बढ़ावा देने की बात करते हैं, तो बनारसी साड़ी उद्योग के साथ यह नाइंसाफी क्यों?” यह सवाल बनारस के बुनकर बिरादराना तंजीम बारहो के सरदार हासिम सरकार से पूछते हैं। उनका कहना है कि सरकार को इस उद्योग की मदद करनी चाहिए, वरना चीन से आयातित सिल्क और नकली साड़ियों के बढ़ते प्रभाव के चलते प्योर बनारसी साड़ी का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा।
एक्टिविस्ट डॉ.लेनिन कहते हैं, “बनारस के बुनकर आज अपनी विरासत और दस्तकारी को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। बड़े पूंजीपतियों की घुसपैठ से बनारसी साड़ी का परंपरागत कारोबार खतरे में है। यह न केवल बनारस की संस्कृति और हस्तशिल्प के लिए ख़तरा है, बल्कि लाखों बुनकरों की आजीविका पर भी संकट खड़ा कर सकता है। अगर बुनकरों, किसानों और मज़दूरों ने पूंजीवादी साजिशों के खिलाफ़ एकजुटता नहीं दिखाई, तो आने वाले समय में उनकी रोज़ी-रोटी ही नहीं, बल्कि पूरी परंपरा का अस्तित्व संकट में पड़ जाएगा।”

लॉकडाउन के दौरान प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री को बुनकरों की भुखमरी और बदहाली पर बुनकर दस्तकार अधिकार मंच की ओर से भेजे गए पत्र डॉ. लेनिन की ही पहल थे। मुसहरों और बुनकरों दोनों तबकों के बीच सामाजिक-आर्थिक सुधार के कामों पर उनकी संस्था का बराबर अधिकार है, लेकिन वे बुनकरों को लेकर ज्यादा चिंतित हैं।
पावरलूम से बढ़ती प्रतिस्पर्धा
2007 के एक सर्वे के मुताबिक बनारस में तकरीबन 5,255 छोटी-बड़ी हथकरघा इकाइयां थीं, जिनमें साड़ी ब्रोकेड, जरदोजी, जरी मेटल, गुलाबी मीनाकारी, कुंदनकारी, ज्वेलरी, पत्थर की कटाई, ग्लास पेंटिंग, बीड्स, दरी, कारपेट, वॉल हैंगिंग, मुकुट वर्क जैसे छोटे-मंझोले उद्योग थे। इनमें तकरीबन 20 लाख लोग काम करते थे। इनके जरिये करीब 7,500 करोड़ रुपये का कारोबार होता था। इनमें से करीब 2,300 इकाइयां पूरी तरह बंद हो चुकी हैं और बची हुई बंद होने की कगार पर हैं।
औमतौर एक प्योर रेशमी बनारसी साड़ी की लागत न्यूनतम पांच हजार रुपये से लेकर कई गुना तक हो सकती है। इसे बनाने में 15-20 दिन या कई बार ज्यादा समय भी लग जाता है। पावरलूम से एक महीने में कई दर्जन साड़ियां तैयार हो जाती हैं। यहां के मुकाबले में बेहद सस्ती सूरत की साड़ियों ने पूरे बाजार पर कब्जा जमा लिया है। सूरत की नकली बनारसी साड़ी की बढ़ती मांग के चलते पहले से ही बनारसी बुनकर भुखमरी के कगार पर पहुंच गए थे। आज हालात यह हैं कि बनारस के बाजार में ही 90 फीसदी सूरत की नकली बनारसी साड़ी भरी पड़ी है।
तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव की समाजवादी सरकार ने प्रदेश के बुनकरों को 2006 में सब्सिडी के साथ फ्लैट बिजली रेट का तोहफा दिया था। योजना के तहत 0.5 हॉर्सपावर वाले लूम के लिए बुनकर से 65 रुपये चार्ज किया जाता था, वहीं एक हॉर्सपावर लूम के लिए बुनकर से 130 रुपये हर महीने लिए जाते थे। दस साल तक बुनकरों को सब्सिडी का लाभ मिला, लेकिन 2015-16 में योजना हथकरघा व वस्त्रोद्योग विभाग के हवाले हो गई।
बनारस में सितंबर 2017 में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बड़ा लालपुर में 200 करोड़ रुपये की लागत से तैयार हुए ट्रेड फैसिलिटेशन सेंटर का उद्घाटन किया था, तो लगा कि बुनकरों के ‘अच्छे दिन’ आ गए। लेकिन वास्तविकता अलग रही। बनारसी बिनकारी का हाल बताते हुए अर्पिता हैंडलूम्स के मालिक अवधेश कुमार मौर्य कहते हैं, ”बनारसी साड़ियों का मार्केट कम नहीं हो रहा है पर प्रोडक्शन बहुत ज्यादा हो रहा है। मशीनें ज्यादा लग रही हैं।”
”अब कस्टमर को सस्ता चाहिए। सस्ते के चक्कर में लोग अलग-अलग तरह की मशीनों से साड़ी बना रहे हैं, जिस वजह से माल भरा पड़ा है। बड़ी-बड़ी कंपनियों के मालिकों ने अपना कारोबार शुरू कर दिया है, उनकी करोड़ों की मशीनें हैं। वहां तेजी से साड़ियां बन रही हैं, जिससे हमारी साड़ी की कीमत नहीं मिल पाती। बनारस के बुनकर अब खत्म होते जा रहे हैं या पलायन कर रहे हैं।”
बुनकरों के आंसुओं में घुला दर्द
बुनकर राजपथ मौर्य, जो अर्पिता हैंडलूम के लिए काम करते हैं और अयोध्यापुर के पुरई गांव में रहते हैं, कहते हैं, ”नई पीढ़ी अब इस पेशे में नहीं आ रही है। एक समय ऐसा आएगा जब हथकरघा कारीगर आपको बनारस में खोजने पर नहीं मिलेगा। पहले हर आदमी अपने बच्चों को बगल में बैठाकर बनारसी साड़ी बनाना सिखाता था लेकिन अब कोई बच्चा बैठकर नहीं सीखता है। बहुत मेहनत का काम है। आज की पीढ़ी इतने कम पैसे में नहीं कर पाएगी। हम लोगों की मजबूरी थी, तो पूरी जिंदगी इसी में काट दी।”
बनारसी साड़ी उद्योग को हमेशा संरक्षण की जरूरत रही है, लेकिन सरकारी योजनाएं अक्सर कागजों तक सीमित रह जाती हैं। कर्ज़, महंगे कच्चे माल, और ऑनलाइन बाज़ार के दबाव ने बुनकरों को ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है, जहां उनके पास सड़क पर बैठने के अलावा कोई और विकल्प नहीं बचा।
आज एक बुनकर से पूछिए कि वह अपनी साड़ी सड़क पर क्यों बेच रहा है? जवाब मिलेगा-“दुकान का किराया नहीं चुका सकते, व्यापार ठप हो गया है, और घर में चूल्हा जलाने के लिए यही आखिरी रास्ता बचा है।” यह जवाब सिर्फ एक आदमी की मजबूरी नहीं, बल्कि हजारों परिवारों की कहानी है।
आस्था में अवसर
महाकुंभ के पलटवार ने बनारसी साड़ी कारोबार का नक्शा ही बदल दिया है। मऊ समेत पूर्वांचल के कई जिलों में बनने वाली नकली साड़ियों से बनारस के बाजार पट गए हैं। हाल के वर्षों में नकली बनारसी साड़ी का कारोबार तेजी से फल-फूल रहा है। नतीजा, जो श्रद्धालु और पर्यटक बनारसी साड़ी खरीदने के उद्देश्य से बनारस आते हैं, वे धोखाधड़ी का शिकार हो रहे हैं।
बनारस के जंगमबाड़ी मठ के समीप फुटपाथ पर साड़ियों का अंबार लगा हुआ है। वहां मौजूद कुछ युवक बनारसी साड़ी बताकर 200 से 500 रुपये में इन्हें बेच रहे थे। उनकी प्राथमिकता महाकुंभ स्नान के बाद बनारस आने वाले श्रद्धालु थे, जो श्रद्धा और आस्था के साथ इस ऐतिहासिक वस्त्र को खरीदने की इच्छा रखते हैं।
कुछ ऐसा ही नजारा मदनपुरा में भी फुटपाथ पर देखने को मिल रहा है। कुछ बुनकर वहां बनारसी साड़ी के नाम पर नकली साड़ियां बेचते नजर आ रहे हैं। 400 रुपये में प्योर रेशम बताकर पॉलिस्टर और सिंथेटिक धागों से बनी साड़ियां बेची जा रही हैं। श्रद्धालु भारी संख्या में वहां से गुजर रहे थे और उनमें से कई इस ठगी का शिकार हो रहे हैं।
दूसरी ओर, फुटपाथ पर साड़ी बेचने वालों का तर्क कुछ और ही है। सुहैल अहमद जो इन दिनों जंगमबाड़ी के पास फुटपाथों पर बनारसी साड़ियां बेचते हैं। नकली बनारसी साड़ियों की बिक्री पर सफाई पेश करते हे कहते हैं, “सड़कों के किनारे बेची जाने वाली सभी बनारसी साड़ियां नकली नहीं हैं।”
“दरअसल, बनारसी साड़ियों की एक बड़ी समस्या है डेड स्टॉक, यानी वे साड़ियां जो लंबे समय तक बिक नहीं पातीं और गोदामों में धूल फांकती रहती हैं। बड़े व्यापारी इन्हें डेड स्टॉक कहकर नजरअंदाज कर देते हैं, क्योंकि इनमें उनका पैसा फंस जाता है और धीरे-धीरे ये उनके लिए बोझ बन जाती हैं। लेकिन इस बार महाकुंभ के दौरान बुनकरों और साड़ी व्यापारियों ने इस समस्या को अवसर में बदल दिया।”
सुहैल कहते हैं, “महाकुंभ के अवसर पर जब लाखों श्रद्धालु वाराणसी पहुंचे, तो व्यापारियों और बुनकरों ने डेड स्टॉक साड़ियों को सड़क किनारे ठेलों पर बेचना शुरू किया। चौक, मदनपुरा, गोदौलिया, विश्वनाथ मंदिर के आसपास और घाटों के पास छोटे विक्रेताओं ने इन साड़ियों की बिक्री शुरू कर दी है। बनारस आने वाले श्रद्धालु इस पहल को न सिर्फ सराह रहे हैं, बल्कि बढ़-चढ़कर खरीदारी कर रहे हैं।”
सड़क के किनारे साड़ी बेच रहे एक कारोबारी सद्दाम अंसारी कहते हैं, “इन साड़ियों को कम कीमतों पर बेचा जा रहा है, जिससे यह सौदा श्रद्धालुओं के लिए भी फायदेमंद रहा और व्यापारियों के लिए भी। देखते ही देखते करोड़ों रुपये की साड़ियां बिक गईं। इससे बनारसी साड़ी व्यापार को एक नई संजीवनी मिल गई। महाकुंभ में हुए इस सफल प्रयोग ने साबित कर दिया कि सही रणनीति अपनाई जाए, तो डेड स्टॉक की समस्या का हल निकाला जा सकता है।”
“बनारस का साड़ी बाजार चौक, मदनपुरा, लल्लापुरा, पीलीकोठी, बजरडीहा जैसे इलाकों में फैला हुआ है, जहां हजारों बुनकर और छोटे व्यापारी इस उद्योग से जुड़े हैं। महाकुंभ के दौरान डेड स्टॉक की बिक्री से न केवल बड़े व्यापारियों का रुका हुआ माल निकला, बल्कि बुनकरों को भी सीधा लाभ मिला। इस पहल के चलते बुनकरों को नकद भुगतान मिला, जिससे वे अपने घर-परिवार की जरूरतें पूरी कर सके। वहीं, व्यापारियों को नए माल के लिए पूंजी मिल गई, जिससे वे आगे का व्यापार सुचारू रूप से चला सकें।”
सद्दाम बताते हैं, “यदि सरकार और स्थानीय प्रशासन सहयोग करे, तो समय-समय पर ऐसे बाजार लगाए जा सकते हैं, जहां बुनकर और छोटे व्यापारी सीधे ग्राहकों तक पहुंच सकें। इस पहल ने यह भी दिखाया कि श्रद्धालु और पर्यटक भारतीय हस्तशिल्प को लेकर संवेदनशील हैं। यदि सही मंच मिले, तो बनारसी साड़ियों का बाजार और भी आगे बढ़ सकता है।”
असली-नकली साड़ियों की पहचान?
नकली बनारसी साड़ियों से बचने और असली बनारसी साड़ी की पहचान करने के लिए कुछ महत्वपूर्ण बिंदु ध्यान में रखने चाहिए:
छूकर पहचानें – असली बनारसी साड़ी को उंगलियों से छूने पर हल्की गर्माहट महसूस होती है और यह रोशनी में देखने पर अलग-अलग एंगल से हल्का रंग बदलती हुई नजर आती है।
पल्लू की लंबाई – असली बनारसी साड़ी का पल्लू 6 से 8 इंच लंबा होता है, जिस पर बारीक सिल्क के धागों से कारीगरी की जाती है। इसमें अमरू, अंबी और दोमक जैसे पैटर्न उकेरे जाते हैं।
खास पैटर्न और कढ़ाई – जरोक्का पैटर्न असली बनारसी साड़ी की पहचान होती है, जिसमें बारीक जरदोजी का काम सोने और चांदी के रंग वाले सिल्क के धागों से किया जाता है।
अंगूठी ट्रिक – बनारसी सिल्क की असली साड़ी मुलायम होती है, जिसे अंगूठी में से आसानी से निकाला जा सकता है।
जीआई टैग देखें – असली बनारसी साड़ी पर जीआई टैग (Geographical Indication) होता है, जिसे क्यूआर कोड से स्कैन कर साड़ी की प्रमाणिकता जांची जा सकती है।
नकली कारोबार से गहराती चिंता
बनारसी साड़ी, जो कभी रेशम के बारीक धागों में इतिहास, परंपरा और कला को पिरोकर बनती थी, आज बाजार में मिल रही नकली साड़ियों की बाढ़ से अपनी पहचान खोने की कगार पर है। इस संकट को देखकर बनारस के प्रमुख साड़ी कारोबारी गहरी चिंता में हैं। गौरीशंकर धानुका, जो वर्षों से बनारसी साड़ी उद्योग से जुड़े हुए हैं, बेहद चिंतित होकर कहते हैं, “नकली बनारसी साड़ियों का कारोबार अब डेढ़ अरब रुपये से भी आगे बढ़ चुका है। यह न सिर्फ इस उद्योग को बर्बाद कर रहा है, बल्कि श्रद्धालुओं और ग्राहकों के विश्वास को भी तोड़ रहा है। अगर इसे नहीं रोका गया, तो बनारसी साड़ी की पहचान धुंधली हो जाएगी, और आने वाली पीढ़ियां हमारी इस अनमोल धरोहर को सिर्फ कहानियों में ही सुनेंगी।”
तुफैल अंसारी, एक अन्य अनुभवी व्यापारी, हालात पर रोष प्रकट करते हुए कहते हैं, “तीन साल पहले तक यह नकली साड़ियों का कारोबार सिर्फ 50-60 करोड़ रुपये का था, लेकिन अब यह दो अरब रुपये के करीब पहुंच चुका है। ये नकली साड़ियां, जो पॉलिस्टर और सिंथेटिक से बनी होती हैं, असली बनारसी साड़ियों की जगह ले रही हैं। दुकानों पर श्रद्धालुओं और पर्यटकों को असली के नाम पर नकली साड़ियां बेची जा रही हैं, जिससे बनारसी साड़ी की साख पर गहरा असर पड़ रहा है। प्रशासन को जल्द से जल्द इस पर सख्त कार्रवाई करनी चाहिए, वरना यह ठगी बनारसी साड़ी के अस्तित्व को ही निगल जाएगी।”
वाराणसी व्यापार मंडल के वरिष्ठ सदस्य अजित सिंह बग्गा भी इस गंभीर समस्या पर चिंता जताते हुए कहते हैं, “बनारसी साड़ी सिर्फ एक परिधान नहीं, बल्कि बनारस की आत्मा का एक हिस्सा है। इसे बनाने वाले बुनकर अपनी ज़िंदगी इस कला को समर्पित कर देते हैं। लेकिन आज, सस्ते सिंथेटिक और पॉलिस्टर से बनी नकली साड़ियां पूरे बाजार में भर गई हैं। ये ज्यादा दिनों तक नहीं टिकतीं, लेकिन असली के नाम पर ग्राहकों को बेची जा रही हैं। यह सिर्फ एक व्यापारिक धोखा नहीं है, बल्कि बनारसी साड़ी की ऐतिहासिक विरासत पर गहरा आघात है। अगर इस पर जल्द ही कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया, तो वह दिन दूर नहीं जब असली बनारसी साड़ी सिर्फ संग्रहालयों में ही देखने को मिलेगी।”
बनारस के प्रतिष्ठित व्यापारी मुख्तार अहमद और ओवैदुल हक के अलावा अनुज डिडवानिया, शोक जायसवाल, रजनीश कन्नौजिया, मनीष चौबे, दिनेश कालरा, विजय जायसवाल, केदार धन्ननी, संजय अग्रवाल, फैजान अहमद कहते हैं, “बनारसी हथकरघा उद्योग अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। सरकारी उपेक्षा, पावरलूम की बढ़ती संख्या, नकली बनारसी साड़ियों की बाढ़ और नई पीढ़ी की बेरुखी ने इस पर संकट खड़ा कर दिया है। अगर समय रहते इस उद्योग को बचाने के ठोस कदम नहीं उठाए गए, तो वह दिन दूर नहीं जब बनारस की बिनकारी इतिहास का हिस्सा बन जाएगी।”
वरिष्ठ पत्रकार एवं साड़ी के कारोबारी अतीक अंसारी एक गहरी उदासी के साथ कहते हैं, “कभी बनारस की पहचान उसकी संकरी गलियों, पवित्र घाटों और यहां की अनुपम हस्तकला से होती थी। यह शहर अपनी संस्कृति, अपनी परंपरा और अपने अनोखे अंदाज़ पर गर्व करता था। लेकिन अब इन गलियों की फिज़ा कुछ और कहती है। यहां की हवाओं में अब वह अपनापन, वह आत्मीयता, वह पुराना बनारसी ठाठ कम होता जा रहा है।”
“बनारस की गलियों में जब कोई साड़ी खरीदने निकलता था, तो शोरूमों में बैठकर नफ़ासत से तह की हुई साड़ियों को परखा जाता था। ग्राहक के बैठने के लिए कुशन वाली कुर्सियां होती थीं, और बुनकर या दुकानदार चाय-पान की पेशकश करते थे। लेकिन अब हालात यह हैं कि बनारसी साड़ियां गोदौलिया से मदनपुर तक सड़क किनारे बिछी मिल रही हैं। दुकानों के भीतर प्रदर्शित होने वाली ये साड़ियां अब खुले आसमान के नीचे मजबूरी और संकट की कहानी कह रही हैं।”
“इस बार महाकुंभ से लौटने वाली भीड़ ने बनारसी साड़ी उद्योग के हालातों की एक नई तस्वीर पेश कर दी है। लाखों की तादाद में आई भीड़ ने देखा कि बनारस, जो कभी रिवायतों को सहेजकर रखता था, अब अपनी परंपराओं को टूटते हुए देख रहा है। साड़ियों की सड़क पर बिक्री सिर्फ एक व्यापारिक बदलाव नहीं है, बल्कि एक सांस्कृतिक झटका भी है। यह उस शहर के लिए एक चेतावनी है, जो खुद को “जिंदा शहर” कहता आया है।”
अतीक आगे कहते हैं, “क्या यह वही बनारस है जो गंगा की लहरों में शिव की शांति, तुलसी की वाणी और कबीर की मस्ती को संजोए हुए था? या फिर यह बाजार की अंधी दौड़ में खुद को खोता जा रहा है? अगर आपको यकीन नहीं होता, तो एक बार गोदौलिया से मदनपुरा तक निकल जाइए। सड़क किनारे बिछी रंग-बिरंगी साड़ियों को देखिए, लेकिन उनसे ज्यादा उन बुनकरों की सूनी आंखों में झांकिए, जो बिना कुछ कहे बहुत कुछ कह जाते हैं। वे जो अपनी पूरी ज़िंदगी इस कला को संवारने में लगा चुके हैं, आज अपने ही शहर में बेगाने होते जा रहे हैं।”
“बनारसी साड़ियां भले ही सड़कों पर बिछ गई हैं, लेकिन बनारस अब भी जिंदा है। इतना जरूर है कि उसकी धड़कनें धीमी पड़ रही हैं। हर बीतते दिन के साथ उसकी आत्मा पर बाजार की परतें चढ़ रही हैं, मानो कोई उसे उसके ही रंगों से मिटा देना चाहता हो। सवाल यह है कि क्या कोई इसे बचाने की कोशिश करेगा? क्या कोई इन मुरझाती आंखों की भाषा समझ पाएगा? या फिर हम सब चुपचाप इस शहर की पहचान को धुंधलाते देखने के लिए मजबूर हैं?”
(विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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