वाराणसी। उत्तर प्रदेश में बनारस की धूप में तपते किसान, हाथों में तख्तियां थामे, अपने हक की आवाज़ बुलंद कर रहे थे। सरदार भगत सिंह के नारे गूंज रहे थे, और उनके चेहरे पर सालों का दर्द था-वह दर्द, जो ज़मीन छिनने का होता है, जो न्याय की तलाश में दर-दर भटकने का होता है। जौनपुर और वाराणसी के ये चार हजार किसान उस टोल प्लाजा के सामने खड़े थे, जो उनके जख्मों पर नमक छिड़कने जैसा था। सड़क अधूरी थी, लेकिन टोल वसूली पूरी थी। किसान पूछ रहे थे-जिस रास्ते को पूरा किए बिना ही सरकार हमसे पैसे वसूल रही है, क्या वही विकास है जिसकी बात होती है? लेकिन उनके सवाल हवा में गूंजकर लौट रहे थे, जवाब देने वाला कोई नहीं था।
बनारस-आजमगढ़ मार्ग पर सुबह से ही किसान जुटने लगे थे। उनके दिलों में गुस्सा था, लेकिन हाथों में उम्मीद भी थी कि शायद आज उनकी आवाज़ सुनी जाएगी। टोल गैलरी के सामने खड़े होकर वे नारे लगाने लगे—शांतिपूर्ण लेकिन दृढ़। देखते ही देखते पुलिस और प्रशासन वहां पहुंच गए। पहले समझाने की कोशिश हुई, फिर चेतावनी दी गई, लेकिन किसान पीछे हटने को तैयार नहीं थे।
आंदोलन स्थल पर किसानों की भीड़ बढ़ती जा रही थी। उनके हाथों में भारतीय किसान संघ के बैनर-पोस्टर, खेती के औजार थे, चेहरे पर ग़ुस्सा और आंखों में उम्मीद कि शायद अब उनकी आवाज़ सुनी जाएगी। कोई अपने कंधे पर खेती के औजार लिए खड़े थे, तो कोई अपनी सूनी आंखों से सड़क पर ताक रहा था। कुछ किसानों की आंखों में आंसू थे, जिन्हें वे पोंछ भी नहीं रहे थे, क्योंकि अब यह लड़ाई उनके स्वाभिमान की बन चुकी है।

एनएचएआई के अधिकारी किसानों को मनाने पहुंचे, लेकिन किसानों ने स्पष्ट कह दिया कि वे अब बिना किसी ठोस आश्वासन के हटने वाले नहीं। उनकी एक ही मांग है, “हमारा हक़ दो!” किसानों का कहना था कि जब तक यह अन्याय बंद नहीं होगा, वे सड़क छोड़कर नहीं जाएंगे। छह घंटे तक यह संघर्ष चलता रहा-किसानों की जिद और प्रशासन की असहायता का साक्षी बना यह टोल प्लाजा, जहां से रोज़ सैकड़ों गाड़ियां गुजरती हैं, लेकिन किसानों की फरियाद को कोई रास्ता नहीं मिलता।
आंदोलन के दौरान पुलिस और किसानों के बीच झड़प भी हुई। पुलिस ने डीजे बंद कराने की कोशिश की, तो किसानों का गुस्सा और भड़क उठा। महिलाओं ने भी मोर्चा संभाल लिया। उनकी आंखों में आंसू थे, लेकिन हिम्मत कहीं से भी कम नहीं थी। किसानों का कहना था कि जिस ज़मीन को उन्होंने पीढ़ियों से संभाला, जिसे अपने खून-पसीने से सींचा, वही आज उनके लिए बोझ बन गई। सरकार ने कहा कि विकास होगा, लेकिन यह कैसा विकास है जो लोगों को उनकी ही जमीन पर बेगाना कर रहा है?
छह घंटे के इस संघर्ष के बाद पुलिस ने लाठी उठाई। किसानों को खदेड़ने की कोशिश की गई। वे किसान, जो कभी हल चलाते थे, आज पुलिस की लाठियों से बचने के लिए दौड़ रहे थे। कुछ महिलाएं उग्र हो गईं, कुछ ने रोते हुए कहा-“हमारा कसूर क्या है?” किसान नेता अजीत सिंह को बातचीत के लिए बुलाया गया। उन्होंने कहा कि दो दिन बाद जौनपुर में एनएचएआई के अधिकारियों के साथ बैठक होगी। तब तक के लिए क्षेत्रीय वाहनों को टोल मुक्त करने की मांग की गई।
बाद में भीड़ धीरे-धीरे छंटने लगने लगी, लेकिन किसानों की आंखों में वही सवाल बाकी था-क्या उनके संघर्ष का कोई अंत होगा? क्या उनकी ज़मीन के बदले उन्हें उनका हक मिलेगा? या फिर वे यूं ही सरकारी दफ्तरों के बाहर, कोर्ट-कचहरी के गलियारों में अपनी जिंदगी का सबसे कीमती वक्त गंवाते रहेंगे?
बहुत गहरे हैं किसानों के जख्म
दरअसल, यह कहानी सिर्फ एक अधूरी सड़क की नहीं है, यह कहानी उन हजारों सपनों की है जो किसी सरकारी फाइल में दम तोड़ चुके हैं। यह उन किसानों की कहानी है जो सालों से अपने हक के लिए लड़ रहे हैं, कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगा रहे हैं, और हर बार सिर्फ आश्वासनों की धूल झाड़कर लौट आते हैं। वाराणसी से गोरखपुर तक बनने वाले इस फोरलेन हाईवे की नींव किसानों के संघर्ष और उनकी आहों से भरी हुई है।
देश की प्रगति में बुनियादी ढांचे का विकास एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, लेकिन जब विकास की यह प्रक्रिया किसानों की दुर्दशा का कारण बन जाए, तो यह एक गंभीर चिंता का विषय बन जाता है। वाराणसी से गोरखपुर वाया आजमगढ़ जाने वाली सड़क को फोरलेन हाईवे में परिवर्तित करने के लिए साल 2012 में किसानों की भूमि का अधिग्रहण किया गया था।

वाराणसी और आजमगढ़ के किसान मुआवजा पाने में सफल रहे, लेकिन जौनपुर की सीमा में आने वाले तकरीबन 16 किलोमीटर के दायरे में बसे किसान साल 2012 से मुआवजे का इंतजार कर रहे हैं। यह इंतजार एक आम प्रक्रिया नहीं, बल्कि अन्याय, उत्पीड़न और प्रशासनिक लापरवाही की दास्तान बन गया है। जौनपुर के ये किसान अब भी अंधेरे में हैं। जब उनकी ज़मीन ली गई थी, तब उन्हें लगा था कि वे विकास का हिस्सा बनेंगे, लेकिन दस साल से ज्यादा बीत जाने के बाद भी उनके हिस्से सिर्फ मुकदमे, नोटिस और ठगी ही आई है।
किसानों का आरोप है कि उन्हें मुआवजा तो मिला नहीं, बल्कि राष्ट्रीय राजमार्ग-223 के अधिकारियों ने उन्हें कानूनी पचड़ों में उलझा दिया। तकरीबन चार हजार किसानों को हाईकोर्ट, इलाहाबाद में मुकदमेबाजी में फंसा दिया गया है। यह किसानों के लिए एक दोहरी मार साबित हो रही है-एक तरफ वे अपनी भूमि गंवा चुके हैं और दूसरी ओर न्याय की आस में अदालती चक्कर काटने को मजबूर हैं। किसानों के अनुसार, उनकी भूमि का अधिग्रहण तो हो गया, लेकिन जब मुआवजा देने की बारी आई, तो अधिकारियों ने मनमानी शुरू कर दी और न्यायालय में उन्हें घसीट दिया।
हैरत की बात यह है कि जहां किसानों को मुआवजा तक नहीं मिला, वहां अधूरी सड़क पर टोल प्लाजा की तैयारी कर ली गई। जौनपुर के मोढ़ैला में प्रस्तावित टोल प्लाजा को वाराणसी के बलरामगंज, दानगंज में तैयार कर दिया गया। यह कदम किसानों के लिए एक और आघात था। सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि जहां टोल प्लाजा बना है, वहां से मात्र दो किलोमीटर आगे सड़क ही अधूरी है। किसानों का यह भी कहना है कि जब पूरी सड़क बनी ही नहीं, तो टोल प्लाजा लगाने का क्या औचित्य है? यह निर्णय न केवल अनुचित बल्कि किसानों के साथ किए गए अन्याय की पराकाष्ठा है।
अंधी गलियों में भटक रहे किसान
डोभी के रामेश्वर सिंह की आवाज़ में दर्द छलकता है। वह कहते हैं, “हमारी ज़मीन सरकार ने ली, मुआवज़ा देने की बात हुई, लेकिन आज हम अपनी ही ज़मीन के लिए अदालत के चक्कर लगा रहे हैं। बेटियों की शादी तक नहीं कर पा रहे, बीमारियों में इलाज नहीं करा पा रहे। कितने किसान दम तोड़ चुके हैं, लेकिन सरकार को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।”
रामेश्वर कहते हैं, “राष्ट्रीय राजमार्ग-223 के निर्माण के लिए जौनपुर की डोभी तहसील के किसानों की ज़मीन अधिगृहीत कर ली गई, लेकिन जब मुआवज़े की बारी आई, तो उन्हें हाईकोर्ट के मुकदमों में उलझा दिया गया। वाराणसी और आजमगढ़ के किसानों को मुआवज़ा मिला, लेकिन जौनपुर के किसानों के हिस्से में केवल मुकदमे आए। यह अन्याय क्यों? यह भेदभाव क्यों? किसान पूछते हैं, “क्या हमारी गलती सिर्फ़ इतनी है कि हम जौनपुर में हैं?”
मुआवजे की मांग को लेकर किसानों की नाराजगी बढ़ती जा रही है। किसानों का गुस्सा अब उबाल पर है। किसान नेता अजीत सिंह कहते हैं, “डोभी उत्तर प्रदेश के 826 ब्लॉकों में इकलौता ब्लॉक है जहां के किसानों को अपनी ही ज़मीन के मुआवज़े के लिए अदालतों के चक्कर लगाने पड़ रहे हैं। अगर वाराणसी और आजमगढ़ के किसानों को उनका हक़ मिला, तो डोभी के किसानों के साथ अन्याय क्यों?”
“किसानों के विरोध के बावजूद, सरकार उनकी आवाज़ सुनने को तैयार नहीं। जब मछलीशहर के पूर्व सांसद बीपी सरोज ने लोकसभा में यह मामला उठाया, तो परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने इसे ‘न्यायालय में विचाराधीन’ बताकर पल्ला झाड़ लिया। किसानों का आरोप है कि सांसद को यह स्पष्ट करना चाहिए था कि मुकदमा किसानों ने नहीं, बल्कि एनएचएआई ने किसानों के ख़िलाफ़ किया है।”

वाराणसी से गोरखपुर को जोड़ने वाले इस हाईवे के लिए किसानों की ज़मीन ली गई, लेकिन मुआवज़ा नहीं दिया गया। इससे भी बड़ी विडंबना यह है कि अधूरी सड़क के बावजूद, टोल प्लाज़ा बना दिया गया। जब किसानों ने इसका विरोध किया, तो टोल वसूली टाल दी गई, लेकिन मुआवज़े का सवाल अब भी अनसुलझा है।
आर-पार की लड़ाई का ऐलान
आंदोलनकारी किसानों का कहना है कि डोभी का इतिहास त्याग और बलिदान का रहा है। यह वही क्षेत्र है जहां के लोगों ने जलियांवाला बाग हत्याकांड से पहले ही स्वतंत्रता संग्राम में अपने प्राणों की आहुति दी थी। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में डोभी के किसानों ने अंग्रेजों के खिलाफ बढ़-चढ़ कर भाग लिया था। लेकिन आज वही किसान अपने हक के लिए दर-दर भटक रहे हैं। यह विडंबना ही है कि जिन किसानों ने देश की आजादी के लिए बलिदान दिया, वे ही आज अपने अधिकारों से वंचित हैं।
किसान अब आर-पार की लड़ाई के मूड में हैं। उन्होंने चेतावनी दी है कि अगर उन्हें न्याय नहीं मिला, तो 2024 के लोकसभा चुनाव में वे अपनी नाराज़गी ज़रूर दिखाएंगे। डोभी के किसानों ने साफ़ कर दिया है कि वे सांसदों, विधायकों और मंत्रियों को अपने गांव में घुसने नहीं देंगे। “अब नेताओं को हेलिकॉप्टर से आना पड़ेगा, क्योंकि यह सड़क उनके लिए सुरक्षित नहीं रही,” किसानों की आवाज़ में ग़ुस्सा और बेबसी दोनों झलकते हैं।

किसान नेता अजीत सिंह कहते हैं, “अगर टोल टैक्स वसूलने की इतनी जल्दी थी, तो किसानों को कोर्ट में घसीटने की क्या ज़रूरत थी? जब सड़क ही अधूरी है, तो टोल प्लाज़ा क्यों बनाया गया? क्या सरकार किसानों की आय बढ़ाने के बजाय उन्हें कंगाल करने पर तुली हुई है? इस अधूरे हाईवे ने किसानों के ज़ख्म और गहरे कर दिए हैं। जहां टोल प्लाजा खड़ा कर दिया गया है, वहां से दो किलोमीटर आगे सड़क ही नहीं बनी। फिर भी गाड़ियों से पैसे वसूले जा रहे हैं।”
राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण ने पहले टोल प्लाजा मोढ़ैला, जौनपुर में प्रस्तावित था, लेकिन किसानों के विरोध के बावजूद इसे वाराणसी के बलरामगंज और दानगंज में स्थापित कर दिया गया। सवाल यह था कि क्या विकास का मतलब सिर्फ पैसे वसूलना है? क्या सरकार ने किसानों को सिर्फ करदाताओं के रूप में देखा है, उनकी तकलीफों को महसूस करना ज़रूरी नहीं समझा?
डोभी के किसानों ने अब चेतावनी दे दी है कि अगर उन्हें न्याय नहीं मिला, तो वे 2027 के विधानसभा चुनाव में अपनी आवाज बुलंद करेंगे। उन्होंने अपने जनप्रतिनिधियों को भी चेताया है कि वे डोभी आने-जाने के लिए हेलिकॉप्टर का ही इस्तेमाल करें, क्योंकि अधूरी सड़कें दुर्घटनाओं को न्योता दे रही हैं। किसानों ने यह साफ कर दिया है कि वे अब चुप नहीं बैठेंगे और सरकार को उनके अधिकारों की लड़ाई में उनकी आवाज सुननी ही होगी।
किसानों का यह संघर्ष अब सिर्फ़ मुआवज़े की लड़ाई नहीं रहा, बल्कि यह उन चार हज़ार परिवारों की चीख़ बन चुका है, जिनकी आवाज़ दबाने की कोशिश की जा रही है। यह चीख़ सरकार के कानों तक कब पहुंचेगी, यह तो वक़्त ही बताएगा, लेकिन इतना तय है कि जब अन्याय सहनशीलता की हदें पार कर जाए, तो इंसाफ़ की जंग छेड़नी ही पड़ती है।
सुझाव और संभावित समाधान
1-तत्काल न्यायिक हस्तक्षेप: हाईकोर्ट को इस मामले की प्राथमिकता से सुनवाई करनी चाहिए ताकि किसानों को शीघ्र मुआवजा मिले।
2-सरकारी पुनर्वास नीति: सरकार को प्रभावित किसानों के लिए पुनर्वास योजना लागू करनी चाहिए।
3-टोल प्लाजा का पुनर्मूल्यांकन: जब तक सड़क पूरी न हो, टोल वसूली पर रोक लगनी चाहिए।
4-लोकल प्रशासन की जवाबदेही: NHAI और स्थानीय अधिकारियों को जवाबदेह बनाया जाए कि किसानों को उनका हक क्यों नहीं मिला।
5-विकल्पी मुआवजा मॉडल: जिन किसानों को मुकदमों में फंसाया गया है, उनके लिए विशेष राहत योजना लाई जाए।
6-सामाजिक असंतोष: यदि सरकार समय रहते इस गंभीर समस्या का समाधान नहीं करती, तो यह अन्याय न केवल किसानों के जीवन को प्रभावित करेगा, बल्कि सामाजिक असंतोष को भी जन्म देगा।
(विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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