उर्दू विवाद: मोदी-योगी सरकार का सवालों से बचने का षडयंत्र

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19 फरवरी 2025 को उत्तर प्रदेश विधान सभा में प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ ने उर्दू भाषा के बारे में कुछ ऐसा कह दिया जिसके बाद हालत काफी संजीदा हो गया। योगी आदित्यनाथ ने विधान सभा में कहा कि “प्रदेश के मुस्लिम विधायक अपने बच्चों को तो विदेश में पढ़ना चाहते हैं परन्तु उनके अलावा जो मुसलमान जनसंख्या है उसे वह मौलवी बना कर रखना चाहते हैं।” लगे हाथ मुख्यमंत्री ने उर्दू भाषा की तुलना अंग्रेजी से कर दी और अन्य नौकरियों और प्रतिस्पर्धा को भी सीधे तौर पर अंग्रेजी से जोड़ दिया। वहीं आगे बढ़ते हुए प्रदेश मुख्यमंत्री ने यह कहा कि अगर लोग उर्दू पढ़ेंगे तो देश कठमुल्लापन की तरफ बढ़ेगा। मुख्यमंत्री ने कहा कि मदरसों में फंड भी नहीं आ रहा है और समाजवादी पार्टी के नेता उन्हें वहां पढ़ने की बात कह रहे हैं।

समाजवादी पार्टी की सांसद डिम्पल यादव ने योगी आदित्यनाथ को आड़े हाथों लेते हुए उनके प्रदेश के प्राइमरी स्कूलों की दशा के बारे में पूछा और सरकार से पिछले आंकड़े भी प्रस्तुत करने को कहा जिससे पूरे देश को पता चले कि बच्चों का ड्रॉप रेट क्या है। परन्तु क्या यह पहली बार है जब उर्दू भाषा को लेकर भाजपा कार्यकर्ताओं व बड़े नेताओं द्वारा विकृत बयान दिया गया है ?

बीजेपी के तेजस्वी सूर्या ने 2021 में फैब इंडिया के दीपावली के एक एड में ’जश्न-ए-रिवाज’ एक साइनबोर्ड पर होने का भारी विरोध किया और साथ में ही इस्लामोफोबिया बयान भी दिया और कहा कि दीपावली ’जश्न-ए-रिवाज’ नहीं हैं। इससे आगे बढ़ते हुए सूर्य ने कहा कि “ऐसे जानबूझ कर फैलाए जा रहे अब्राहिमीकरण का विरोध करना चाहिए जो हिन्दू पहनावे के विरोध में हैं।” बड़े दुख की बात है कि सूर्य को यह पता नहीं कि पजामा और कुर्ता मुसलमानों के आने से पहले देश में भी था वहीं पजामा न तो संस्कृत का शब्द है और न ही हिंदी का।

आरएसएस का एक पुराना प्रोजेक्ट रहा है कि वह भाषा को धर्म का आधार बनाना चाहती है और समस्त देश पर हिंदी को थोपना चाहती है। वहीं संस्कृत के प्रमोशन पर पूरा बल देती है जो देश के अंदर कभी भी जन भाषा के रूप में विकसित नहीं और हमेशा इसपर ब्राह्मण जाति का एक व्यापक वर्चस्व रहा है। वहीं दूसरी तरफ आरएसएस ने हिंदी भाषा के दम पर एक देश को राष्ट्र बनाने और उसके अंदर एक सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का जबरदस्ती बीज बोने का बहुत लंबा प्रयास रहा है। इतिहास में बाल गंगाधर तिलक ने हिंदी को राष्ट्रीय भाषा के रूप में स्वीकार करते हुए इसकी उद्घोषणा की।

सावरकर पहले इंसान थे जिसने ’हिंदी, हिन्दू , हिन्दुस्तान’ का नारा देते हुए इस बात को स्थापित करने का प्रयास किया था कि भारत हिन्दुओं का राष्ट्र है जिसकी भाषा हिंदी है। यह कारवां आगे बढ़ा और राष्ट्रवादियों के खेमे ने हिंदी को काफी प्रसारित किया, परन्तु इसका यह मतलब कभी भी नहीं था कि हिंदी भाषा से ही हिंदुत्व का प्रसार हो रहा था। बाल गंगाधर तिलक मराठी में तो बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय बंगाली में अपनी रचना से इसका प्रसार कर रहे थे। श्यामा प्रसाद मुखर्जी, जो भारतीय जन संघ के संस्थापक सदस्यों में से थे, उन्होंने हिंदी भाषा को राष्ट्रीय भाषा के रूप में पेश करने का भरसक प्रयास किया परन्तु संविधान सभा में वह सफल भी हो सके परन्तु यह भी एक सच है कि हिंदी भी भारत की स्थाई रूप से सरकारी भाषा के रूप में चुनी गई थी वहीं इंग्लिश को केवल 15 साल के लिए ही प्रशासनिक भाषा के रूप में चुना गया था।

उर्दू की एक खास विशेषता उसका एक गतिमान चरित्र रहा है जहां उसने खुद को स्थिर और अड़ियल रहने के बजाय स्थान के हिसाब से अपने को स्थानीय सीमाओं को ऊपर उठाया है। जिसका सबसे बड़ा उदाहरण दक्कनी के विकास में देखा जा सकता है जहां उर्दू पर तेलुगु भाषा का व्यापक प्रभाव देखा जा सकता हैं। इसी कारण बीच में बीजेपी के कई नेताओं ने बड़ा बवाल किया था जब तेलंगाना के मुख्यमंत्री ने लोकसेवा आयोग की परीक्षाओं में उर्दू भाषा को लाने का आदेश दिया था। दक्कन में उर्दू का इतिहास काफी गहरा और व्यापक रहा है जिसका एक बड़ा कारण उसका केंद्रीय शासन से दूर रहना था जहां पर फारसी का ज्यादा प्रयोग होता था।

वर्तमान सरकार हर उस चीज और हर उस पहलू को नापसंद करती है जो मुसलमानों से संबंधित है। उर्दू से थोड़ा ध्यान हटा कर मजदूरों के कानून पर बात की जाए या किसानों के एमएसपी न मानने को लेकर प्रतिरोध हो या वकीलों पर नियंत्रण हेतु अधिवक्ता अधिनियम में संशोधन का प्रस्ताव हो या महिलाओं को लेकर इनका रवैया हो, इन सबसे यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि यह सरकार एक “ऑल अराउंड अटैक” करना चाह रही है और भटकाव ( डिस्ट्रैक्शन) के लिए मुस्लिम और पाकिस्तान–चीन कार्ड को लगातार खेल रही है। जिससे की पूरे देश का ध्यान मुसलमानों को गाली देने में लगा दे।

(निशांत आनंद स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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