14 फरवरी को जब कांग्रेस वर्किंग कमेटी की ओर से कई राज्यों के प्रभारियों और महासचिवों की सूची जारी हुई थी तो सूची में सबसे नीचे जिस व्यक्ति का नाम अंकित था, वह था बिहार के प्रभारी के रूप में कृष्णा अल्लावरू का। तब तक यही सुनने में आ रहा था कि अल्लावरू, राहुल गांधी के करीबी खेमे के व्यक्ति हैं, लेकिन बिहार की जैसी मंजी हुई राजनीति है, उसमें किसी दक्षिण भारतीय की एंट्री महज औपचारिक खानापूर्ति से अधिक नहीं लग रही थी।
इस घटना के एक माह बाद बाकी के राज्यों का तो कोई अता-पता नहीं है, लेकिन बिहार के सियासी माहौल में बहुत बड़ा उलटफेर ज़रूर हो चुका है। अभी तक चुनावी गणित के लिहाज से राजनीतिक समीक्षक इसी गुणा-भाग में लगे हुए थे कि एनडीए और महागठबंधन में सिर्फ नीतीश कुमार के अलटी-पलटी से ही कोई बदलाव संभव हो सकता है, वर्ना जैसा 20 साल से चल रहा है, वैसा ही आगे भी जारी रहने वाला है।
इस बार प्रशांत किशोर की जन सुराज ज़रूर एक शुरुआती हलचल पैदा करने में कामयाब रही, लेकिन अधिकांश लोग मान रहे हैं कि पिछले विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने नीतीश कुमार के साइज़ को छोटा करने के लिए जो भूमिका चिराग पासवान को सौंपी थी, इस बार उस अधूरे टास्क को प्रशांत किशोर करने में कामयाब रहेंगे।
लेकिन पिछले एक माह से बिहार कांग्रेस में आई नई स्फूर्ति ने एकबारगी सभी स्थापित दलों को चौंकने के लिए मजबूर कर दिया है, जिसमें सबसे अहम भूमिका कृष्णा अल्लावरू की मानी जा रही है। अल्लावरू ने बिहार राज्य प्रभारी की कमान संभालते ही एक के बाद एक कुछ ऐसे फैसले लेने शुरू कर दिए थे, जिससे बिहार में मृतपाय पड़ी पार्टी में जैसे नई कोंपलें फूटने लगी हों।
राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा आम रही है कि लालू प्रसाद यादव बिहार में एक नहीं दो पार्टी चलाते हैं। एक तो उनका अपना सींचा हुआ दल है राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी), लेकिन साथ ही बिहार कांग्रेस क्या करेगी और कांग्रेस में किसे विधायक और सांसद का टिकट मिलेगा, इसके लिए भी लालू प्रसाद की सहमति एक वैधानिक जरूरत बन गई थी।
कई दिनों तक तो समाचारपत्रों और यूट्यूब डिबेट में यही चर्चा चलती रही कि कब कृष्णा अल्लावरू लालूप्रसाद यादव से शिष्टाचार भेंट के लिए राबड़ी आवास जायेंगे। फिर देखते ही देखते खबर चलने लगी कि कांग्रेस का यह पहला नेता है, जो पटना में राजनीतिक जुगाली करने के बजाय जिले-जिले की खाक छान रहा है, लेकिन अभी तक एक बार भी लालू प्रसाद जी से मुलाकात करना ज़रूरी नहीं समझता।
फिर यह कयास लगाये जाने लगे कि देखते हैं कब तक यह नया-नया जोश कायम रहता है, आखिर आना तो वहीं पड़ेगा जहां से बिहार राज्य की राजनीति तय होती है। बिहार कांग्रेस अध्यक्ष, अखिलेश प्रसाद जिनका सियासी सफर खुद लालू प्रसाद के नेतृत्व तले राजद से हुआ, और जो उनके बेहद करीबी माने जाते रहे हैं, की भूमिका ही आखिर में कांग्रेस की दशा-दिशा तय करने जा रही है।
इससे पहले भी कांग्रेस ने कई राज्य प्रभारियों की नियुक्ति की और सभी बारी-बारी से लालूप्रसाद यादव के नेतृत्व में अपना कार्यकाल काट जा चुके थे। लेकिन ऐसा जान पड़ता है कि इस बार न सिर्फ पार्टी प्रभारी अलग है, बल्कि कांग्रेस हाई कमान भी पूरी तरह से राहुल गांधी और पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के हाथ आ चुका है।
यही वजह है कि होली के ठीक बाद 16 मार्च से बिहार में ‘पलायन रोको, नौकरी दो’ यात्रा शुरू हो गई, जिसका नेतृत्व दिया गया उस कन्हैया कुमार को, जिसे लालू परिवार फूटी आँखों बिहार की राजनीति में नहीं देखना चाहता। अभी तक बिहार में कांग्रेस अध्यक्ष, अखिलेश प्रसाद सिंह (सांसद राज्य सभा) के जरिये राजद महागठबंधन को अपनी जकड़ में रखे हुए थी, लेकिन अब तो कांग्रेस खुद को राज्य में स्थापित करने के लिए युवाओं की पदयात्रा निकालने लगी।
तत्काल मीडिया में तरह-तरह के कयास आने लगे, और सूत्रों से खबर निकलने लगी कि कन्हैया कुमार को यात्रा की कमान सौंपे जाने से राज्य में वरिष्ठ कांग्रेसी नाराज हैं। इन विरोधी सुरों में पार्टी अध्यक्ष को भी शामिल बताया गया, हालाँकि अखिलेश प्रसाद पदयात्रा की शुरुआत में शामिल रहे। दो दिन बाद 18 मार्च 2025 को कांग्रेस महासचिव, केसी वेणुगोपाल का एक पत्र आ जाता है, जिसमें बताया जाता है कि अब बिहार में पार्टी अध्यक्ष खड़गे जी ने दो बार के विधायक राजेश कुमार को यह पद सौंपने का फैसला किया है।
बता दें कि राजेश कुमार दलित समुदाय से आते हैं, और ओडिसा के बाद बिहार में राज्य की कमान दलित नेता को सौंपकर कांग्रेस अब वो सब करने जा रही है, जिसको लेकर पिछले डेढ़ साल से राहुल गांधी अपने भाषणों में नई इबारत खींच रहे थे। ऐसा माना जा रहा है कि कांग्रेस बिहार में अपने परंपरागत वोट बैंक (दलित, मुस्लिम और अगड़े समुदाय) को फिर से एकजुट करने के प्रयास में है।
पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पर आरोप लगा था कि गठबंधन में 70 सीटें मांगकर कांग्रेस ने सारा गणित बिगाड़ दिया था। लेकिन जमीनी सच्चाई यह थी कि 25 सीटों को छोड़, शेष 45 सीटें ऐसी थीं जिस पर यदि आरजेडी भी चुनाव लड़ती तो जीतने की गुंजाइश नहीं थी। यह एक तथ्य है, जिसे 2024 के लोकसभा चुनाव में और ज्यादा नजदीक से देखा गया।
ऐसा जान पड़ता है कि कांग्रेस नेतृत्व जिस नए अभियान की शुरुआत राज्यों के स्तर पर करना चाहता था, उसका शुभारंभ हरियाणा, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश जैसे राज्यों के बजाय बिहार से हो रहा है। इसके पीछे कुछ ठोस वजहें नजर आती हैं।
पहला है लोकसभा चुनाव में टिकट वितरण, जिसे यदि महागठबंधन उम्मीदवारों और पार्टियों की क्षमता के अनुरूप करता तो परिणाम राजस्थान, हरियाणा, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश की तरह हो सकता था। लेकिन सभी ने देखा कि कैसे लालू प्रसाद जी ने गठबंधन के सभी दलों को बुलाकर मंच से एकतरफा सीटों की घोषणा कर दी थी। यहां तक कि कई बार के सांसद, पप्पू यादव, जिन्होंने अपनी पार्टी का ही विलय कांग्रेस में करा दिया था, को पूर्णिया सीट देने से साफ़ इंकार कर दिया था।
कांग्रेस को काटो तो खून नहीं वाली स्थिति थी, ऊपर से बिहार कांग्रेस की कमान संभालने वाले अखिलेश प्रसाद तो थे ही। सभी जानते हैं कि पूर्णिया लोकसभा सीट कैसे पप्पू यादव निर्दलीय उम्मीदवार के बतौर जीते, और जिसे इंडिया गठबंधन ने अपना उम्मीदवार घोषित किया था, उनकी जमानत तक जब्त हो गई।
2020 में बिहार में बेरोजगारी के मुद्दे पर तेजस्वी यादव ने जो चुनावी अभियान चलाया था, उसका उन्हें जबरदस्त राजनीतिक लाभ मिला। राजद सत्ता हासिल करने से कुछ कदम रह गई, लेकिन बाद में नितीश कुमार के द्वारा बीजेपी से नाता तोड़ 17 महीने तक जो सरकार चली, उसमें तेजस्वी यादव उपमुख्यमंत्री की भूमिका में अपनी स्थिति को मजबूत कर गये।
लेकिन सत्ता एक बार हाथ से जाने के बाद उनका प्रभाव धीरे-धीरे कमजोर पड़ने लगा, और बिहार की ज्वलंत समस्याओं पर जन सुराज पार्टी और सीपीआईएमएल (लिबरेशन) मुखर होते चले गये। इन दोनों दलों ने बिहार में पदयात्राएं संचालित कीं, लेकिन बिहार के दो प्रमुख दल, भाजपा और आरजेडी दोनों ही जनता से जुड़े ज्वलंत मुद्दों के बजाय अपनी पारी के इंतजार और जोड़तोड़ की बाट जोहते दिख रहे थे।
बिहार देश का सबसे युवा राज्य है, लेकिन रोजगार के मामले में सबसे फिसड्डी है। सरकारी नौकरी से लेकर दिहाड़ी मजदूरी कर किसी तरह अपनी आजीविका कमाने वाले करोड़ों आम लोगों के लिए पिछले कई दशकों से बिहार का राजनीतिक नेतृत्व कुछ भी दे पाने में विफल रहा है। आज इसी मुद्दे को अपना हथियार बनाते हुए कांग्रेस और जन सुराज पार्टी अपने-अपने लिए नया मुकाम बनाने की कोशिश में जुटी हैं।
कांग्रेस के साथ अतिरिक्त फायदा यह है कि राष्ट्रीय स्तर पर राहुल गांधी जातिगत जनगणना, दलितों वंचितों की सत्ता में भागीदारी के मुद्दे पर आरपार की भूमिका अख्तियार किये हुए हैं। बिहार में इसकी शुरुआत कर कांग्रेस बसपा के बिखराव को हिंदी के दो प्रमुख राज्यों में अपने भीतर समेट एक मजबूत ताकत के रूप में सामने आने की कोशिश में है।
कांग्रेस के इस नए कलेवर की शुरुआत बिहार से हो रही है, जो यदि एक चौथाई भी सफल रही तो कांग्रेस इसे अपने विभिन्न राज्य संगठनों में भी लागू कर सकती है। पिछले 3 दशक से बिहार कांग्रेस को लालू भरोसे छोड़ देने से जहां कांग्रेस का कोई अस्तित्व नजर नहीं आता था, आज एक दक्षिण भारतीय कृष्णा अल्लावरू के मजबूत इरादे के चलते देखते ही देखते राजेश कुमार, पप्पू यादव और कन्हैया कुमार के साथ कांग्रेस में युवा नेताओं का एक छोटा जमघट इकट्ठा हो चुका है, जिसे तारिक अनवर जैसे वरिष्ठ सांसद भी समर्थन दे रहे हैं।
देखना है यह कवायद भविष्य में क्या रंग लाती है? कांग्रेस आलाकमान का इतिहास अभी तक एक कदम आगे, दो कदम पीछे वाला ही रहा है, जिसने धर्मनिरपेक्षता से लेकर केंद्रीय सत्ता में बने रहने के लिए अनेकों बार क्षेत्रीय दलों ही नहीं पार्टी के भीतर के क्षत्रपों के सामने आत्मसमर्पण का नमूना पेश किया है। क्या इस बार भी ऐन मौके पर जाकर पार्टी नेतृत्व ब्लिंक करता है या वास्तव में एक कदम पीछे, लेकिन दो कदम आगे की ओर मजबूती से बढ़ाता है?
(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)
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