NRC

नाम में ही सब कुछ रखा है, लेकिन आप का नाम कहां है?

आपके कागजों में दादा-दादी, नाना-नानी के नाम में थोड़ा सा अंतर या अलग नाम आपको यातनागृह में डाल देगा। रमुवा और रामू ही राम सिंह या राम लाल/राम प्रसाद है, या रामलाल, फकीरे, फकीर चन्द्र/चंद है यह आज आप नहीं जान सकते।

आप ऐसे ही हजारों, लाखों, करोड़ों रमुवा, पदुवा, धनुआ, नत्थू, छिद्दा पिद्दा, रमुली, जसुली नथिया, बुंदिया, बुल्ले, कीकर, झोंटू, दुल्ला, गुल्ला, बेलू को नहीं जानते। आप जान ही नहीं सकते, क्योंकि ये प्राणी जिसके नाम चुनाव सूची या अन्य दस्तावेजों में जो दर्ज हैं, वह वो नहीं होते हैं जो नाम लिखे हैं, उनके नाम वो हैं जिसे भारत सरकार का चुनाव आयोग और सरकारी सिस्टम नहीं जानता।

दुर्भाग्य से ऐसी ही दस्तावेजी भूलों और गलतियों के आधार पर नागरिकता संशोधन का भरत नाट्यम चलाया और दिखाया जा रहा है। इस पर सब नाचने के लिए बाध्य किए जा रहे हैं। कुछ नाच रहे हैं कुछ नाचने के लिए तैयार हैं।

एनआसी और नागरिकता के मुद्दे पर हो रहे हंगामे के बीच अनेक विचार आते रहे। एक विचार यह था कि क्या होगा देख लेंगे, लेकिन जब अगली पीढ़ी का ख्याल आता तो उलझन होती, कागज वागज देखने का अब मन नहीं करता।

इस विवाद के बीच पहले मेरा एक बच्चा, जो आज की परिभाषा में एक विख्यात विश्वविद्यालय में (ग्रेजुएशन के बाद आगे एमटेक) उच्च शिक्षा ग्रहण कर रहा है, वह आया हुआ था, और नागरिकता कानून को लेकर बहुत गुस्से में था। आमतौर पर वह अपनी पढ़ाई के अलावा अन्य मामलों में खामोश रहता है, लेकिन इस मामले को लेकर बेचैन था।

बातचीत में उसने बताया कि आधार कार्ड में गलत नामों का इंदराज का रेट 5-8% है, और चूंकि आधार को नागरिकों की पहचान से जोड़ने का प्रोपगंडा खूब हुआ था, इसलिए अधिकांश नागरिकों ने अपने आधार कार्ड बनवा लिए हैं, यदि उसमें उनके नाम गलत इंदराज हुए होंगे तो वो कहां जाएंगे… डिटेंशन सेंटर, अभी तक जो आसाम का अनुभव है, उसको देख कर यही लगता है, जहां बड़ी संख्या ऐसे लोगों की हैं, जिनके डाक्यूमेंन्टस के नाम में अंतर था।

मैं एकदम चकरा गया, और मुझे 25-30 साल पहले वोटर सूची और वोटर आईडी में दर्ज हुए नाम का प्रकरण याद आ गया। लेख के आरंभ में मेरे सवाल का यही आधार था।

यदि आप के पास 25-30 साल पहले वाली वोटर सूची होती तो आप किसी भी मुहल्ले में मकान नंबर मिलने के बाद भी उस व्यक्ति को नहीं ढूंढ पाते, मकान में पहुंच भी जाते तो आपको अपने पर और सरकारी अमले की नालायकी पर खीज और गुस्सा आता। मेरे बच्चे ने तो आधार कार्ड की गलती होने का औसत 8% बताया, मगर वोटर आईडी में यह औसत इससे कहीं अधिक है।

मैंने अपने शहर की मिलीजुली आबादी के एक मतदान केंद्र की लगभग 2100 मतदाता सूची का जो अवलोकन किया उसे देखकर यही लगता है कि एनआरसी लगने पर देश के नागरिक एक बड़े संकट में फंसने वाले हैं। इसमें मतदाताओं के नाम में गलती का प्रतिशत 14-18 फीसदी है।

तो कुछ देश प्रेमी जो लगातार राष्ट्रीय स्तर पर एनआरसी का समर्थन कर रहे हैं, उन्हें बताते चलें कि आसाम का अनुभव बताता है कि वहां तीन करोड़ आबादी में से 40 लाख लोग नागरिकता रजिस्टर से बाहर हो गए थे, पुनः वेरीफिकेशन में जिनकी संख्या बाद में 19 लाख रह गई थी, (इस अवधि में लोगों को कितनी मानसिक पीड़ा होगी इसकी कल्पना करना मुश्किल है।)

इस आधार पर पूरे देश की कैसे कम 20 प्रतिशत जनसंख्या अर्थात (20-30 करोड़), बुरी तरह पीड़ित होगी। जिसमें सभी धर्मः और जाति के लोग शामिल होंगे। ऐसा नहीं कि कोई धर्म विशेष के लोग ही परेशान होंगे। और जो जितना गरीब होगा, और सुदूर क्षेत्र का निवासी होगा वह उतना ही पीड़ित होगा। जरा कल्पना करें कि पर्वतीय या बीहड़ इलाके में रहने वालों को जिला या ब्लॉक मुख्यालय में एनआरसी में नाम जुड़वाने के लिए कितने चक्कर लगाने पड़ेंगें। और यदि नहीं हुआ तो कितनी ज़लालत झेलनी पड़ेगा।

यह उन लोगों से पूछिए जिन्हें किसी सरकारी योजना का लाभ लेने के लिए अनिवार्य रूप से बैंक खाता खोलने के लिए अनेक बार अपने घर से बैंक शाखा तक 20-20 किमी पैदल चक्कर लगाने पड़े थे, क्योंकि हमारा अनुभव है कि बैंक के साहब गरीबों का बैंक खाता तक एक ही दिन में आसानी से नहीं खोलते। और यह तो एनआरसी जैसी भारी भरकम प्रक्रिया है साहब। उत्तराखंड के संदर्भ में जान लें कि यहां कम से कम 20 लाख लोग बुरी तरह पीड़ित होंगे।

इससे पहले कुछ तथ्य जानना जरूरी है, जिनमें कि अभी भी हमारे देश में वास्तविक साक्षरता और आंकड़ों की साक्षरता में बड़ा अंतर है और तीन दशक पहले जब वोटर आईडी शुरू की गई थी तो और भी बुरा हाल था। पढ़े-लिखे और अध्यापन जैसे व्यवसाय में जो लोग हैं उनकी भाषा वर्तनी की शुद्धता पर भी सवाल है। मतदाता या आधार कार्ड बनाने वाले सभी धर्मों/भाषाओं की गूढ़ता/बातों/रस्मों और प्रतीकों को जानते हों यह जरूरी नहीं, यही कारण है कि प्रमाण पत्रों और दस्तावेजों में लिखे नाम उनके वास्तविक नामों से भिन्न हो गए हैं।

फिर जागरुकता का अभाव हर काल में रहा है। यहां तो पढ़े-लिखे भी बात समझने के लिए तैयार नहीं होते। हिंदी में नाम की अशुद्धियों के अतिरिक्त अंग्रेज़ी में दिए नाम में और भी गलतियां देखी गई हैं।

मतदाता सूची में और अन्य दस्तावेजों में ब, भ, स श, अ, ह त, थ, आधा त, र, स श न, ह, के प्रयोग की भयंकर अशुद्धियां शामिल हैं। नाम में गलत शब्द के प्रयोग से धर्म का बोध तक बदलता देखा गया है। मुस्लिम नाम कफील के हिंदू नाम कपिल बनने में देर नहीं लगती। इसी तरह मुस्लिम नाम निशात, बदलते बदलते निशाद हो जाता है। कतील नाम कातिल हो जाए कह नहीं सकते। गुरमित ही गुरुप्रीत है, यह सिद्ध करना आसान नहीं होगा।

पर्वतीय क्षेत्रों में ‘त्र’ अक्षर से अनेक नाम खूब प्रचलित हैं, त्रिभुवन, त्रिलोक, त्रिलोचन, त्रिपुरारि आदि आदि। यह शब्द कम से कम तीन अन्य तरह से दस्तावेजों में मिलता है, जैसे, तिरलोक, तिलोक, तिरिलोक/तिरीलोक। इसी तरह आधे अक्षरों से युक्त शब्दों के एक से अधिक रूप हैं। देवेन्द्र, देवेन्द्रा, देविन्दर, देवेन्दर, चन्द्र कब और कैसे चन्दन हो जाए या चन्द्रा हो जाए कहा नहीं जा सकता।

इसी तरह एक मुस्लिम नाम ‘इश़्हाक़’ मतदाता सूची/दस्तावेजों मैं कैसे कैसे लिखा गया है इसकी बानगी देखिए, ईशाक, इशाक, इश़ाक, इशहाक, इश्हाक, ईश़हाक, ईश़्हाक। इसी तरह ईश्वर शब्द भी अनेक रूपों में दस्तावेजों में मिल जाएगा।

परेशानी यह है कि वर्तमान समय में कम्प्यूटर की मूल भाषा अंग्रेजी होने के कारण आपरेटर कैसे लिखता है, जो कि आपके मूल दस्तावेज से भिन्न है, इसे अच्छे-अच्छे पढ़े लोग नहीं जान पाते हैं। अशिक्षित और कम जानकारों के लिए यह सब बहुत ही मुश्किल है।

हिंदी से रोमन या अंग्रेजीकरण करने का कोई मानक तय नहीं है। (यदि होगा तो उसकी जानकारी नहीं है और न व्यवहार में ऐसा हो सकता है।) हिंदी टाइपिंग में वर्तनी की अशुद्धियों और भूलों को सुधारने का न तो कोई नियम है और न उसे सुधारने की कोई स्वतः प्रक्रिया ही अस्तित्व में है।

दस्तावेजों में गलतियों से फौजियों/फौजी परिवारों को सर्विस के दौरान और रिटायरमेंट के बाद अपने बच्चों के नाम में फर्क से होने वाली परेशानी से भटकते देखा है। बैंक एकाउंट से लेकर स्कूल में दाखिले तक में परेशानी आती है। ऐसे में यदि दादा, नाना के मूल नामों में अंतर आया तो एनआरसी में नागरिकता सिद्ध करना आसान नहीं होगा। आसाम में ऐसे लोगों का बहुत बड़ा प्रतिशत है।

एक सार्वजनिक कंपनी में प्लेसमेंट और ट्रेनिंग का कार्य देखते हुए और बाद में संस्थागत कार्य करते हुए नामों में बहुत गलतियां मिलीं। हिंदी और अंग्रेजी के नाम में बहुत अंतर से बखेड़े होते हुए देखे हैं। इसके कारण लोगों के बहुत काम अटके। वह या तो नहीं हुए या फिर देर से हुए। नवराष्ट्रवाद के काल में ऐसा भी हुआ कि बच्चों के स्कूलों में एडमिशन और परीक्षाओं में प्रवेश में भी आधार कार्ड के और दूसरे दस्तावेजों में दर्ज नामों के अंतर के कारण परेशानी और झंझट हुए।

हमारे समय में हिंदी वर्णमाला के साथ बारहखड़ी एक आवश्यक अभ्यास था, ताकि शब्द लिखने में और वाक्य विन्यास आसानी हो। अब ऐसा नहीं होता। बात मजाक में की जाती है कि हिंदी में बीए, एमए करने वाला हिन्दी की 10 पंक्तियां शुद्ध नहीं लिख सकता, यही हाल अंग्रेजी का भी है। ऐसी स्थिति में यदि एनआरसी समर्थक भी जब अपने या अपने परिवार के सदस्यों के नामों को सही करने के लिए लाइन लगाएंगे तो कितना श्रम उर्जा और धन की बर्बादी होगी इसको सोचकर सिहरन होती है।

आसाम का अनुभव है कि वहां लोग चार साल तक पगला गए थे। हर परिवार का हजारों रुपये अनावश्यक इसमें लगा था। 16000 करोड़ रूपये यदि सरकारी पैसा खर्च हुआ है तो वह भी देश का पैसा बर्बाद हुआ है। एक अध्ययन के अनुसार एक आसामी का एनआरसी रजिस्टर में अपना नाम दर्ज/वेरीफाई कराने में औसतन 19000 रुपये खर्च हुआ है। कल्पना करें कि पूरे देश में कितनी बड़ी बर्बादी होने जा रही है।

इस स्थिति की गंभीरता को इस तरह समझें कि किन्हीं लोगों के पिता/बुजुर्गों के नाम भूमि आदि के दस्तावेजों में रामू, दीनू, नथुवा, बलवन्ता लिखा है जबकि उनके दस्तावेजों में क्रमशः राम सिंह या रामलाल, रामप्रसाद, दीनानाथ, दीनदयाल, और बलवन्त सिंह है तो उन्हें बहुत कुछ सिद्ध करना पड़ सकता है। उदाहरणार्थ रामू क्या वास्तव में तुम्हारे बाप/बुजुर्ग थे।

यह जान लें कि अभी तक दस्तावेजों तक में अशुद्ध या देशज/घरेलू नामों का प्रयोग खूब हुआ है और होता रहा है। अशिक्षित बुजुर्गों द्वारा दस्तावेजों में खूब घरेलू नामों का प्रयोग होता था। स्कूल में दाखिले के समय यह नाम कुछ का कुछ हो जाता था। वैसे यह बिगड़ भी जाता था।

जिन लोगों ने अपने पिता के नाम दस्तावेजों में आधे-अधूरे और देशज नामों से जरा भी अलग रखे हैं, या स्कूल में मास्साहबों ने “सुधार” दिए हैं, ठेंगा सिंह एक दस्तावेज में ठाकुर सिंह हो सकते हैं, लेकिन दस्तावेज में दोनों एक ही हैं यह सिद्ध करना मुश्किल हो जाएगा। ऐसे लोग जान लें कि उन पर बड़ी आफत आने वाली है। यह नाम रमुवा, भिमुवा, जसुली, परूली से लेकर छिद्दा, छिद्दू और ननकू तक हो सकते हैं।

जैसे आजकल के बहुत से मां-बापों तक को यह पता नहीं होता कि उनका मुन्ना, पिंकी, गुड्डी, दस्तावेजों में क्या हैं। वैसे अब पप्पू कार्की और गुड्डी अधिकारी भी होते हैं। ऐसे में सौ साल पहले की स्थिति की कल्पना करें। ध्यान रहे, स्कूल जाने वाले और हाईस्कूल तक पहुंचने वाले बहुत से बच्चे अभी भी खानदान में पहले पहले होते हैं, यानी की उनके मां बाप और बुजुर्गों ने इससे पहले स्कूल का मुंह नहीं देखा होगा।

अब जरा एक और तकनीकी पक्ष देखें। एनआरसी प्रक्रिया में हर भारतीय की नागरिकता संदिग्ध मान ली जाएगी, आपको लाईन लगाकर यह सिद्ध करना होगा कि आपका जन्म 1972 से पहले भारत में हुआ है और यहीं रहते थे, यदि उसके बाद हुआ है तो आपके माता पिता/दादा दादी का जन्म उस अवधि से पूर्व भारत में हुआ था और वह यहां रह रहे थे।

इसके लिए आपके पास ऐसा दस्तावेज होना चाहिए। जन्म पंजीकरण का कानून को लागू हुए अभी जुमा-जुमा आठ दिन हुए हैं, लेकिन आपको एनआरसी के लिए दशकों पुराने अपने बुजुर्गों का जन्म प्रमाण चाहिए होगा।

इस प्रक्रिया में यह बात समझ लें कि नाम लिखित में सही होना चाहिए और उस नाम से आपका या आपके पिता या माता का नाम मिलना चाहिए, या संबंध स्थापित होना चाहिए।

इस समय यह भूल जाएं कि भारत में बड़ी संख्या में अशिक्षित, भूमिहीन, आदिवासी, घुमक्कड़ खानाबदोश, बिना मकान के इधर-उधर या खुले आसमान के नीचे फुटपाथ में रहकर गुजर बसर वाले करोड़ों लोग हैं, जिनके पास अपना या अपने बुजुर्गों के जन्म का कोई प्रमाण नहीं होता। यदि बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं कि उनके पास अपने बुजुर्गों के जनम की लिखित सनद है तो “वह भी” समझ लें कि उसमें से 25% पर आफत आने वाली है, क्योंकि भूमि/ आदि के दस्तावेजों में 25% अशुद्धियां तो मिलनी हैं।

यदि किसी के बुजुर्ग के नाम में अशुद्धि मिली तो बुजुर्ग का नाम तो ठीक होने से रहा उसे ही अपने और अपने बच्चों के नाम उसी तरह शुद्ध कराने पड़ेंगें। सामान्य रूप से से समझ लें कि कि यदि आपके बुजुर्ग का नाम जो कुछ है वैसा ही आपके दस्तावेजों में होना चाहिए।

आप अपने बच्चों या अपने आधार कार्ड का नाम सुधारना चाहते हैं तो अब इसका आसान नहीं है। आधार कार्ड में नाम सुधार की प्रक्रिया बहुत कड़ी और सीमित कर दी गई है। पिछले वर्ष तक यह हर सेंटर पर आसानी से हो जाया करती थी। फिर आप अभी अपना या बच्चों के नामों में सुधार जैसे-तैसे कर भी लें (जो अब आसान नहीं हैं) तो अपने दादा नाना का नाम कैसे ठीक करेंगे?

ऐसे में सबसे बड़ी समस्या दलितों, आदिवासियों, खानाबदोशों और प्रवासी लोगों की होने जा रही है, जिनके खुद के प्रमाणपत्र नहीं होते वह अपने बाप दादाओं के कागजात कहां से लाएंगे।

दलितों के साथ तो यह भयानक मजाक है, क्योंकि अभी हाल तक उन्हें नाम रखने का अधिकार नहीं था, न ही उनका नामकरण होता था और न उनकी जन्मपत्री बनती थी। यहां तक यदि किसी दलित बच्चे का नाम ढंग का रख भी दिया गया तो उच्च वर्ग उस नाम को बिगाड़ देता था। रामलाल का रामू और रमुवा इसी तरह हो जाता था। 

बेहद गरीबों, ग्रामीणों और प्रवासियों के सामने दस्तावेज सुरक्षित रखने का संकट भी रहा है, वह वर्षा, बाढ़, प्राकृतिक आपदा, आग और अपने लगातार बदलते प्रवास में अपने सीमित कागज भी सुरक्षित कैसे रखें। उत्तर भारत में विशेषकर उत्तराखण्ड और हिमाचल में घुमन्तु वनवासी गूजर इसी समस्या से परेशान हैं। 

यह जान लें कि इस प्रक्रिया में पूर्व राष्ट्रपति फखरुद्दीन अहमद और आसाम की पूर्व मुख्यमंत्री अनवरत तैमूर और कारगिल का हीरो फौजी सनाउल्ला सेना अधिकारी ही नहीं परेशान हुए हैं, लाखों शर्मा, वर्मा और सुन्दर, चन्दर भी परेशान हुए हैं।

इस्लाम हुसैन
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं और काठगोदाम नैनीताल में रहते हैं।)

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