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घातक नशे के लिए क्यों नहीं है कोरोना जैसी सरकारी सक्रियता?

कोरोना संक्रमण आज महामारी के रूप में आ खड़ा हुआ है। दुनिया भर के देशों की सरकारें इसकी रोकथाम के लिए हर संभव कदम उठा रही हैं। उठाने भी चाहिए। किसी भी सरकार द्वारा नेकनीयती से जनहित में उठाये गए किसी भी कदम को आम जन का सहयोग भी मिलता है और मिलना भी चाहिए। भारत और सभी प्रदेशों की सरकारों ने कोरोना संक्रमण को रोकने के लिए अनेकों कदम उठाए, जिनकी तारीफ होनी चाहिए और हो भी रही है। इन्हीं कदमों की बदौलत भारत में कोरोना संक्रमण अन्य कई देशों के मुक़ाबले काफी हद तक नियंत्रण में है।  

उक्त संक्रमण की वजह से भारत में मरने वालों का आंकड़ा 3 या 4  के आसपास है। यहां यक्ष प्रश्न यह है कि भारत विशेषकर उत्तर भारत और उसमें भी केवल पंजाब में एक महामारी गत कुछ वर्षों में हज़ारों जवान ज़िंदगियाँ ही नहीं लील चुकी बल्कि अनेकों परिवार तबाह कर चुकी है, लेकिन क्या सरकारों को यह महामारी एक बड़ी अलामत नहीं लगती अथवा सरकारी नियत में खोट है? जी ! मैं बात कर रहा हूँ उत्तर भारत विशेषकर पंजाब में गत कई वर्षों से फैली सिंथेटिक नशे ( चिट्टे ) की महामारी की।  

एक अनुमान के अनुसार पंजाब में किसी भी बीमारी से मरने वालों की संख्या से अधिक युवा मौतें केवल नशे की ओवरडोज से हो चुकी हैं। जो एचआईवी, काला पीलिया जैसे रोगों से ग्रस्त हो गए हैं, वो अलग ! इसके आलावा जिन युवाओं ने इस ना-मुराद नशे के कारण अपनी प्रजनन शक्ति खो दी सीधे शब्दों में जो नपुंसक हो गए, उनका तो कभी आंकड़ा भी नहीं मिल पाएगा। अगर सरकारों की इच्छा शक्ति हो? जैसा कि कोरोना संक्रमण के मामले में दिखाई दी, तो इस सिंथेटिक नशों पर अंकुश लगाना तो कोई बड़ी बात ही नहीं लेकिन कोरोना और चिट्टे के मामले में सरकारी अथवा प्रशासनिक इच्छा शक्ति में 9 और 99 का अंतर क्यों ?

वे कौन से कारण हैं जिनकी वजह से हज़ारों युवकों की मौत भी सियासी अथवा प्रशासनिक हृदयों को पत्थर मूर्त किए हुए है ? और यही हृदय कोरोना पर क्यों कर पिघलते हुए नज़र आ रहे हैं ? क्या इन सब के पीछे सियासी, प्रशासनिक एवं ड्रग माफिया के केवल आर्थिक हित ही हैं अथवा कुछ और कारण भी हो सकते हैं ? कोरोना से पंजाब में एक 70 वर्षीय वृद्ध की मौत होने पर सरकार और प्रशासन एक टांग पर खड़ा हो गया। मृतक के पूरे गाँव की नाकाबंदी कर दी गई। 

गाँव के एक एक व्यक्ति पर नज़र रखी जा रही है। लेकिन पंजाब में सिंथेटिक नशे के कारण हज़ारों युवकों की चिताएं जलने के बाद भी ऐसी प्रशासनिक सक्रियता क्यों नहीं देखने को मिली ? क्या यह भय से उपजी हुई सक्रियता तो नहीं ? शायद सियासत और व्यवस्था को लगता हो कि चिट्टे की महामारी से उनको अथवा उनके परिवार को कोई खतरा नहीं। लोग मरते हैं तो मरें। लेकिन कोरोना किसी किलेबंदी का मोहताज़ नहीं है, यह सभी व्यवस्थाओं को धता बता, बिना भेद-भाव गरीब-अमीर, राजा-रंक के घर में सेंध लगा सकता है। इस प्रशासनिक अति सक्रियता के पीछे यह भय भी तो एक कारण नहीं?   

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। पंजाब के कपूरथला में रहते हैं।)

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