आज के इंडियन एक्सप्रेस में फ्रंट पेज पर दो खबरें हैं। जो अपने तरीके से चुनाव आचार संहिता की धज्जियां उड़ा रही हैं। पहली खबर है पीएम मोदी ने रूस के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति पुतिन से बात की और उन्हें बधाई दी। और फिर उसी के साथ उनकी यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की से भी बातचीत हुई। खबर में आगे बताया गया है कि जल्द ही यूक्रेन के विदेश मंत्री भारत की यात्रा पर आने वाले हैं। और पूरे मामले को इस तरह से पेश किया गया है मानो मोदी दोनों देशों के बीच जारी युद्ध में कोई महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले हैं। जबकि ऐसा कुछ नहीं है।
इसका एकमात्र मकसद इस कवायद के जरिये इलेक्शन में वोट हासिल करना है। यह भारत की किसी विदेशी पहल के मकसद से नहीं बल्कि मोदी की घरेलू जरूरत के लिहाज से किया गया है। ऐसे समय में जबकि देश में आचार संहिता लगी हुई है और पीएम मोदी एक कामचलाऊ प्रधानमंत्री हैं तब क्या उनको इस तरह का अधिकार है? कतई नहीं। यह आचार संहिता का खुला उल्लंघन है।
दूसरी खबर और घटना तो इससे भी बड़ी है। इसमें केंद्रीय ग्रामीण मंत्रालय ने मनरेगा के तहत मिलने वाली मजदूरी की दर को बढ़ाने का फैसला किया है। आचार संहिता के चलते सरकार इस फैसले को लागू नहीं करा सकती थी लिहाजा उसने चुनाव आयोग का सहारा लिया और चुनाव आयोग ने उसे हरी झंडी दे दी। यह इतिहास में शायद पहली बार हो रहा हो कि सत्तारूढ़ पार्टी को मदद पहुंचाने के लिए चुनाव आयोग इस हद तक गया हो।
चुनाव के दौरान जनता को अपने सरकारी फैसले से प्रभावित करने की कोशिश आचार संहिता के उल्लंघन के दायरे में आती है। दिलचस्प बात यह है कि इस उल्लंघन में वह संस्था ही शामिल है जिसको इस पर रोक लगानी थी। ऐसे में अगर विपक्षी राजनीतिक दल शिकायत करें भी तो किससे?
हद तो तब हो गयी जब चुनावी तारीखों की घोषणा के तुरंत बाद पीएम मोदी ने अपने मंत्रियों को नौकरशाहों से मिलकर अगले 100 दिनों का प्लान तैयार करने को कहा। पहली बात तो कोई कामचलाऊ सरकार को यह अधिकार ही नहीं हासिल है कि वह इस तरह की किसी योजना पर काम करे। क्योंकि अब उसे चुनाव के नतीजे का इंतजार करना है। और इस बात की संभावना भी बरकरार है कि उसकी सरकार न बने।
बल्कि कोई विपक्षी या फिर कोई दूसरी सरकार बने। ऐसे में इन योजनाओं का क्या मतलब होगा? और वैसे भी सरकार जब अस्थाई हो गयी है तब उसे इस तरह के किसी नीतिगत फैसले में जाने का कोई अधिकार ही नहीं है। लेकिन मोदी तो मोदी हैं। उन्हें न तो नियमों का ख्याल है और न ही कानून और परंपराओं का। उन्हें तो ऐन-केन प्रकारेण चुनाव को जीतना है। और कामचलाऊ सरकार को भी चुनाव प्रचार के हथियार के बतौर इस्तेमाल कर लेना है।
इन सारी चीजों से पीएम मोदी चुनाव आचार संहिता उल्लंघन के निशाने पर आ जाते हैं। लेकिन चुनाव आयोग जब सरकार के सामने सरेंडर कर दिया हो तो फिर इस पर रोक लगाने की आशा किससे की जा सकती है। इसकी खुली बानगी उस समय देखने को मिल गयी थी जब मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार चुनाव घोषणा के समय आयोजित प्रेस कांफ्रेंस में आचार संहिता पर लंबा प्रवचन करने बाद पत्रकारों के सवालों से रूबरू हुए।
उसमें नेशनल हेरल्ड की पत्रकार ने पीएम मोदी द्वारा किए जाने वाले आचार संहिता के उल्लंघन और उस पर होने वाली कार्रवाई के सवाल का जवाब देने की जगह अगले सवाल की तरफ बढ़ गए। इस पूरी घटना ने चुनाव आयोग और उसके आयुक्तों की कलई खोल दी थी। और वैसे भी गांधी के इन तीनों बंदरों को मोदी जी ने ही बैठाया है और मोदी जी चाहते हैं कि संकट के समय वो उनका साथ दें। और चुनाव वैतरणी को पार करवाने में उनकी मदद करें।
इससे बड़ा अपराध और क्या हो सकता है कि चुनाव के समय मुख्य विपक्षी पार्टी के खाते ही सील कर दिए जाएं। और उसे आर्थिक तौर पर पूरा पंगु बना दिया जाए। कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं सोनिया गांधी, मल्लिकार्जुन खड़गे और राहुल गांधी को आज इस पर प्रेस कांफ्रेंस करनी पड़ी। उन्होंने बाकायदा इस सवाल को उठाया कि कैसे चुनाव में लेवल प्लेइंग फील्ड मुहैया कराने से मुख्य विपक्षी पार्टी को वंचित किया जा रहा है। जिस इनकम टैक्स विभाग के जरिये इस कार्रवाई को अंजाम दिया गया है।
उसको कौन नहीं जानता है कि वह पीएम मोदी और गृहमंत्री अमित शाह की जेब में है। लेकिन चुनाव आयोग की यह जिम्मेदारी बनती थी कि वह इसमें हस्तक्षेप करे और अपनी तरफ से पहल कर उसके खाते को खुलवाने में मदद करे। वरना छह सात साल पुराने एक 14 लाख के मामले में किसी के 200 करोड़ से ऊपर के खाते को फ्रीज करने का भला क्या तुक हो सकता है? लेकिन सरकार और उसके इनकम टैक्स विभाग ने इस काम को अंजाम दिया है।
चुनाव आयोग अगर नहीं संज्ञान ले रहा है तो इस देश में सर्वोच्च न्यायिक संस्थाएं इस मामले में क्या कर रही हैं? क्या उनको नहीं पता है कि अगर चुनाव में न्याय नहीं हो सका और लोकतांत्रिक प्रक्रिया को स्वस्थ रूप से संचालित नहीं किया जा सका तो इस देश में लोकतंत्र भी नहीं बचेगा। और अगर लोकतंत्र नहीं होगा तो फिर आने वाले दिनों में उनके वजूद का क्या होगा? यह बात न उच्च न्यायपालिकाएं सोच रही हैं और न ही इन सब मामलों से जुड़ी दूसरी संस्थाएं।
और इन सारे मामलों में मीडिया शर्म की सारी सीमाएं पार कर गयी है। अगर पुराने दौर को याद किया जाए जब मीडिया के नाम पर दूरदर्शन और रेडियो हुआ करता था। तब चुनाव आयोग दूरदर्शन और रेडियो के लिए राजनीतिक दलों को उनकी हैसियत के मुताबिक स्लॉट एलॉट करता था जिसमें वो चुनाव के दौरान जनता के सामने अपने वादों और इरादों का पक्ष रखते थे। और इस तरह से सभी दलों के साथ न्याय होता था।
लेकिन मौजूदा दौर के गोदी मीडिया ने शर्म के अपने सारे पर्दे उतार फेंके हैं। चुनाव के दौरान अलग-अलग चैनलों पर पीएम मोदी और उनकी सरकार का इस कदर महिमामंडन किया जा रहा है जिसका कोई हिसाब नहीं है। पीएम मोदी की तस्वीरों के साथ टीवी 18 राइजिंग भारत कर रहा है तो कथित नंबर वन चैनल अपने कनक्लेव में एक घंटे से ज्यादा मोदी का लाइव भाषण करवाता है।
और मजाल क्या है कि कोई पत्रकार एक सवाल पूछ दे। और भाषण के बाद पत्रकारों की पूरी टीम पीएम मोदी के साथ फोटो खिंचवाती है। इस तरह से राजनेता और पत्रकार के बीच सवाल-जवाब का रिश्ता फोटो सेशन में बदल जाता है। लेकिन न इसमें चुनाव आयोग हस्तक्षेप करने के लिए तैयार है। और न ही इसका संज्ञान लेने के लिए कि इन कार्यक्रमों में सत्ता पक्ष से जुड़े मंत्रियों और शख्सियतों के साथ भला एक भी विपक्षी नेता वक्ता के तौर पर क्यों नहीं है? चुनाव के इस गंभीर दौर में उसे अपनी बात रखने का मौका क्यों नहीं दिया जा रहा है? और अगर चुनाव धन बल और प्रचार तंत्र पर कब्जे के साथ लड़ा जाएगा तो फिर उस लोकतंत्र का क्या होगा जिसमें विपक्ष की भूमिका सत्ता के बराबर नहीं तो उससे कम भी नहीं होती है। लेकिन इसको पूछे तो भला कौन?
(महेंद्र मिश्र जनचौक के संस्थापक संपादक हैं।)