क्या राहुल कस्वां के सहारे कांग्रेस फतह कर पाएगी चुरू का किला ?

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लोकसभा चुनाव ऐलान के साथ ही राजस्थान की चुनावी सरगर्मी काफी बढ़ गई है। चुरू, राजस्थान का एक महत्वपूर्ण लोकसभा क्षेत्र है, जिसमें आठ विधानसभा सीटें शामिल हैं। भाजपा के राहुल कस्वां ने 2014 और 2019 में जीत हासिल की, जबकि टिकट विवाद के कारण भाजपा छोड़ने के बाद कांग्रेस ने उन्हें 2024 के चुनावों के लिए अपना उम्मीदवार बनाया।

चूरू, जिसको थार-रेगिस्तान का द्वार कहा जाता है, वहां पिछले दो लोकसभा चुनावों में एक भी सीट ना जीतने वाली कांग्रेस इस द्वार की चौखटों को बड़ी उम्मीदों से देख रही हैं। इसका कारण पिछले कुछ दिनों में यहां कि बदली हुई परिस्थितियां हैं।

दरअसल चूरू लोकसभा क्षेत्र सन् 1977 में अस्तित्व में आता हैं और दो बार दौलतराम सहारण ( जनता पार्टी एवं जनता पार्टी-सेक्युल्यर) यहां से चुनकर लोकसभा में गए। इसके बाद एक बार कांग्रेस के मोहरसिंह राठौड़ और नरेंद्र बुडानिया सांसद बने। इसके बाद 1989 से 1991 तक की अल्पावधि के लिए दौलतराम सहारण, जनता दल से पुनः यहां के सांसद रहे। इसके बाद दौलतराम सहारण का राजनैतिक-सूर्य अस्त हुआ।

कालरी ग्राम पंचायत के तत्कालीन युवा सरपंच रामसिंह कस्वां का उदय ! 1991 में भैरोसिंह शेखावत ने रामसिंह कस्वां को भाजपा के सिंबल से लोकसभा के रण में उतारा और सारथी के रूप में चूरू के तत्कालीन विधायक राजेंद्र राठौड़ को जिम्मेदारियां सौंपी। रामसिंह-राजेंद्र (राम-लक्ष्मण) की इस जोड़ी ने ना केवल लोकसभा का चुनाव फतेह किया, बल्कि आने वाले सारे में जाट बनाम राजपूत के माहौल में अपनी मित्रता को एक मिसाल की तरह पेश किया। इसका फायदा एक तरफ जहां लोकसभा में रामसिंह कस्वां को मिलता रहा। अगर 1996-1998 तक का समय निकाल दिया जाए, तो 1991 से अब तक सांसद-सूची में रामसिंह कस्वां और 2014-19,19-24 में राहुल कस्वां के अलावा कोई दूसरा नाम नहीं दिखता और दूसरी तरफ, राजेंद्र राठौड़ विधानसभा रण में सदैव अजेय रहे। राम-लक्ष्मण की जोड़ी 2013 के आसपास बिगड़ गई। चूरू के राजनैतिक- जानकार इसके पीछे के कारण तलाशते हुए दोनों लोगों के आसपास के चाटुकारों को इसका श्रेय देते।

2013 तक आते-आते जहां राजेंद्र राठौड़, राजस्थान भाजपा के स्थापित नेता हो चुके थे और रामसिंह कस्वां,चूरू लोकसभा में भाजपा के जीत की गारंटी। लेकिन आपसी-संबंधों की बिगड़ाहट इतनी भारी पड़ी कि राजेंद्र राठौड़ और उनके समर्थक नेताओं ने रामसिंह कस्वां की टिकट कटवाने के लिए अपने घोड़े खोल दिए। परिणामस्वरूप, टिकट मिली- रामसिंह कस्वां के बेटे राहुल कस्वां को।

उसी समय बहुजन समाज पार्टी से अभिनेश महर्षि ने ताल ठोकी। चूरू के राजनैतिक गलियारों में चर्चा की जाती हैं कि राहुल कस्वां को हरवाने के लिए विरोधी-गुट ने जाट बनाम नॉन-जाट के माहौल तले खूब मेहनत की,‌ लेकिन मोदी-लहर ने इस पर पानी फेर दिया। जहां रामसिंह कस्वां, बहुत कम अंतर से चुनाव जीतते आ रहे थे वहीं, राहुल कस्वां ने अपनी पहली जीत 2 लाख 94 हजार से दर्ज की और महर्षि 3 लाख वोटों पर सिमट गई। इसी तरह 2019 का लोकसभा आया और कहा गया कि रामसिंह कस्वां और राजेंद्र राठौड़ के आपसी मनमुटाव दूर हो गए हैं। राजेंद्र राठौड़, राहुल कस्वां के प्रचार में भी देखे गए और राहुल कस्वां ने पुनः अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी रफीक मंडेलियां को 3 लाख 34 हजार वोटों से पराजित किया। 2018-23 का समय राजस्थान की राजनीति में वसुंधरा राजे को साइड-लाइन करने के लिए बहुत से नेताओं को उभारने वाला रहा है।

भैरोसिंह शेखावत की राजनैतिक-नर्सरी से आने वाले राजेंद्र राठौड़, किसी समय रामसिंह कस्वां पर अपनी राजनैतिक-हत्या का आरोप मढ़ने वाले आमेर के तत्कालीन विधायक सतीश पूनियां-इस समय सर्वाधिक उभार में रहे। राजेंद्र राठौड़ जहां उप नेता – प्रतिपक्ष और गुलाबचंद कटारिया के असम-राज्यपाल बनने के बाद नेता-प्रतिपक्ष रहे, वहीं सतीश पूनियां को संगठन में प्रदेशाध्यक्ष का पद मिला। जहां एक ओर राजस्थान की राजनीति में प्रतिद्वंद्वियों का कद दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा था, वहीं पूर्ण बहुमत वाली भाजपा की केंद्र सरकार ने ना तो कस्वां को कोई महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी और ना ही मंत्री पद। मंत्रिपरिषद-विस्तार से पहले एक बार चर्चा चली, लेकिन कहा गया कि राठौड़ का जादू चल गया और नाम कट गया।

इसी के साथ राजस्थान विधानसभा चुनाव -2023 आया। राजेंद्र राठौड़ के समर्थकों का मानना था कि यह उनका अंतिम और भविष्य -‌निर्णायक चुनाव है। राजेंद्र राठौड़, तारानगर से हार गए और सतीश पूनियां आमेर से। राजेंद्र राठौड़ की हार के पीछे के कारणों में एक कारण भीतरघात माना गया, जिसे लेकर राजेंद्र राठौड़ के समर्थकों ने कस्वां परिवार को सीधा निशाने पर रखा। वसुंधरा राजे तक तार जोड़े गए। सिर्फ राजेंद्र राठौड़ नहीं हारे-बल्कि चूरू की आठ विधानसभाओं में चूरू और भादरा को छोड़कर भाजपा सारी सीटें हार गई। कुछ हार तो अत्यंत शर्मनाक रही।

हारने के बाद भी संगठन के अनुभव और आक्रमक-सक्रिय कार्यशैली के कारण राजेंद्र राठौड़ राजस्थान की भाजपा में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं, इसी का नतीजा रहा कि इस लोकसभा चुनाव में राहुल कस्वां की टिकट काटकर पैरा-ओलंपियन देवेंद्र झाझडिया को दी गई। टिकट कटने के कारणों पर राजेंद्र राठौड़ जहां अपनी किसी भूमिका से इनकार करते रहे हैं, जबकि राहुल कस्वां स्पष्ट रूप से उन्हीं को जिम्मेदार बताते हुए हमलावर हैं। देवेंद्र झाझडिया का नाम, विधानसभा चुनावों में भी तारानगर सीट से उछला था। राहुल कस्वां ने भाजपा से बगावत करते हुए कांग्रेस का दामन थामा और कांग्रेस से प्रत्याशी हैं। दोनों ही पार्टियों के प्रत्याशी अपने नामांकन पत्र भर चुके हैं।

देवेंद्र झाझडिया, जहां खेल की पृष्ठभूमि से आते हैं। जाति से जाट हैं प्रचार में काफी सक्रिय दिखे। लेकिन, चुनौतियां कम नहीं है – पहली चुनौती तो राजनैतिक रूप से जाट साबित होने की है। विपक्ष ने इस क़दर प्रचार किया हैं कि लोग गली-मोहल्लों – चौराहों की बैठकों में हंसी-मजाक में ‘देवेंद्र झाझडिया राठौड़ ‘ शब्द काम में लेते हैं।

देवेंद्र के पास राजेंद्र राठौड़ की अनुभव भरी टीम तो है, लेकिन छह सारी विधानसभाओं से वोट बटोरने की चुनौती हैं। तारानगर और चूरू में राजेंद्र राठौड़ के अति-प्रभावशीलता के बाद भी मेहनत की आवश्यकता है। नोहर-भादरा ने पिछले दो लोकसभा चुनावों में भाजपा के प्रत्याशी राहुल कस्वां को लाखों की लीड दी है। वहां एक तरफ भादरा में एक हजार के अंतराल से हारे हुए बलवान पूनिया इंडिया गठबंधन के साथ हैं और संजीव बेनीवाल-देवेंद्र झाझडिया से कदमताल करते नजर आ रहे हैं। नोहर, में विधायक अमित चाचाण राहुल कस्वां के साथ हैं, जबकि उनके पुराने दोस्त और भाजपा विधायक प्रत्याशी रहे अभिषेक मटोरियां, देवेंद्र के लिए प्रचार में जुटे हैं। भाजपा को यहां प्रचार से ज्यादा भीतरघात की खुली खिड़कियों को बंद करने का काम करना चाहिए।

सुजानगढ़, सरदारशहर, रतनगढ़-में भाजपा की भयंकर हार हुई है। यहां के अपने-अपने आंतरिक समीकरण हैं। सादुलपुर-राहुल कस्वां और देवेंद्र, दोनों की गृह-विधानसभा हैं। कस्वां परिवार इस सीट को हमेशा हारता रहा हैं। इस बार देखना दिलचस्प होगा कि पार्टी बदलने का क्या प्रभाव पड़ता है। बाकी, देवेंद्र के दिव्यांग होने की सहानुभूति आम महिला वोटरों में साफ नजर आती है। गांव-गांव में खेल से जुड़े लड़कों में देवेंद्र का क्रेज तो हैं, लेकिन वो अब तक राजनैतिक रूप से नहीं दिखता। इस पर काम किए जाने की जरूरत हैं।

राहुल कस्वां जाते-जाते भाजपा का जो मूल वोट-बैंक छोड़ गए, उसे पाना देवेंद्र के लिए आसान है लेकिन जो साथ ले गए- उसके लिए किस तरह के राजनैतिक भाले फेंके जाते हैं और वो कितना कामयाब हो पाते हैं- देखना दिलचस्प होगा। बाकी, देव के इंद्र हो जाने में देवासुर संग्राम बाकी है।

राहुल कस्वां, रामसिंह कस्वां के पुत्र और राजनैतिक वारिस हैं। दो बार से सांसद हैं। संसद में रिकॉर्ड और सक्रियता सराहनीय रहा है। परिवार, पिछले चालीस सालों से सक्रिय राजनीति में हैं, तो अनुभव भी हैं। दो बार भाजपा से रहे हैं इस बार कांग्रेस से मैदान में हैं। बहुत अच्छे प्रवक्ता हैं और टिकट कटने के बाद-जहां राजेंद्र राठौड़ पर सीधे हमलावर रहे हैं, वहीं अच्छी सोशल मीडिया टीम के कारण वोटरों की सहानुभूति भी बटोर चुके हैं। आठ मार्च को घर की बैठक से लेकर सारे विधानसभा- हेडक्वार्टर्स पर हुई बैठकों में शानदार भीड़ उमड़ी हैं। राहुल कस्वां का पर्सनल वोट-बैंक बहुत बड़ा है, जो पहले दिन से खुलकर साथ रहा हैं।

लेकिन, राहुल के सामने चुनौती है कि उनके पर्सनल वोट बैंक और कांग्रेस के मूल वोट बैंक में किसी तरह का अलगाव ना होने पाए, अगर ऐसा हो जाता हैं तो मामला मुश्किल होगा। इसके अलावा लोकसभा की आठों में से छह विधानसभाओं में कांग्रेस के विधायक हैं। इन सबका फायदा मिलेगा-लेकिन विश्वसनीयता बड़ा प्रश्न हैं? यह बड़ी आंतरिक चुनौती है।

सरदारशहर विधानसभा का ब्राह्मण वोट बैंक, जो मोदी लहर में भाजपा और स्थानीय चुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवार को वोट देता आया है, उसे कांग्रेस में लाना सागर लांघ जाने जैसा है। सुजानगढ़ में एससी वोट बैंक भी उसी श्रेणी का है। रतनगढ़ में पूसाराम गोदारा को वोट देने वाला वोटर क्या लोकसभा में भी कांग्रेस को वोट देगा?

यह सवाल सारी विधानसभाओं का यक्ष-प्रश्न है। बाकी राजनैतिक-अनबन से भरे हुए इंडिया गठबंधन के उम्मीदवार राहुल की राह में बहुत सारे राहु हैं!

(चूरू से प्रमोद प्रखर की रिपोर्ट। प्रमोद दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र हैं।)

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