अब आम चुनाव 2024 के शुभारंभ की तिथि बिल्कुल सामने है। चार-पांच दिन में प्रथम चरण के चुनाव में प्रचार का दौर समाप्त हो जायेगा। विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के प्रधानमंत्री हैं कि सावन, नवरात्रा में मछली-मटन खाने पर बात कर रहे हैं।
आम चुनाव के प्रचार में आम नागरिकों के हित-अहित के मुद्दों पर बात करने, हित-साधना और हित-विरुद्धता के मामलों पर चर्चा के माध्यम से देश के सामने खड़ी चुनौतियों का मुकाबला करने, समस्या और समाधान की बात करने, किसान आंदोलन के मुद्दों, जीवन-रक्षक दवाइयों की चढ़ी हुई कीमतों के साथ-साथ बढ़ती महंगाई के कारणों और उस पर काबू पाने के उपायों पर बात करने, बेरोजगारों की हालत सुधारने पर गौर करने का आश्वासन देने, जाति-गणना और आर्थिक सर्वेक्षण के जरूरी या गैर-जरूरी होने पर बात करने, विषमता के विष-प्रभाव पर अपने प्रयोग और पराक्रम का भारतीयों के जीवन पड़ रहे प्रभाव की बात करने यानी अपने दस साल के शासन में देश के लिए किये गये अपने काम-काज का हिसाब-किताब बताने के बदले वे मछली-मटन जैसे निजी मसलों पर चिढ़कर और चढ़कर बात कर रहे हैं।
लगता है, खास-खास अवसरों पर ‘विपथित घरों’ में रसोई और फ्रिज की औचक तलाशी और समुचित कार्रवाई का अलिखित आज्ञापत्र, लाइसेंस तथाकथित संस्कृति रक्षकों के मानस का हिस्सा बनने वाला है। क्या इसी के लिए वोट मांग रहे हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी? गजब है! वोट के लिए पुण्य, पाप की बात कर रहे हैं। प्रधानमंत्री बहुत बड़ा पद होता है। एक संदर्भ में कही गई गलत बात की चोट कई लोगों को लगती है। गरीबी और लोक जीवन का मजाक उड़ा रहे हैं, जिसका उन्हें पता नहीं है! पता तो ज़रूर होगा। लगता है कि गरीबी और लोक जीवन से दीर्घकालिक विच्छिन्नता के चलते उनका निजी अनुभव अब असिद्ध हो गया है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बयान लिखने वालों की ‘मेधा’ पर कुछ कहा नहीं जा सकता। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का लोक अनुभव असिद्ध न हो गया होता तो उन्हें संतों की वाणी में संचित सिद्ध अनुभव याद रहता कि, साँच बराबरि तप नहीं, झूठ बराबर पाप। जाके हिरदै साँच है ताकै हृदय आप॥ सत्य से बड़ी कोई तपस्या नहीं होती है और झूठ से बड़ा कोई पाप नहीं होता है। जिसके मन-कर्म-वचन में सचाई नहीं होती उस से बड़ा कोई पापी नहीं होता, संतों ने कहा है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मन-कर्म-वचन में सच और झूठ की स्थिति दस साल के दसाननी शासन काल में कोई छिपी बात नहीं रह गई है, बल्कि इलेक्टोरल बांड की तरह ‘जनता जनार्दन’ की नजर में बिल्कुल साफ-साफ और आमने-सामने दिख रही है। याद रहे बहलाने, फुसलाने, रिझाने, लुभाने के कपट से विश्वसनीयता घटती है। घटी हुई विश्वसनीयता आंख पर पट्टी बांधने में कामयाब नहीं हो सकती है।
भोजन के प्रति रुचि जगाने के लिए खाना खाने के पहले कुछ हल्का-फुलका खाने से शुरूआत को ऐपेटाइजर (Appetizers) कहा जाता है। ‘आत्म-निर्भर भारत’ और ‘विकसित भारत’ का नारा बुलंद करते रहिए सच तो यह है कि भारत एक भूखा राष्ट्र है। दुनिया के ‘भूख सूचकांक’ (Hunger Index) में भारत की स्थिति गवाह है। ‘भूख सूचकांक’ (Hunger Index) का क्यों! गरीबों को अपने अंदर भूख की तड़प किसी भी ‘सूचकांक’ की मोहताज नहीं होती है।
भूख से परेशान देश में जिसकी बहुत बड़ी आबादी पंचकेजिया व्यवस्था पर निर्भर रह गई है। भारत के कम-से-कम 95 प्रतिशत लोगों की भूख को जगाने के लिए किसी ऐपेटाइजर (Appetizer) की जरूरत नहीं होती है। यहां तो भूख कभी सोती ही नहीं है, प्रभु! आप हैं कि ऐपेटाइजर (Appetizer) की बात कर रहे हैं! यहां का लोक गांठ बांधकर हर पल जीता है, “प्रीत न जाने जात कुजात नींद न जाने टूटी खाट, भूख न जाने बासी भात प्यास न जाने धोबी घाट”।
कबीर को ही याद कर लीजिए, कबीर ने तो साफ-साफ कहा था कि भूख को स्वाद, ऐपेटाइजर (Appetizer) की कोई जरूरत नहीं होती है, ‘नींद न मांगै सांथरा, भूख न मांगै स्वाद!’ सच है कि मांग-चांगकर खानेवालों को ऐपेटाइजर (Appetizer) की कोई जरूरत नहीं होती है। तुलसीदास की स्थिति देखिये, “मांग के खइबो मसीद के सोइबो”!
‘आत्म-निर्भर भारत’ और ‘विकसित भारत’ कह देने भर से भारत न तो आत्म-निर्भर हो जाता है, और न ही विकसित हो जाता है। देश का दुर्भाग्य है कि नरेंद्र मोदी जैसे ‘बड़े नेता’ पर फिल्मी भाषा का भूत और सीरियल का प्रेत सवार है। यह ठीक है कि ‘गरीब लोग’ अपना दुख-दर्द भुलाने के लिए फिल्मी संवाद बोलते रहते हैं, आंखों में सुंदर भविष्य के सपनों की जगह फिल्म और सीरियल की दृश्यावली सजाते हुए समय काट लेते हैं, लेकिन प्रधानमंत्री को यह सब शोभा नहीं देता है।
यकीन मानिये, उन का ऐसा करना उस ‘जनता जनार्दन’ के प्रति षड़यंत्र है, जिस ‘जनता जनार्दन’ ने उन्हें ‘अवतारी आभा’ से सुशोभित कर दिया था। इधर, वे हैं कि अपने विश्व-गुरु बन जाने के भ्रम में पड़ गये! भ्रम का ऐसा वातावरण बन गया है कि रामनवमी के दिन होनेवाले भगवान राम के सूर्याभिषेक का पूर्वाभ्यास (Rehearsal) मीडिया पर दिखलाया जा रहा है! हे, भगवान! नाटक वाले भी नाटक के पूर्वाभ्यास (Rehearsal) को गोपनीय रखते हैं। सूर्याभिषेक के पूर्वाभ्यास (Rehearsal) के प्रसारण पर कुछ भी कहना मुश्किल है; समझना शायद उतना मुश्किल न हो।
नरेंद्र मोदी भले ही हर वक्त कैमरा और वाणी के घेरे में रहें, घेरा उन को मुबारक! भगवान राम को तो कैमरा के घेरा में न डालें। सच तो यह है कि जिंदगी फिल्मी रील की तरह से नहीं चलती है। जिंदगी सीरियल नहीं है। जिंदगी सिनेमा नहीं है। आदमी की जिंदगी सीरियल या किसी एपिसोड का फिल्मांकित दृश्य नहीं है। कलम और कैमरा के घूमते ही फिल्म या सीरियल की तरह जिंदगी में सब कुछ घटित नहीं हो जाता है। ऐसा होता तो कबीर को क्यों कहना पड़ता, ‘पावक कह्यां पांव जे दाझैं, जल कहि त्रिषा बुझाई। भोजन कह्यां भूख जे भाजै, तौ सब कोई तिरि जाई॥’ भोजन कहने से भूख नहीं भागती है।
भारत के मतदाताओं के पास इतनी तो समझ है कि ‘भूखे भगति न कीजै। यह माला अपनी लीजै।’ वह भूखा रहकर आपकी ‘भगति’ करने के मूड में अब नहीं है। वह उनकी ‘माला’ उन्हें पकड़ा देगी। रही ‘माल’ की बात तो, वह इलेक्टोरल बांड और ‘पीएम केयर्स फंड’ का मामला है, इस के बाबत वे ही बेहतर जानते हैं। उनका जो होगा, सो होगा!
यह तो बिहारी लाल ही रह गये हैं कि ‘कहलाने एकत बसत अहि मयूर, मृग बाघ, जगतु तपोवन सौ कियौ दीरघ दाघ निदाघ’। विपत्ति के समय विपरीत गुण-धर्म वाले ही नहीं परंपरागत, प्राकृतिक और जैविक शत्रु एक समय और एक साथ एक घाट पर जमा हो जाते हैं। बाघ और बकरी पानी पीने के लिए एक घाट पर जमा हो जाते हैं। ऋषि-मुनि की तपस्या जो काम नहीं कर पाती है, वह काम विपत्ति कर देती है। बाढ़ग्रस्त इलाके में रहने वाले ‘जनता जनार्दन’ अपने अनुभव से जानते हैं कि पानी भर जाने पर सांप, छछूंदर, बंदर आदि दुश्मन समझे जाने वाले प्राणी एक ही डाल पर जमा हो जाते हैं।
स्वाभाविक शत्रुता और निहित स्वार्थ का स्थगन हो जाता है। कोई किसी पर हमला नहीं करता है, कोई किसी को धर दबोचने की कोशिश नहीं करता है। शत्रुता स्थगन का भाव तब तक कायम रहता है, जब तक विपत्ति बनी रहती है। विपत्ति की स्थिति समाप्त होते ही, शत्रुता की स्वाभाविक स्थिति लौट आती है। यह बात मनुष्य पर भी लागू होती है। यही वह भाव है जिसने मनुष्य को सामाजिक प्राणी से राजनीतिक प्राणी के रूप में बदल दिया। मनुष्य विपत्ति के चले जाने के बाद भी शत्रुता का भाव स्थगित रख सकता है।
विपत्ति में बनी अ-शत्रुता के भाव को मित्रता में बदल सकता है। शायद इसीलिए प्रसिद्ध दार्शनिक अरस्तू ने मनुष्य को राजनीतिक प्राणी कहा होगा। कहने का आशय यह है कि राजनीतिक विपत्ति राजनीतिक एकबद्धता, जिसे गठबंधन कहा जाता है, की स्थिति बनाती है। विपत्ति एकबद्धता के लिए बाध्य कर देती है। यह एकबद्धता कभी-कभी दूध-पानी की तरह एक कर देती है। यह भी सच है कि अधिकतर मामले में गठबंधन की स्थिति तेल-पानी की ही तरह रह जाती है। उदाहरण के लिए अपने इतिहास से एक-दो प्रसंग।
अंग्रेजों के शासन की विपत्ति से बाहर निकलने के लिए आजादी के आंदोलन के दौर में विभिन्न विचार और विचारधारा के लोग कांग्रेस के साथ हो लिये थे। 1975 में राजनीतिक आपातकाल की विपत्ति से निकलने के लिए एक हो गये थे। आजादी के बाद में समय-समय पर कांग्रेस से निकलकर राजनीतिक दल बनने लगे। कांग्रेस में तो कई बार दल टूटने-बनने की घटना हुई। खैर वह सब इतिहास की बाते हैं। हां, आगे बढ़ने के पहले यह कि आपातकाल के गठित जनता पार्टी की परिणति भी काफी शिक्षा-प्रद है।
कुल मिलाकर राजनीतिक स्थिति यह है कि सभी राजनीतिक दलों को राजनीतिक तोड़-फोड़ की प्रक्रिया से गुजरना पड़ा है। 1990 के बाद की वैश्विक परिस्थिति में बदलाव के चलते राजनीति में विचारधारा के आग्रह और अपील की स्थिति में भी गुणात्मक अंतर आया। दलों में सामूहिक नेतृत्व की भावना में भी कमी आई, खासकर सत्तारूढ़ दल और सत्तारूढ़ होने या सत्ता सहयोगी बनने की संभावनाओं से भरे राजनीतिक दलों में। हमारे संविधान के लिए यह विकट स्थिति है, क्योंकि संविधान की भावना यह है कि The Council of Ministers shall be collectively responsible to the House of the People, अर्थात मंत्रिपरिषद सामूहिक रूप से लोक सभा के प्रति उत्तरदायी होगी।
नेतृत्व में सामूहिकता के अभाव में सरकार के सामूहिक रूप से उत्तरदायी होने का क्या और कैसा मतलब रह जाता है, समझना मुश्किल नहीं है। राजनीतिक परिस्थिति ऐसी कि सत्ता सहयोगी बनने की स्थिति में तो दो-चार सदस्यों की ताकत रखनेवाले दल भी थे। भारतीय जनता पार्टी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में अकेले धर्म पर ‘टिकाऊ सरकार’ बनाने जितना बहुमत जुटा लिया। ‘टिकाऊ सरकार’ में आम नागरिकों को ‘लोकतांत्रिक शुभ’ अवसर दिखने लगा था, लोगों को बहुत उम्मीद थी। अब, ‘सत्ता सहयोगियों’ की ताकत समाप्त प्राय हो गई!
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की एक बड़ी राजनीतिक ‘देन’ यह है कि उन्होंने नेतृत्व में सामूहिकता को उस की ‘औकात’ दिखा दी। जो भारतीय जनता पार्टी और उसका पितृ संगठन 2014 के पहले अपने ‘एकात्म’ के साथ-साथ सामूहिक नेतृत्व में अपने विश्वास को अपनी विशिष्टता बताते-बताते अपने को ‘भिन्न तरह की पार्टी’, Party with Difference बताकर अपने चाल-चरित्र-चेहरा पर इतराती फिरती थी, ‘एकोअहं’ के सामने ऐसी छुई-मुई साबित हुई कि दूसरा कोई उदाहरण मिलना मुश्किल है।
सत्ता के शिखर से उतरते ही भारतीय जनता पार्टी को यह एहसास जरूर होगा कि उसने किस तहर से क्या खोया और किस कीमत पर क्या पाया! अपने ही कार्यकर्ताओं के सामने शर्मिंदगी होगी! नहीं होगी! यह कहना बहुत मुश्किल है। देश को कांग्रेस मुक्त, विपक्ष मुक्त करने की हुंकार भरते-भरते हुजूर ने कब देश को भाजपा से मुक्त करने की बारहखड़ी तैयार कर दी उन्हें पता ही नहीं चला!
दुर्भाग्यजनक स्थिति यह है कि अपने कुत्सित ‘मुक्ति अभियान’ में चलते-चलाते नरेंद्र मोदी ‘लोकतांत्रिक तानाशाही’ की तरफ जा लगे। इस ‘लोकतांत्रिक तानाशाही’ के चलते संविधान और लोकतंत्र पर संकट की बात पूर्वग्रह मुक्त मन-मस्तिष्क से छिपी नहीं है। आत्म-निर्भर और विकसित भारत के भ्रम में भले ही सत्ता पक्ष झूमता रहे आम नागरिक और मतदाता बहलाने, फुसलाने, रिझाने और लुभाने के कपट की पट्टी अपनी आंख पर बांधने के लिए तैयार नहीं होगी। गरीबों की सब से बड़ी ताकत उस के विवेक में होता है। उसे पता होता है, मुट्ठी भर मिठास के लिए कितने गन्ने की पेराई होती है और कितनी कीमत अदा करनी पड़ती है। बस इंतजार कीजिए!
(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं।)