वामपंथी हिंसा बनाम राजकीय हिंसा

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बस्तर के साकेत जिले में माओवादियों के साथ मुठभेड़ में सुरक्षाबलों ने 29 माओवादियों के मारे जाने का‌ दावा‌ किया। यह घटना 19 अप्रैल को होने वाले चुनाव से दो दिन पहले हुई। बस्तर के आईजी सुन्दर राज पी ने कहा, “इस इलाक़े में 60 हज़ार सुरक्षाबलों को तैनात किया गया है।” एक‌ बीएसएफ प्रवक्ता ने दावा किया है कि-विशिष्ट खुफिया सूचना के आधार पर 16 अप्रैल को बीएसएफ और डीआरजी का संयुक्त आपरेशन लांच किया गया था। अभी जबकि आपरेशन जारी था तभी सीपीआई माओइस्टों के कैडरों ने बीएसएफ के जवानों पर हमला बोल दिया। एक जवान के पैर में गोली लगी, हालांकि वह ख़तरे से बाहर है। 29 माओवादियों के शवों को बरामद करने की बात कही गयी है। मुठभेड़ छुटभइया पुलिस स्टेशन इलाक़े में हुई है। पुलिस ने कुछ मशीनगनों और राइफ़लों को बरामद करने का दावा किया है। रविवार को गृहमंत्री अमित शाह ने छत्तीसगढ़ के खैरागढ़ का दौरा किया था। जहां उन्होंने लोगों से तीसरी बार पीएम मोदी को वोट करने की अपील की थी। इसके साथ ही उन्होंने राज्य से अगले तीन सालों में नक्सलियों को ख़त्म करने का वादा किया था।

लम्बे समय से इस इलाक़े में सक्रिय माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी विधानसभा तथा लोकसभा के आम चुनाव का बहिष्कार करती रही है। चुनाव के दौरान मतदानकर्मियों तथा पुलिसकर्मियों पर घात लगाकर हमले भी करती रही है, हालांकि उनके बहिष्कार के बावज़ूद इन इलाक़ों में काफी वोटिंग होती रही है। अभी इसी वर्ष 23 मार्च को दिल्ली के अम्बेडकर भवन में विभिन्न आदिवासी समूहों के प्रतिनिधियों की एक बैठक हुई थी,जिसमें दिल्ली और देश भर के प्रतिष्ठित बुद्धिजीवियों ने भाग लिया था,जिसमें वक्ताओं ने बताया कि, “बस्तर और छत्तीसगढ़ के इलाक़ों में देशी-विदेशी पूंजीपति तथा कॉरपोरेट बड़े पैमाने पर वहां पर मिलने वाली खनिज सम्पदा की‌ लूट कर रहे हैं तथा अपने जल,जंगल,ज़मीन की रक्षा के लिए संघर्ष करने वाले आदिवासियों को माओवादी बताकर बिना मुकदमा चलाए उन्हें जेलों में ठूंसा जा रहा है, उनकी हत्याएं की जा रही ‌हैं तथा उनकी औरतों के साथ बलात्कार की घटनाएं वहां पर आम बात है।” अन्य कई प्रतिनिधियों ने बताया कि “यहां पर आने वाले ढेरों प्रतिनिधियों को यहां आने से पुलिस प्रशासन द्वारा रोका गया और उन्हें अपने गांवों से नहीं निकलने दिया गया। निश्चित रूप से वहां आदिवासियों के आंदोलन में माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी भी शामिल है, इसके कैडर भी लगातार राजकीय हिंसा के शिकार होते रहते हैं।” माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी कोई अपराधियों या आतंकवादियों का संगठन नहीं है, जैसा कि सरकार मानती है, इसमें बड़े पैमाने पर पढ़े-लिखे छात्र नौजवान भी शामिल हैं, जो अपना शानदार कैरियर छोड़कर मज़दूर-किसानों और आदिवासियों के लिए अपनी कुर्बानियां दे‌ रहे हैं। इस सबके बावज़ूद माओवादी हिंसा और राज्य की हिंसा की अवधारणा पर भी बहस ज़रूरी है। मार्क्सवाद आम जनता की क्रांतिकारी हिंसा की‌ बात तो करता है, लेकिन व्यक्तिगत हिंसा की अवधारणा को बराबर नकारता है। 

भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन का इतिहास देखें, तो आज़ादी के बाद ही कम्युनिस्ट पार्टी ने तेलंगाना ने किसानों के सशस्त्र आंदोलन की शुरूआत की, लेकिन कुछ प्रारंभिक सफलता के बाद भारतीय राज्य ने ‌इसका क्रूरतापूर्ण दमन किया, हज़ारों लोग मारे गए, लाखों लोगों को जेल में ठूंस दिया गया और औरतों के साथ बलात्कार की‌ घटनाएं हुईं, इसके बाद ही कम्युनिस्ट पार्टी ने अपना आंदोलन वापस ले लिया तथा यह निष्कर्ष निकाला कि अभी सशस्त्र संघर्ष का‌ समय नहीं है और कम्युनिस्ट पार्टी को चुनाव में भाग लेना चाहिए, हालांकि फ़िर हिंसा या चुनाव में भाग लेने के सवाल पर कम्युनिस्ट पार्टी में लगातार बहसें चलती रहीं।

क़रीब-क़रीब इसी सवाल को लेकर 1967 में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी में एक दूसरा विभाजन हुआ, जब पश्चिमी बंगाल के दार्जिलिंग जिले के नक्सलबाड़ी अंचल में नक्सलबाड़ी की जिला कमेटी; जिसके अध्यक्ष चारू मजूमदार थे, उनके नेतृत्व में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से विद्रोह करके एक नयी कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी-लेनिनवादी पार्टी (माले) का गठन हुआ, जिसके नेतृत्व में देश भर में सशस्त्र आंदोलन की शुरूआत हुई, बहुत जल्दी यह आंदोलन बिहार, बंगाल, उड़ीसा और‌ उत्तर प्रदेश से लेकर महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश फैल गया, लेकिन इस आंदोलन की‌ कार्यदिशा आतंकवादी होने के कारण भारतीय राज्य ने इनका निर्मम दमन किया। देश भर में इसके हज़ारों कैडरों की हत्याएं कर दी गई़, जिसमें अधिकांश छात्र नौजवान थे।

पार्टी के महासचिव चारू मजूमदार की कोलकाता के बड़ा बाज़ार थाने में विवादास्पद रूप से मौत हो गई। निश्चित रूप से नक्सलबाड़ी आंदोलन की इस मामले में सकारात्मक भूमिका थी, कि उसने एक बार फ़िर भारतीय क्रांति के एजेंडे को सामने रखा।‌ इस आंदोलन की असफलता के बाद भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) माले टूट-फूट का शिकार हुई तथा दर्जनों गुट में बंट गई, जो यह आज भी ज़ारी है। यहां पर इस टूट-फूट का विश्लेषण करना मेरा उद्देश्य नहीं है, लेकिन एक महत्वपूर्ण बात यह है, कि इन सभी गुटों ने नक्सलबाड़ी की चारू मजूमदार की आतंकवादी लाइन को छोड़कर जनदिशा की लाइन लागू की, लेकिन कई अन्य संगठनों से मिलकर बनी भारत की कम्युनिस्ट पार्टी माओवादी अभी भी दृढ़ता से चारू मजूमदार की व्यक्तिगत हिंसा की लाइन को लागू कर रही है।

वास्तव में इस तरह की‌ हिंसा भारतीय समाज के गलत विश्लेषण की समझदारी से पैदा हुई है। यह सही है कि आदिवासियों के जल, जंगल और ज़मीन की लूट हो रही है। वे अपने जंगलों से ‌विस्थापित होकर‌ शहरों में आकर मज़दूर बन रहे‌ हैं, परन्तु अगर हम पूरे देश के उत्पीड़ित वर्गों को देखें, तो उनकी आबादी देश में क़रीब 40 करोड़ सर्वहारा तथा अर्द्ध-सर्वहारा से काफ़ी कम है।‌ इस देश में मज़दूरों की‌ कुल आबादी का‌ क़रीब 80% असंगठित क्षेत्र में है। ‌आज किसान बदहाल स्थिति में हैं।‌ कॉरपोरेट समूची भारतीय कृषि पर क़ब्ज़ा करना चाहता है, इसके ख़िलाफ़ किसानों ने पिछले साल लम्बा आंदोलन चलाया था तथा‌ इसमें उन्हें काफ़ी हद तक सफलता भी मिली, लेकिन अभी भी कृषि के‌ सम्पूर्ण कॉरपोरेटीकरण का ख़तरा बरकरार है।‌ हमें यह देखना होगा कि संघर्ष की‌ प्राथमिकता क्या है? जंगल,पहाड़ों में लम्बे समय तक हथियारबंद संघर्ष चलाने से ‌भारतीय राजसत्ता पर कोई विशेष असर नहीं पड़ा। माओवादी हमेशा सरकार के लिए कानून व्यवस्था की समस्या रहे हैं।‌ सरकार ने वैचारिक चुनौती के रूप में उन्हें कभी लिया ही नहीं।‌ माओवादियों की सशस्त्र संघर्ष की यह लाइन देश के थोड़े से दुर्गम पहाड़ी और ‌जंगली इलाक़ों में ही सफल हो सकती है,न कि उत्तर तथा दक्षिण भारत के मैदानी इलाक़ों में।

वास्तव में सरकार ने उन इलाक़ों में उनकी उपस्थिति को स्वीकार कर लिया है, क्योंकि इस‌ बहाने उसे बड़े पैमाने पर नागरिक समाज के बुद्धिजीवियों, छात्रों और नौजवानों के‌ दमन का मौका मिलता है, जो लोगों के लिए वास्तव में संघर्ष कर रहे हैं। पिछले दिनों माओवाद के नाम‌ पर छात्रों, नौजवानों, बुद्धिजीवियों, और सामाजिक कार्यकर्ताओं की गिरफ़्तारियां हुईं, हालांकि इनमें से किसी ने कभी भी माओवादियों की हिंसक गतिविधियों में भाग नहीं लिया था। ढेरों अनेकों वर्ष जेलों में रहने के‌ बाद कोर्ट से निरपराध सिद्ध होकर बरी हो गए या फ़िर जमानत पर बाहर आ गए, लेकिन अभी भी देश भर में ढेरों निरपराध लोग माओवादियों से कथित सम्बन्ध होने के‌ आरोप में जेलों में बंद हैं।

सशस्त्र संघर्ष की अवधारणा भले ही शहरी बुद्धिजीवियों को‌ बहुत‌ रोमांचित करती हो, लेकिन फिलहाल अभी देश में उसका समय नहीं आया है। यह राजनीतिक लाइन फायदे की जगह जन आंदोलनों को नुक़सान ही पहुंचाती है।‌ वास्तव‌ में राजकीय हिंसा के सामने माओवादी हिंसा टिक नहीं सकती। बहुत से माओवाद समर्थक यह कहते हैं कि इतनी राजकीय हिंसा के बावज़ूद यह आंदोलन इतने समय से टिका क्यों हैं? यह कुछ उसी तरह है, जिस तरह से भारत के उत्तर-पूर्व में; विशेष रूप से नागालैण्ड, मणिपुर और मिजोरम आदि में लम्बे समय से विभिन्न राष्ट्रीयताओं के आंदोलन चल रहे हैं, लेकिन उनको कोई सफलता नहीं मिली, सरकार ने उनकी उपस्थिति को स्वीकार कर लिया है। 

इस तरह के आंदोलन सरकारी दमन का अवसर ही ‌मुहैया कराते हैं, उदाहरण के रूप में, श्रीलंका में अलग राज्य की‌ मांग को लेकर वहां के तमिलों का एलटीटी के नेतृत्व में बहुत बड़ा सशस्त्र आंदोलन था, यहां तक कि समूचे जाफना प्रायद्वीप में उनका क़ब्ज़ा था।‌जब सरकार के लिए वे बड़ी चुनौती बन गए, तो सरकार ने उनका‌ व्यापक दमन करके, यहां तक कि वायुसेना द्वारा बमबारी करवाकर उनको समूल नष्ट कर दिया। इस भारी हत्याकांड पर दुनिया भर की सरकारें और मानवाधिकार संगठन चुप्पी साध गए।

फिलहाल भारतीय सरकार को माओवादी इलाक़ों में ऐसी कार्यवाही की अभी कोई ज़रूरत महसूस नहीं होती। कुछ लोग माओवादियों की कार्यवाहियों की‌ तुलना भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में; विशेष रूप से भगतसिंह और उनके साथियों की कार्यवाहियों से करते हैं, वास्तव में यह तुलना ग़लत है। असेम्बली बमकाण्ड में गिरफ़्तारी के बाद भगतसिंह ने जेल में विश्व भर के क्रांतिकारी साहित्य का‌ गहन अध्ययन किया तथा इस निष्कर्ष पर पहुंचे, कि‌ व्यक्तिगत हिंसा की‌ कार्यदिशा कभी भी व्यापक सामाजिक परिवर्तन का आधार नहीं बन सकती। हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचएसआरए) के युवा क्रांतिकारियों ने भगतसिंह की अगुवाई में राष्ट्रीय मुक्ति के साथ ही समाजवाद को अपना अंतिम लक्ष्य घोषित किया तथा आतंकवादी सशस्त्र कार्रवाइयों का रास्ता छोड़कर व्यापक किसान-मज़दूर जनता को संगठित करने की सोच की दिशा में भी वे आगे बढ़े।

1930 के दशक में एचएसआरए के क्रांतिकारियों का बड़ा हिस्सा कम्युनिस्ट आंदोलन में शामिल हो गया। आतंकवादी कार्यदिशा पर ‘भगतसिंह’ ने लिखा है कि, “क्रांतिकारी जीवन के शुरू के चंद दिनों के सिवाय ना तो मैं आतंकवादी हूं और न ही था, मुझे पूरा यकीन है कि इन तरीकों से हम कुछ भी हासिल नहीं कर सकते हैं।” वे आगे लिखते हैं कि, “बम का रास्ता 1905‌ से चल रहा है और क्रांतिकारी आंदोलन पर यह एक दर्दनाक टिप्पणी है। आतंकवाद‌ हमारे समय में क्रांतिकारी चिंतन के पकड़ के अभाव की अभिव्यक्ति है या एक पछतावा। किसी तरह यह अपनी असफलता का स्वीकार्य भी है। सभी देशों में इसका इतिहास असफलता का इतिहास है। फ्रांस-रूस-जर्मनी में, बाल्कान देशों में और स्पेन में हर जगह इसकी यही कहानी है। इसकी पराजय के बीज इसके भीतर ही होते हैं।”

भगतसिंह के आतंकवाद सम्बन्धी विचारों को इसलिए भी यहां बताना आवश्यक है, क्योंकि बहुत से प्रबुद्ध लोग भी माओवादी आंदोलन की तुलना भगतसिंह और उनके साथियों के आंदोलन से करते हैं। लेनिन ने एक जगह लिखा है कि, “जब क्रांतिकारी रुझान नीचे की ओर हो, तो कम्युनिस्ट पार्टी को संसद में जाने में कोई हर्ज़ नहीं है।” इसीलिए उन्होंने एक दौर में कम्युनिस्टों को ‘रूसी संसद ड्यूमा’ में जाने की वकालत की। आज भारत में संघ परिवार के फासीवाद का ख़तरा बहुत तेज़ी से बढ़ रहा है। अपनी तमाम कमियों और विसंगतियों के बावज़ूद कम्युनिस्ट ही सच्चे धर्मनिरपेक्ष हैं तथा फासीवाद से वे ही संघर्ष चला सकते हैं। संसद और संसद के बाहर दोनों जगह, इसलिए माओवादियों के चुनाव से बहिष्कार का नारा फिलहाल कोई अर्थ नहीं रखता। आज के दौर में माओवादियों को अपनी रणनीति पर निर्ममतापूर्वक विचार करना ही होगा।

(स्वदेश कुमार सिन्हा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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