प्रधानमंत्री की भाषा: सोच और मानसिकता का स्तर

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धरती पर भाषा और लिपियां सभ्यता के प्राचीन आविष्कारों में से एक है। भाषा का विकास दरअसल सभ्यता का भी विकास है, संस्कृति का भी विकास है। भाषाएं एक दिन में नहीं बनती हैं और सभ्यता भी एक दिन में नहीं बनती है। मनुष्य भी एक दिन में मनुष्य नहीं बना है, उसने भी सभ्यता के क्रम में अपने को बदला है और एक सभ्य मनुष्य कहे जाने के लिए खुद का निर्माण भी किया है,
अपने मूल्यों विचारों अभिरुचियों को व्यक्त किया है और अपनी अभिव्यक्ति को जगह दी है।

क्या हमारे देश के प्रधानमंत्री भाषा के इस महत्व को समझते हैं? क्या वह जानते हैं भाषा और सभ्यता का रिश्ता क्या है?
क्या उन्हें पता है कि भाषा और संस्कृति का रिश्ता क्या है? शायद उन्होंने पाणिनि , किशोरी दास वाजपेयी, रामचन्द्र वर्मा को नहीं पढ़ा होगा जिन्होंने भाषा पर विचार किया। उन्होंने रामविलास शर्मा की पुस्तक’ भाषा और समाज ‘नहीं पढ़ी होगी? उन्होंने नोम चोमस्की को भी नहीं पढ़ा होगा। उन्हें नगुगी के भाषा विमर्श के बारे में भी जानकारी नहीं होगी। अगर उन्होंने यह सब पढ़ा होता तो शायद वह इस तरह की भाषा का इस्तेमाल नहीं करते। वैसे यह पहला मौका नहीं है जब प्रधानमंत्री ने ऐसी भाषा का इस्तेमाल किया हो लेकिन इस बार तो उन्होंने भाषा की सारी हदों को पार कर दिया सारी मर्यादाओं को तोड़ दिया। उन्होंने भाषा को उस स्तर तक पहुंचा दिया जिसकी कल्पना आप नहीं कर सकते हैं। यह प्रधानमंत्री के पद की गरिमा के बिल्कुल अनुकूल नहीं है। यहां तक कि यह किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व के भी अनुकूल भी नहीं है। यह मानवीय शिष्टाचार और गरिमा के अनुकूल नहीं है। अपने ही देश के नागरिकों को आतंकवादी और घुसपैठिये कहना क्या उचित है?

हमारी भाषा हमारे व्यक्तित्व को भी बताती है, हमारे आचरण को भी बताती है हमारी नैतिकता को भी बताती है, हमारे इरादे को भी बताती है, हमारे लक्ष्य को भी बताती है। कई बार हमारी भाषा हमारे लालच हमारी ईर्ष्या हमारी हताशा को भी बताती है, साजिश और दुष्चक्र को भी बताती है।

अगर आपकी भाषा शालीन हो तो पता चलता है कि आपका व्यक्तित्व भी शालीन होगा लेकिन प्रधानमंत्री को शायद शालीनता से कोई मतलब नहीं है। उन्हें मनुष्य की गरिमा से कोई मतलब नहीं है। उन्हें सामान्य मानवीय व्यवहार से मतलब नहीं है और उन्हें लोगों की भावनाओं से भी मतलब नहीं है क्योंकि हमारे प्रधानमंत्री कोई संवेदनशील प्रधानमंत्री नहीं है। उनके पास डिग्री है या नहीं है, इस विवाद में हम फिलहाल नहीं पड़ते हैं, उनकी पढ़ाई लिखाई कैसी है इस पर भी हम नहीं विवाद करते लेकिन बिना डिग्री धारी व्यक्ति भी शालीन भाषां का इस्तेमाल करता है और कई बार तो डिग्री धारी लोग भी अपनी भाषा की मर्यादा को तोड़ देते हैं। ऐसे में हम प्रधानमंत्री से यह तो उम्मीद करते ही हैं कि वह कम से कम एक संतुलित शालीन और मानवीय भाषा का इस्तेमाल करेंगे। यह हर देश का नागरिक अपने प्रधानमंत्री से यह उम्मीद करता है और उसे करना भी चाहिए। अगर जनता ने आपको इस पद पर भेजा है तो वह इतना तो उम्मीद करेगा।

लेकिन हमारे प्रधानमंत्री अक्सर अपनी भाषा को इतना नीचे गिरा देते हैं कि कई बार तो लगता ही नहीं कि भारत जैसे देश का कोई प्रधानमंत्री ऐसी बात कह रहा है। वह भारत को विश्व गुरु कहते हैं। वह विकसित भारत के प्रधानमंत्री हैं, वे 140 करोड़ लोगों के प्रधानमंत्री हैं। आजाद भारत में कई प्रधानमंत्री हुए पंडित जवाहरलाल नेहरू से लेकर गुलजारी लाल नंदा और शास्त्री जी से लेकर इंदिरा गांधी, नरसिम्हा राव, बीपी सिंह, राजीव गांधी, देवेगौड़ा, इंद्र कुमार गुजराल से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी पर लेकिन किसी ने भी आज तक ऐसी भाषा का इस्तेमाल नहीं किया। जो लोग नेहरू के आलोचक थे, जो लोग इंदिरा गांधी के आलोचक थे जो लोग नरसिम्हा राव राजीव गांधी देवेगौड़ा गुजराल और वाजपेई के आलोचक थे उन्होंने भी कभी उनके खिलाफ ऐसी निम्न भाषा का इस्तेमाल नहीं किया। हम अपनी बात सुंदर और अच्छी भाषा में भी कह सकते हैं, यह कला तो हमें आनी चाहिए लेकिन शायद प्रधानमंत्री को यह कला नहीं मालूम है। वह जो बात कहना चाहते हैं उसके लिए उन्हें किसी कला की भी जरूरत नहीं है वो दूसरी भाषा मे भी कही जा सकती है पर उन्हें तो कुछ और कहना है क्योंकि उनकी बात भी बहुत ही निम्नस्तरीय है। उनकी भाषा उनकी सोच को बताती है।

प्रधानमंत्री के राजस्थान के बांसवाड़ा में दिए गए भाषण से देश में जो एक विवाद खड़ा हुआ है और उसकी जो तीखी प्रतिक्रिया हुई है, वह बहुत ही स्वाभाविक थी। यह तो कुछ नहीं प्रतिक्रिया नहीं हुई है। अभी तो और व्यापक प्रतिक्रिया होनी चाहिए थी। पर संभवत पहली बार किसी प्रधानमंत्री की भाषा को लेकर सैकड़ो हजारों लोगों ने चुनाव आयोग को खत लिखा है कई लोगों ने प्रधानमंत्री के खिलाफ fir दर्ज करवाने की कोशिश की है और देश के कई बड़े नौकरशाहों ने भी मुख्य चुनाव आयुक्त को पत्र लेकर इस बार कार्रवाई करने की मांग की है। लेकिन तीन दिन से हो रहे हैं इस घटना के पर चुनाव आयोग अभी तक खामोश है। वैसे, चुनाव आयोग किसी शिकायत पर ही संज्ञान लेता है और इसलिए कांग्रेस ने उसी दिन शिकायत भी कर दी पर चुनाव आयोग चुप। चुनाव आयोग कवर करने वाले पत्रकारों के व्हाट्सएप ग्रुप में पत्रकार भी बार-बार चुनाव आयोग से पूछ रहे हैं- अब तक इस पर क्या कार्रवाई हुई है? क्या प्रधानमंत्री को कोई नोटिस भेजा गया है? लेकिन चुनाव आयोग की तरफ से इस पर कोई टिप्पणी नहीं की जा रही है।

आमतौर पर पत्रकारों के व्हाट्सएप ग्रुप में चुनाव आयोग अपनी कार्रवाई का जिक्र करता है लेकिन इस मामले में चुनाव आयोग ने चुप्पी साध ली है। जाहिर है उन पर भी कोई दबाव होगा। उन्हें जब कोई निर्देश दिया जाएगा तभी वह जवाब देंगे। इसलिए यह घटना बताती है कि चुनाव आयोग पर जो संदेह किया जा रहा था उसमें सच्चाई है। उस पर जो आरोप लगाया जा रहे थे उसमें सच्चाई है।अब पता चल जाएगा कि चुनाव आयोग में क्या वाकई कोई साहस है? क्या वह निष्पक्ष है? क्या वह दूध का दूध पानी का पानी करता है? क्या वह पारदर्शी है? क्या वह रूल आफ लॉ का पालन करता है? अगर कानून की नजरों में इस देश का हर नागरिक एक समान है बराबर है तो प्रधानमंत्री को अपने इस भाषण के लिए क्यों नहीं नोटिस दिया जाना चाहिए, जबकि यह आदर्श आचार संहिता का सरासर उल्लंघन है। देश का एक सामान्य नागरिक भी आराम से बता सकता है कि इस भाषण से क्या उल्लंघन हुआ है?

इस उल्लंघन को समझने और जानने के लिए कानूनविद या संविधान विद होने की जरूरत नहीं है। यह बहुत ही साफ दिखनेवाला सच है। लेकिन अभी तक चुनाव आयोग ने कोई कार्रवाई नहीं की है। संभव है कि वह भविष्य में कार्रवाई न करें और अगर करता भी है तो हो सकता है कि वह कोई लीपा-पोती करे लेकिन सवाल है कि प्रधानमंत्री की भाषा में इतना पतन क्यों हुआ है? क्या प्रधानमंत्री इस बात को नहीं समझते? क्या प्रधानमंत्री जानबूझकर ऐसी भाषा का इस्तेमाल करते हैं? या उनकी मानसिकता ही ऐसी है कि वह ऐसी भाषा में अपनी बात कह सकते हैं। दरअसल भाषा भी व्यक्ति की सोच और मानसिकता को व्यक्त करती है। संभव है प्रधानमंत्री की सोची ऐसी हो उनकी मानसिकता ही ऐसी हो और अगर उनकी मानसिकता ऐसी है और सोच ऐसी है, तब हमें उनकी इस भाषा को लेकर बहुत आश्चर्य नहीं करना चाहिए क्योंकि पिछले 10 वर्षों में हम उनकी भाषा के स्खलन और पतन को कई बार देख चुके हैं।

वह कहने को सबका साथ सबका विकास करते हैं लेकिन अपनी भाषा में वह दो समुदायों के बीच भेदभाव करते हैं वह दो समुदायों को आपस में लड़ाते हैं, वह दो समुदाय के बीच नफरत फैलाते हैं। शायद नफरत की भाषा ऐसी होती है। यह भी संभव है कि वह ऊपर से नफरत ना करते हो लेकिन वह नफरत की भाषा के सहारे इस चुनाव को जीतना जरूर चाहते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि उन्होंने जो विकास कार्य किया है वह जनता की नजरों में खरा नहीं उतरा है और जनता का उनपर से विश्वास नहीं रहा है।

शायद यही कारण है कि वह ऐसी भाषा का इस्तेमाल करते हैं जिसके शब्दों के अर्थों में उनकी राजनीति भी छिपी हुई है। भाषा उनको बार-बार एक्सपोज कर देती है। उनके चेहरे से मुखौटे उतार लेती है।

(विमल कुमार का लेेख)

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