शख्सियत: भाजपा के गढ़ गुजरात में कांग्रेस की उम्मीद बनीं गनीबेन ठाकोर

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संसदीय राजनीति में चुनाव एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें प्रतिनिधि चुनना एक सेक्युलर रूप है लेकिन इस चुनाव में वोट हासिल करने के लिए जिन तरीकों का इस्तेमाल होता है उसमें यह पक्ष गायब हो जाता है। खुद वोट, जिसे एक नागरिक होने की शर्त के साथ जोड़ा जाता है वह भी ऐसे सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक तत्वों से प्रभावित होने लगता है जिसे सेक्युलर कह पाना मुश्किल है।

पिछले तीन दशकों में भारतीय राजनीति में जिस तरह से धर्म, खासकर हिंदुत्व की राजनीति का पदार्पण हुआ है, उसने इसकी संवैधानिक आधारशिला को हिला दिया है। जाति आधारित राजनीति और गोलबंदी को लेकर कई सारी व्याख्याएं आई हैं लेकिन अमूमन इसे ‘न्याय’ की राजनीति की तरह ही देखा गया। राजनीति में ‘सोशल इंजीनियरिंग’ की तकनीक ने इसके ‘न्याय’ के पक्ष को भी काफी कमजोर कर दिया है। ऐसे में, वोट के पैटर्न को समझना और वोट को अपने पक्ष में करना एक ऐसी मशक्कत हो गई है, जिस पर काम करना आसान नहीं रह गया है। इस बार जब लोकसभा का चुनाव सात चरण की लंबी प्रक्रिया से होता हुआ खत्म हुआ, तब चुनाव के परिणाम को लेकर जिस तरह दावे किये गये, और इसकी राजनीति की गई वह परिणामों से काफी अलग निकली। भाजपा बहुमत से दूर रही और खुद नरेंद्र मोदी की जीत अपने प्रतिद्वंदी के हासिल वोटों से बहुत ज्यादा नहीं थी।

भारतीय संसदीय लोकतंत्र में वोट एक ‘रहस्य’ की तरह है। यह रहस्य चुनाव के परिणामों के साथ व्याख्यायित होती है। इस रहस्य में राजनीति की वह धाराएं अंतर्प्रवाहित हैं जिसे पकड़ने का दावा बार-बार किया जाता है। लेकिन, वोट का रहस्य तब और खुलता है जब उन वोटों का प्रतिनिधित्व करने वाला उम्मीदवार वोटों के करीब जाता है और वोट की राजनीति के साथ उसे जोड़ देता है। इस प्रक्रिया में यह जरूरी नहीं है कि उसकी राजनीति कितनी प्रगतिशील या पिछड़ी हुई है। वोट और राजनीति के बीच का संवाद उसकी स्थानीयता के साथ जुड़े रहना जरूरी है।

कहा जाता है कि मोदी ने गुजरात से ‘वोटों’ के साथ जो कनेक्टिविटी बनाया उसे उन्होंने देश के स्तर पर विभिन्न भाषाओं में प्रसारित कर दिया। वह वोटों की इस कनेक्टिविटी के दावों में इतना भरोसा करने लगे थे कि एक ओर वह खुद को नेहरू से बड़ा और ईश्वरी आभा वाले मसीहा बताने लगे। जबकि नीचे जिन्हें वोट देना था, वे इस कनेक्टिविटी से बाहर हो गये थे। मोदी की गारंटी और वोट की गारंटी के बीच का रिश्ता टूट गया था। और, परिणाम पूरी तरह उनकी गढ़ी गई आभा के विपरीत आया। वह एक ‘निर्भर’ सरकार बनाने के लिए मजबूर हुए।

गनीबेन नागाजी ठाकोर का बनासकांठा से जीतना और मोदी के प्रभामंडल का गायब होना राजनीति के दो पक्ष की तरह उभरकर आये। मोदी का उभार गुजरात से हुआ। हिंदुत्व की हिंसक राजनीति का जो उभार गुजरात में आया, वह जल्द ही वोट के सामाजिक और आर्थिक आधार में बदल गया। सामाजिक संरचानाओं में फेरबदल 1980 के दशक से ही चल रहा था।

गुजरात में भूस्वामियों और उच्चमध्यवर्ग का बड़ा समूह विदेशों में बस रहा था। वह अतिरिक्त पूंजी का निर्माण खेतों को लीज पर देने, शहरों के रीयल स्टेट में पैसा लगाने और उच्चशिक्षा और व्यवसाय के लिए विदेश पर निर्भर होने की ओर बढ़ रहा था। उसने इस उठापटक में जाति और धर्म के वर्चस्व को बनाये रखने की जो राजनीति की वह मूलतः खेतों को सुरक्षित रखने और शहरों में दबदबा बनाये रखने की आर्थिकी के साथ जुड़ा हुआ था। यही वह समय था जिसमें ओबीसी जातियों का उद्भव, दलित पहचान की आवाज को उठते हुए सुन सकते हैं। शहरों में सांप्रदायिक दंगों में मजदूर बस्तियों पर हमला और मुस्लिम समुदाय पर पुलिसिया दमन की इबारत इसी समय लिखी जा रही थी। कांग्रेस के पतन का दौर शुरू हो चुका था जबकि गुजरात भारत की अर्थव्यवस्था में एक मजबूत नाम की तरह उभर रहा था।

गनीबेन नागाजी ठाकोर, जिनके पिता भी कांग्रेस में थे, इस बदलती राजनीति और अर्थव्यवस्था में बड़ी हो रही थीं। उनके पास अपनी खेती थी। वह ठाकोर जाति से आती हैं जो गुजरात में ओबीसी का हिस्सा है। इस जाति समूह के पास ‘उच्च’ होने का दावा है लेकिन खेतिहर समुदाय होने की वजह से इसके विकास और दावों की भी एक सीमा है। उनके पास अच्छी खेती हैं। गनीबेन ठाकोर ने अपने समुदाय की राजनीतिक आकांक्षा को अपने तरीके से अभिव्यक्त किया। बीबीसी के साथ दिये साक्षात्कार में वह बताती हैं कि उन्होंने सबसे पहले ग्राम पंचायत का चुनाव लड़ा। फिर तालुका स्तर का चुनाव लड़ा और उसे जीता। पिता ने उनके बढ़ते राजनीतिक कद को आगे बढ़ाया। वह अपने समुदाय की आकांक्षा को पूरा करने वाली नेता के रूप में उभरीं। लेकिन, उन्होंने अपने राजनीतिक अभियान को अपने क्षेत्र के साथ जोड़ना बंद नहीं किया। उन्होंने जनता के साथ सीधे संवाद करने और वोट को तय करने वाली रूझानों को समझना शुरू किया।

गनीबेन ठाकोर का जन्म 1975 में हुआ। वह 20 साल की उम्र में सक्रिय राजनीति का हिस्सा हो चुकी थीं। जिस समय वह कांग्रेस की राजनीति के साथ बड़ी हो रही थीं, उस समय भाजपा, आरएसएस के जमीनी काम के बदौलत, अपनी जमीन मजबूत कर रहा था। वह दलित और आदिवासी समुदाय को अपनी राजनीति का हिस्सा बनाने की ओर जा रहा था। लेकिन, मध्यम जातियों को अपने पक्ष में करना भाजपा के लिए एक मुश्किल काम था। यहां उच्च जातियों के साथ राजनीतिक आकांक्षाओं को लेकर मध्यम जातियों में प्रतियोगिता का भाव था। ‘मुस्लिम समुदाय’ एक ऐसा सामाजिक समुदाय था जिसे धर्म के आधार पर एक अलग ‘पहचान’ की तरह पेशकर ‘हम और वे’ का विभाजन किया जा सकता था।

भाजपा ने 1995 के बाद इस दिशा में आक्रामक तेवर अपनाने शुरू किए और नतीजों को अपने पक्ष में कर लिया। इस आधार पर जो राजनीतिक ध्रुवीकरण हुआ उसमें कांग्रेस पूरी तरह डूब गई। सामाजिक आंदोलन की जमीन को कमजोर कर दिया गया। इन परिस्थितियों में गनीबेन ठाकोर गुजरात राज्य के विधानसभा की राजनीति में उतरीं। 2012 में वह वाव विधानसभा सीट से चुनाव लड़ीं लेकिन हार गई। इस चुनाव में उन्होंने भाजपा की राजनीति की रणनीति को समझा। अगली बार यहीं से वो गुजरात विधानसभा स्पीकर के खिलाफ चुनाव में उतरीं। 2017 में उन्होंने 6500 वोटों जीत हासिल कर राजनीति में एक सनसनी पैदा कर दी। अगली बार, 2022 में फिर से उन्होंने इस सीट से जीत हासिल की। इस तरह वह कांग्रेस के लिए एक उम्मीद बन गईं।

यहां यह बताना जरूरी है, जिस बनासकांठा से वह हैं, वहीं अडानी का भी पैतृकवास है। लेकिन बनासकांठा में जो नारा गूंजता है वह है ‘बनास के बेन, गनी बेन’। इस बार जब उन्हें लोकसभा चुनाव में बनासकांठा से कांग्रेस ने उन्हें उम्मीदवार घोषित किया तब यह नारा थोड़ा और बड़ा बन गयाः ‘गनीबेन, हमारी बेन, देश की बेन’। गनीबेन की खासियत अपने विपक्ष की राजनीति को अपनी मजबूती का आधार बना लेना है। जब केंद्र की भाजपा सरकार विपक्ष की पार्टियों की सरकार को गिराने और उन्हें तबाह करने वाली रणनीति अपनाकर काम कर रही थी और कांग्रेस के कोष को तबाह करने की ओर बढ़ रही थी, गनीबेन ने इसी को अपने चुनाव अभियान का हिस्सा बना लिया। उन्होंने लोकसभा चुनाव अभियान में क्यूआर कोड का इस्तेमाल कर डिजिटल माध्यम से कोष बनाने का निर्णय लिया। उन्होंने लोगों के पास सीधे जाना शुरू किया और चुनाव अभियान के लिए सहयोग मांगना शुरू किया। मात्र 11 रूपये का सहयोग हासिल करने का यह अभियान भाजपा प्रत्याशी के लिए एक ऐसा बोझ साबित हुआ जिसके नीचे वह दब गया। लोगों ने गनीबेन की राजनीति को बचाने के लिए सिर्फ सहयोग ही नहीं किया, उसे उन्होंने अपना वोट भी दिया। भाजपा ने विपक्ष को खत्म कर देने का जो अभियान चलाया, उसे गनीबेन ने अपनी राजनीति का आधार बना लिया। लोगों ने गनीबेन को बचाने के अभियान में सीधा हिस्सा लिया। यह अभियान वोट हासिल करने वाला राजनीतिक अभियान बन गया। पिछले दस सालों से गुजरात में लोकसभा में चुनकर आने वाले सदस्यों की संख्या शून्य पर पहुंच गई थी। और, आने वाले समय में यहां राज्य सभा का सदस्य चुने जाने की भी स्थिति खत्म होने वाली थी। गनीबेन ने बनासकांठा की सीट जीतकर गुजरात में कांग्रेस के लिए दरवाजा न सही, पर एक खिड़की जरूर खोली है।

गनीबेन नागाजी ठाकोर, कोई प्रगतिशील विचार से लैस हैं ऐसा नहीं हैं। उनकी सोच पुरूष मानसिकता से ग्रस्त दिखती है। वह अपने जाति समुदाय में अविवाहित लड़कियों द्वारा मोबाइल फोन के प्रयोग का विरोध करती हैं। वह लड़कियों पर ‘अनुशासन’ की वकालत करती हैं। उन्होंने गुजरात में बलात्कार के दोषियों को सजा देने के प्रावधान पर भाजपा के प्रस्तावों से भी आगे बढ़कर फांसी की सजा को तय करने, और उसे सुनिश्चित करने वाले प्रावधानों की मांग की। हालांकि बाद में उन्होंने इस पर सफाई दिया और अपने बयानों को दुरूस्त किया। गनीबेन भाजपा शासित और नियंत्रित गुजरात में कांग्रेस के लिए राजनीति कर रही हैं। लेकिन, इससे अधिक वह अपने क्षेत्र और जाति समुदायों के हितों के लिए काम कर रही हैं। वह जिनके बीच रहती हैं वहां उन्हें सिर्फ लोकप्रिय नहीं होना है, उन्हें वहां से वोट हासिल करना है। संसदीय राजीनीति में बने रहने के लिए वोट हासिल करना और जीत तय करना एक अनिवार्य हिस्सा है। ऐसा नहीं होने पर उसका गुमनामी में खत्म होना तय है।

गनीबेन की राजनीति इसी के साथ जुड़ते हुए अपने विपक्ष को चुनौती देते हुए लोकप्रियता की सीढ़ियों पर चढ़ते हुए सामने आया है। गनीबेन जब बीबीसी को दिये साक्षात्कार में अपनी राजनीतिक जीवन की चर्चा के समय में जब अपनी पढ़ाई का उल्लेख करती हैं, अपने बच्चे की शिक्षा के बारे में बताती हैं और अपने पिता की विरासत का उल्लेख करती हैं तब वह रेखांकित कर रही होती हैं कि वह एक बेटी हैं, एक मां हैं और परिवार भी हैं जो अपने समुदाय और उसकी आकांक्षा से अलग नहीं है। वह बनासकांठा के लोगों के लिए भी एक सफल जीवन की आकांक्षा रखती हैं। गनीबेन भारत की संसदीय राजनीति की तीसरी पीढ़ी हैं। आप उनमें भारतीय राजनीति की वर्तमान अभिव्यक्तियों को देख सकते हैं और उस संकट को भी जिसमें कांग्रेस की राजनीति फंसी हुई है और निकलने के लिए जीजान से लगी हुई है। 

(अंजनी कुमार लेखक और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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