लोहिया जयंती पर विशेष : लोहिया का समाजवाद

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डॉ. राममनोहर लोहिया का जन्मदिन 23 मार्च को होता है। हालांकि कहा जाता है वे अपना जन्मदिन मनाते नहीं थे। क्योंकि उसी दिन क्रांतिकारी भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को ब्रिटिश हुकूमत ने फांसी पर चढ़ाया था। लिहाज़ा, भारत के ज्यादातर समाजवादी लोहिया जयंती को शहीदी दिवस के साथ जोड़ कर मनाते हैं।

आजादी के बाद के भारतीय समाज और राजनीति में समाजवादी आंदोलन का प्रचार-प्रसार डॉ. लोहिया का एक ऐतिहासिक योगदान है। समाजवादी आंदोलन को मजबूत बनाने के लिए उन्होंने स्थापित दलों को तोड़कर नई पार्टी बनाने का खतरा उठाया। उनकी राजनीति में सत्ता की इच्छाशक्ति थी लेकिन कुर्सी के लिए लालच नहीं था।

समाज के हर व्यक्ति को शक्तिमान बनाना उनका स्वप्न था और इसके लिए वे मंत्री की कुर्सी पाना जरूरी नहीं मानते थे। उनके सहयोगी अशोक मेहता ने मंत्री का पद स्वीकार किया और समाजवादी आंदोलन से नाता तोड़ लिया तो लोहिया ने अशोक मेहता के इस कदम को कुर्सी की लालसा कहा।

लोहिया ने समाज के वंचित विशाल बहुमत को नवजीवन और आत्मविश्वास दिलाने के लिए विशेष अवसर के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। महिलाओं, दलितों, अनुसूचित जनजातियों और अल्पसंख्यकों की वंचित जमातों को वे साठ प्रतिशत हिस्सेदारी दिलाना चाहते थे। यह सिर्फ आर्थिक और सामाजिक तर्कों पर आधारित नहीं था। उनकी यह मान्यता थी कि स्वस्थ समाज में संपूर्ण क्षमता की बजाय अधिकतम क्षमता का होना बेहतर है।

हमारे समाज में शूद्रों, महिलाओं, दलितों समेत सभी वंचित और उपेक्षित जमातों के सशक्तिकरण से ही अधिकतम क्षमता वाला समाज बनेगा। स्त्री विमर्श में भी उनकी दृष्टि अनूठी थी। वे समूची स्त्री परंपरा में द्रौपदी को श्रेष्ठ मानते थे। लोहिया की दृष्टि में द्रौपदी तेजस्विता, विवेक और बहादुरी का श्रेष्ठ समन्वय थी। भारतीय स्त्री को भी द्रौपदी जैसा तेज और आत्मविश्वास से लैस हुए बिना नर – नारी समता का सपना पूरा नहीं होगा।

लोहिया का समाजवाद भारत की विशेष स्थिति को समझने और उसके अनुसार मुद्दे निर्धारित करने की कोशिश करता है। उनके पहले और उनके बाद भी कोई ऐसा चिंतक या नेता दिखाई नहीं पड़ता जिसने जाति और भाषा के सवाल को निर्णायक महत्व दिया हो। आज भी जाति-प्रथा के उन्मूलन की कोई कार्यनीति दिखाई नहीं पड़ती, जबकि आरक्षण का ढोल और जोर से पीटा जाने लगा है, जो लोहिया के लिए अवसर की समानता के जरिए जाती को कमजोर करने और प्रगति में सबकी साझेदारी सुनिश्चित करने का एक माध्यम था। लोहिया की आरक्षण योजना स्त्रियों को विशेष मौका दिए बगैर पूरी नहीं होती थी। पर आज स्त्रियों के लिए आरक्षण को सभी राजनीतिक धाराओं द्वारा शक की निगाह से देखा जाता है।

लोहिया का समाजवाद सिर्फ आर्थिक व्यवस्था तक सीमित नहीं है, न वह मानता है कि अर्थ ही मानव अस्तित्व की धूरी है। उनके अनुसार, यह मूलतः एक नैतिक व्यवस्था है, जिसकी अभिव्यक्ति जीवन के सभी पहलुओं में बराबर ताकत के साथ होनी चाहिए। यह अकारण नहीं है कि राजनीति और अर्थशास्त्र के साथ – साथ कला और साहित्य में भी लोहिया का आना-जाना बना रहता था। सत्य और सौंदर्य दोनों उन्हें आकर्षित करते थे। समाजवाद तब तक संतोषजनक जीवन – दर्शन नहीं बन सकता जब तक जीवन के सभी पक्षों तक उसका फैलाव न हो।

लोहिया के समाजवाद में व्यक्ति और समुदाय, दोनों के जायज दावों का सम्मान है। व्यक्ति न तो सिर्फ अपने लिए जीता है, न सिर्फ समाज के लिए। दोनों एक – दूसरे से शक्ति पाते हैं और एक – दूसरे को समृद्ध करते हैं। इसी तरह, लोहिया का आदमी न क्षण में जीता है न किसी सुदूर स्वर्ग के लिए वर्तमान को दांव पर लगाकर। वह अल्पकालीन और दीर्घकालीन के बीच पुल तैयार करने की कोशिश करता है। पूरकता और द्वंदात्मकता का यह दर्शन लोहिया के समाजवाद की खास अपनी शक्ल है, जिसकी सार्थकता आज कुछ ज्यादा ही है, क्योंकि हमारे समय पर और इसमें भारत का समय शामिल है, तरह – तरह की एकांगिताएं हावी होती जा रही है।

(नीरज कुमार स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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