आजकल भारत के बहुसंख्यक हिंदुओं में से कट्टरपंथी तत्व बांग्लादेश के मुस्लिम बहुसंख्यकों में बढ़ते कट्टरपंथ पर आग-बबूला हो रहे हैं। यही हाल बांग्लादेश के मुस्लिम कट्टरपंथियों का भी है वे यहां वालों पर आग-बबूला हो रहे हैं।
कट्टरपंथी की यही समस्या है। वह अपनी आंख का माड़ा नहीं निहारता है, लेकिन उसे दूसरों की आंख की फुल्ली साफ-साफ दिखती है। अगर वह अपने भीतर झांक पाता तो भला कट्टरपंथी होता ही क्यों?
दोनों देशों के कट्टरपंथी एक दूसरे को आईना दिखा रहे हैं लेकिन इनमें से कोई भी उन आईनों में खुद को नहीं निहार रहा।
सामान्यतः इंसान अपनी सफाई खुद करता है। शौचादि से निवृत्त होता है, ब्रश-कुल्ला करता है, बाल-नाखून काटता-कटवाता है, नहाता है, साफ-सुथरे कपड़े पहनता है, अपना घर-द्वार, बिस्तर साफ रखता है, ताकि खुद प्रसन्नता महसूस करे और दूसरों की नज़र में भी अच्छा दिखे। कोई भी दूसरे की साफ-सफाई की जहमत नहीं उठाता।
लेकिन कट्टरपंथ के साथ इसका उल्टा होता है। वह अपने मल-मूत्र को अपने भीतर दबाए रखता है। अपनी गंदगी को न साफ करता है न ही उस पर बात करता है। उसे सिर्फ दूसरों की गंदगी दिखाई देती है।
वे स्वयं आकंठ ही नहीं, बल्कि आशीर्ष कीचड़ में डूबे हुए अहर्निश एक-दूसरे पर कीचड़ उछालते रहते हैं। कट्टरपंथी जब बहुसंख्यक होता है तो उसे दूसरों को ठीक करने का ठेका ही मिला होता है, और अगर वह सत्ता पर काबिज़ हो जाए, फिर तो करेला नीम पर चढ़ जाता है और वहीं से आग मूतना शुरू कर देता है।
लेकिन समस्या तब शुरू होती है जब इनकी पूंछ उनके पैर के नीचे दबी होती है, और उनकी पूंछ इनके पैर के नीचे दबी होती है। फिर तो वह दबाता है तो इन्हें दर्द होता है और यह दबाता है तो उन्हें दर्द होता है। लेकिन कमाल तो यह है कि इसके बावजूद दोनों कभी खुद नहीं सुधरते, बल्कि केवल दूसरे की क्रूरताओं और वहशीपन का रोना रोते रहते हैं।
मेरे बचपन में मेरे गांव और उसके आस-पास कई शादियां बदला-विवाह होती थीं। इसमें इनकी बहन उनकी दूल्हन होती थी और उनकी बहन इनकी दूल्हन होती थी। यानि दोनों पुरुष आपस में साले भी होते थे, और बहनोई भी। इसी तरह से दोनों स्त्रियां आपस में ननद भी होती थीं और भौजाई भी। ऐसी शादियां शुरुआत से ही ऐसी ही शर्तों के साथ तय होती थीं। इनमें अक्सर दहेज आदि के खर्चों से भी बचने का तर्क होता था। दोनों शादियां एक ही दिन होती थीं इसलिए बारातें भी एक ही साथ दोनों जगह के लिए रवाना होती थीं।
बचपन में ऐसी ही एक शादी में मैं भी बारात में दूसरे गांव गया। दूल्हे मियां मेरे दोस्त थे। दोनों गांवों के बीच लगभग 12 किलोमीटर का फासला था। द्वारपूजा के बाद अचानक मेरे गांव से सूचना आयी कि मेरे मित्र दूल्हे के पिताजी ने किसी बात के गुस्से में आकर अपने दामाद के दादाजी को थप्पड़ मार दिया था। वह टेलीफोन मोबाइल का जमाना नहीं था। दोनों तरफ से संदेशवाहक साइकिलों से रात भर दौड़ते रहे।
मेरे मित्र दूल्हे सहित पूरी बारात रात भर खौफ के साये में रही कि कहीं इधर वाले उस घटना का बदला हम लोगों से ना लें। घरातियों की तिरछी नजरों वाली गुस्सैल लहरें हम लोगों की ओर रह-रह कर उठती रहीं और भुनभुनाहटों के दौरे पड़ते रहे। दोनों गांवों के समझदार लोग समझाते-बुझाते रहे। रात के अंतिम पहर में सूचना आयी कि शादी होगी। तो जल्दी-जल्दी कार्यक्रम संपन्न हुए। भोर में खाने के लिए बुलावा आया। दहशत के साए में सब की भूख गायब हो चुकी थी। सभी जैसे-तैसे वापस अपने घर भागने के लिए भोर का इंतजार कर रहे थे। पूरी बारात भूखी लौटी। पूरा खाना पड़ा रहा और खराब हो गया।
ऐसी शादियों में पति-पत्नी के बीच सामंजस्य बनाने में भी दशकों बीत जाते थे। अगर इस दूल्हे की बहन के साथ कुछ दुर्व्यवहार हुआ होता तो सूचना मिलते ही यह वाला अपने मां-बाप और भाई-बहनों को खुश करने के लिए इसका बदला अपनी बीवी से लेता था। दोनों तरफ की दुल्हनें बिना किसी ग़लती के उत्पीड़ित होती रहतीं। दोनों ही अपनी-अपनी ससुराल में अल्पसंख्यक होतीं।
ऐसे कई रिश्तों में समझदार लोग अपने पक्ष वालों को समझाने में जल्दी कामयाब हो जाते कि भाई यह तुम्हारी पत्नी है, तुम्हारी जीवन-संगिनी है, तुम्हारी दोस्त है। इसके साथ रिश्ते को तुम किसी और से प्रभावित न होने दो। तुम इसे बिना शर्त प्यार करो। अगर दूल्हा कट्टरपंथी नहीं होता तो जल्दी समझ जाता और दोनों परिवारों में खुशियों की बरसात होने लगती, आत्मीयता के फूल खिलने लगते।
लेकिन भारत और बांग्लादेश के कट्टरपंथियों को ऐसे समझने वाले न जाने कब नसीब होंगे और दुनिया भर के सभी कट्टरपंथियों की समझदानी का मुंह न जाने कब खुलेगा। उन्हें इतनी सरल बातें भी न जाने क्यों समझ नहीं आतीं।
(शैलेश स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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