बीएचयू में दलितों के अधिकारों की हकमारी : छलका प्रो. अहिरवार का दर्द, जातिवाद की सच्चाई आई सामने !

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी स्थित बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के कला संकाय में दलित प्रोफेसर की हकमारी का मुद्दा गरमा गया है। प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति और पुरातत्व विभाग के अध्यक्ष पद पर दलित प्रोफेसर महेश प्रसाद अहिरवार के स्थान पर संकाय प्रमुख प्रो. सुषमा घिल्डियाल को अगले आदेश तक प्रभार सौंप दिया गया है।

प्रोफेसर अहिरवार ने बीएचयू के रजिस्ट्रार अरुण कुमार सिंह पर जातिवाद और मनमानी का आरोप लगाते हुए तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की और इस मुद्दे पर जोरदार लड़ाई लड़ने का ऐलान किया है। बीएचयू में दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के हितों के साथ खिलवाड़ का यह पहला मामला नहीं है। कुछ दिन पहले ही शिवम सोनकर नामक एक प्रतिभाशाली दलित छात्र को शोध में दाखिला देने से इनकार किए जाने का मुद्दा उठा था। दरअसल, बीएचयू में धर्म और जाति के आधार पर मनमानी का चलन नया नहीं, बल्कि वर्षों पुराना है।

बीएचयू में वरिष्ठ दर्शनशास्त्री प्रो. मुकुलराज मेहता ने प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति और पुरातत्व विभाग के अध्यक्ष पद पर नियुक्त होने के बाद इस पद पर बने रहने से इनकार कर दिया था। कला संकाय के इस विभाग के मौजूदा अध्यक्ष प्रो. सुमन जैन का कार्यकाल 31 मार्च को समाप्त हो रहा है। वरिष्ठता क्रम के अनुसार, अगले विभागाध्यक्ष की जिम्मेदारी प्रो. महेश प्रसाद अहिरवार को दी जानी थी। हालांकि, बीएचयू प्रशासन ने प्रो. अहिरवार को विभागाध्यक्ष न बनाते हुए संकाय प्रमुख प्रो. सुषमा घिल्डियाल को अगले आदेश तक विभाग का प्रभार सौंप दिया। इस निर्णय पर प्रो. अहिरवार ने कड़ी आपत्ति जताई है।

प्रो. अहिरवार 1996 से प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति और पुरातत्व विभाग में अपनी सेवाएं दे रहे हैं और वरिष्ठता क्रम में विभागाध्यक्ष बनने के लिए वे प्रथम पंक्ति में हैं। इसके बावजूद, उनके स्थान पर डीन को विभागाध्यक्ष का प्रभार दे दिया गया। प्रो. अहिरवार ने इसे प्रशासनिक अराजकता करार देते हुए बीएचयू प्रशासन पर जातिवाद का आरोप लगाया। बीएचयू ऑर्डिनेंस के प्रावधानों का हवाला देते हुए प्रो. अहिरवार ने कहा, “बीएचयू में डीन को विभागाध्यक्ष का प्रभार देने की कोई व्यवस्था नहीं है। बीएचयू के अधिकारी इस संबंध में एक बार कार्यकारिणी परिषद के गठन और वरिष्ठता क्रम पर मुहर लग जाने के बाद अध्यक्ष की नियुक्ति की बात कर रहे हैं, जो नियमानुसार गलत है।”

प्रोफेसर अहिरवार ने विश्वविद्यालय प्रशासन पर गंभीर आरोप लगाते हुए कहा, जानबूझकर मेरे अधिकारों से मुझे वंचित किया जा रहा है। विभागाध्यक्ष की नियुक्ति की प्रक्रिया में वरिष्ठता और रोटेशन के नियमों का उल्लंघन कर मेरे अधिकारों का हनन किया गया है। मैं चूंकि अनुसूचित जाति से आता हूंइसलिए मेरे साथ भेदभाव किया जा रहा है। विश्वविद्यालय प्रशासन गैर-कानूनी तरीके से मेरे अधिकारों को छीन रहा है। यह एक साजिश का हिस्सा हैक्योंकि जब मैं न्याय के लिए कोर्ट जाऊंगातब तक मेरे अधिकारों का हनन हो चुका होगा।”

प्रो. अहिरवार आगे कहते हैं, बीएचयू एक्ट की धारा 2542 के तहत प्रत्येक विभागाध्यक्ष की नियुक्ति वरिष्ठता और रोटेशन के आधार पर तीन वर्ष के लिए की जानी चाहिए। मेरी वरिष्ठता के आधार पर विभागाध्यक्ष बनने की बारी थीलेकिन विश्वविद्यालय प्रशासन ने यह पद मुझे देने के बजाय डीनकला संकाय को सौंप दियाजो पूरी तरह अवैधानिक और गैर-कानूनी है।”

यह पहला अवसर नहीं है जब विश्वविद्यालय प्रशासन ने नियमों की अनदेखी की हो। पिछले दो दशकों से बीएचयू में अराजकता का माहौल बना हुआ है, और प्रशासन जानबूझकर कानूनों की धज्जियां उड़ा रहा है। प्रो. अहिरवार का कहना है, पिछले तीन वर्षों में विश्वविद्यालय के खिलाफ 400 से अधिक मुकदमे दर्ज किए गए हैंजो यह दर्शाता है कि प्रशासन किस हद तक मनमानी कर रहा है। बीएचयू शायद देश का पहला विश्वविद्यालय होगा जहां इतने मुकदमे दर्ज हुए हैं। यह स्पष्ट संकेत है कि प्रशासन संविधान और विश्वविद्यालय के कानूनों का पालन नहीं कर रहा है। जनता की खून-पसीने की कमाई से चलने वाला यह विश्वविद्यालय अपने संसाधनों का दुरुपयोग कर रहा है। आरटीआई के माध्यम से मिली जानकारी के अनुसारबीएचयू प्रशासन ने केवल एक वर्ष में एक करोड़ रुपये से अधिक राशि कानूनी लड़ाइयों पर खर्च कर दी। क्या यह जनता के पैसों का दुरुपयोग नहीं है?”

मैं अपने हक के लिए संघर्ष करूंगा”

प्रोफेसर अहिरवार ने बताया कि उन्होंने इस फैसले के खिलाफ विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार और कुलपति को पत्र लिखा है। उन्होंने मांग की है कि विश्वविद्यालय अपने आदेश में संशोधन करे और उन्हें उनके संवैधानिक अधिकारों के अनुसार विभागाध्यक्ष नियुक्त किया जाए। वह कहते हैं, यदि मेरी बात नहीं सुनी जाती हैतो मैं उच्च अधिकारियों तक अपनी शिकायत पहुंचाऊंगा। राष्ट्रपतिजो विश्वविद्यालय के विजिटर होते हैंऔर शिक्षा मंत्रालय तक इस मुद्दे को ले जाऊंगा। अगर वहां भी न्याय नहीं मिलातो मैं इसे संसद की एससी/एसटी स्टैंडिंग कमेटी और राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग में लेकर जाऊंगा। यह केवल मेरी व्यक्तिगत लड़ाई नहीं हैबल्कि संविधान और सामाजिक न्याय की रक्षा का सवाल है।”

प्रोफेसर अहिरवार ने यह भी आरोप लगाया कि बीएचयू प्रशासन न्यायिक प्रक्रिया में देरी करने की साजिश रच रहा है। उन्होंने कहा, आप देख सकते हैं कि जब भी कोई मुद्दा कोर्ट में जाता हैतो न्याय मिलने में लंबा समय लग जाता है। विश्वविद्यालय प्रशासन इस देरी का फायदा उठाकर मनमाने फैसले लागू कर देता है।”

उन्होंने विश्वविद्यालय प्रशासन से सवाल किया कि जब बीएचयू जैसे प्रतिष्ठित संस्थान में ही नियमों की अनदेखी होगी, तो देश की जनता और छात्र समुदाय पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा? प्रो. अहिरवार कहते हैं, यदि हमें शिक्षकों को न्याय नहीं मिलेगातो छात्रों को क्या संदेश जाएगाक्या हम उन्हें यही सिखा रहे हैं कि कानून और संविधान का कोई महत्व नहीं है?”

प्रोफेसर अहिरवार ने स्पष्ट किया कि उनकी लड़ाई किसी व्यक्ति विशेष से नहीं, बल्कि संवैधानिक नियमों और न्याय की बहाली के लिए है। उन्होंने कहा कि विश्वविद्यालय प्रशासन को चाहिए कि वह नियमों के अनुसार निर्णय ले, जिससे पठन-पाठन का सही माहौल बने और छात्र तथा शिक्षक दोनों निडर होकर शिक्षा और अनुसंधान में योगदान दे सकें। वह कहते हैं, यदि शिक्षकों को न्याय नहीं मिलेगातो विश्वविद्यालय में शिक्षा का माहौल कैसे विकसित होगारिसर्च और पढ़ाई-लिखाई से ध्यान भटकाने के लिए ही प्रशासन इस तरह के हथकंडे अपना रहा है। यह केवल मेरी व्यक्तिगत लड़ाई नहीं हैयह संविधानसामाजिक न्याय और दलित अधिकारों की लड़ाई है। हम अन्याय के खिलाफ खड़े रहेंगे और न्याय के लिए संघर्ष करते रहेंगेचाहे इसके लिए मुझे कहीं तक भी जाना पड़े।”

प्रोफेसर महेश प्रसाद अहिरवार के साथ जातीय आधार पर भेदभाव का मामला तूल पकड़ता जा रहा है। सोशल मीडिया पर बड़े पैमाने पर प्रोफेसर अहिरवार के समर्थन में मुहिम शुरू हो गई है। बीएचयू की पूर्व छात्रा अनीशा चैटर्जी ने अपने फेसबुक वॉल पर लिखा, प्रोफेसर अहिरवार सर से कार्य के दौरान कई बार मुलाकात हुई। वह व्यक्तिगत रूप से कभी जातिवाद की भावना नहीं रखते हैं। एक सच्चे शिक्षाविद की तरह हर वर्ग के साथ बहुत प्रेमपूर्ण व्यवहार करते हैं। बीएचयू में इतिहास से जितना मैंने पढ़ामहान दार्शनिक राधाकृष्णन और डॉ. भीमराव अंबेडकर के प्रति उनकी आस्था स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। बीएचयू में गिनती के दो-चार ही ऐसे शिक्षक हैंजो बड़े विचार के अहंकार मुक्त हैं। उनके साथ हुए अन्याय का मैं घोर विरोध और निंदा करती हूं। अहिरवार सर को न्याय अवश्य मिलना चाहिए।” 

प्रोफेसर अहिरवार महामना मदन मोहन मालवीय और डा.भीमराव अंबेडकर की घोर प्रशंसक है और उनकी मुहिम व आदर्शों को आगे बढ़ाने में यक़ीन और जज़्बा रखते हैं। वह कहतें हैं, “बीएचयू में मेरे साथ भेदभाव वो लोग कर रहे हैं जो अंबेडकर विरोधी हैं। मैं कई सालों से विकलांगों, दलितों, आदिवासियों और पिछड़े तबक़े के शिक्षकों के आरक्षण के लिए लड़ रहा हूं। मेरे संघर्षों के चलते ओबीसी और दलित वर्ग के तमाम शिक्षकों व कर्मचारियों को नियुक्तियां मिलीं। हालांकि मेरा संघर्ष अभी भी अधूरा है। समाज में जब तक वंचित तबक़े के लोगों के पैरों में पड़ी बेड़ियों में लगी ग़ुलामी की बेड़ियां नहीं टूटेंगी, तब तक हमारा संघर्ष जारी रहेगा। “

दलित प्रोफेसरों के साथ भेदभाव

करीब 12 साल पहले, बीएचयू के दर्जनों दलित प्रोफेसरों ने अपने साथ हो रहे सौतेले व्यवहार को लेकर आक्रोश व्यक्त किया था। उस समय, इतिहास विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर के रूप में कार्यरत डॉ. महेश प्रसाद अहिरवार इस आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे। उन्होंने आरोप लगाया था कि कई विभागों में वरिष्ठ प्रोफेसर दलित शिक्षकों को लैब में प्रवेश करने से रोकते हैं और उन्हें बाहर रहने के लिए मजबूर करते हैं। उनका कहना था कि विश्वविद्यालय के भीतर सैकड़ों दलित छात्र, कर्मचारी और प्रोफेसर भेदभावपूर्ण व्यवहार का शिकार हो रहे हैं, और अब यह अन्याय सहन करने की सीमा से बाहर हो गया है।

इस आंदोलन में शिक्षा संकाय के प्रो. संजय सोनकर, कृषि विज्ञान संस्थान के प्रो. लाल चंद प्रसाद और कला संकाय के एसोसिएट प्रोफेसर राहुल राज भी शामिल थे। इन शिक्षकों ने खुलकर आरोप लगाया था कि दलित प्रोफेसरों के साथ लगातार अभद्र व्यवहार किया जाता है। यदि वे इसकी शिकायत करते हैं, तो विभाग न केवल उसे आगे बढ़ाने से इनकार करता है, बल्कि शिकायत वापस लेने के लिए दबाव भी बनाया जाता है। बीएचयू में ऐसे सैकड़ों मामले सामने आ चुके हैं, जहां दलित प्रोफेसरों के शोध कार्यों को प्रकाशित होने से पहले ही रोक दिया गया। इससे मजबूर होकर दलित शिक्षकों को राष्ट्रीय अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग और महिला आयोग का दरवाजा खटखटाना पड़ा। लेकिन कुलपति ने भी इस मामले में कोई ठोस कार्रवाई नहीं की।

विज्ञान संकाय के प्रो. आर.एन. खरवार ने भी इस भेदभाव पर चिंता जताते हुए कहा था कि बीएचयू में दलित शिक्षकों,  कर्मचारियों और छात्रों के उत्पीड़न के सैकड़ों मामले दबा दिए गए हैं। विश्वविद्यालय प्रशासन की चुप्पी और निष्क्रियता ने यह स्पष्ट कर दिया है कि यहां वर्षों से एक सुनियोजित भेदभाव का तंत्र काम कर रहा है, जो दलित समुदाय के शैक्षिक और व्यावसायिक उत्थान में बाधा डाल रहा है।

आरोप है कि दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के अधिकारों को कुचलने और अपनी मनमानी नीतियों को बनाए रखने के लिए बीएचयू प्रशासन हर साल मोटी धनराशि खर्च कर रहा है। बीते एक साल में ही अपने लीगल सेल पर एक करोड़ रुपये से अधिक खर्च कर दिए गए हैं। यह राशि मुख्य रूप से बीएचयू प्रशासन को विभिन्न कोर्ट केसों में डिफेंड करने के लिए खर्च की गई है। हाल ही में आई एक आरटीआई के जवाब में यह जानकारी सामने आई है। इस आरटीआई के अनुसार, विश्वविद्यालय के पैनल में पहले से ही 25 अधिवक्ता शामिल हैं, लेकिन इसके बावजूद बीएचयू को समय-समय पर बाहरी वकीलों की भी जरूरत पड़ी, जिसके लिए अतिरिक्त खर्च किया गया।

यह आरटीआई बीएचयू के आयुर्वेद संकाय के वैद्य सुशील कुमार दुबे द्वारा दायर की गई थी। इसमें कुल 10 सवाल पूछे गए थे, जिनमें 2022 से 2025 के बीच इलाहाबाद हाईकोर्ट के वकीलों पर किए गए खर्च का ब्योरा भी शामिल था। हालांकि, बीएचयू प्रशासन ने केवल वित्तीय वर्ष 2024-25 का आंकड़ा साझा किया और अन्य वर्षों की जानकारी नहीं दी। बीएचयू में प्रमोशन से संबंधित 400 से अधिक केस अदालतों में लंबित हैं, जिनमें से कई इलाहाबाद हाईकोर्ट में चल रहे हैं। विश्वविद्यालय ने बीते दो महीनों में कुछ महत्वपूर्ण मामलों में सफलता हासिल की है, लेकिन इसके लिए लीगल प्रक्रिया पर करोड़ों रुपये खर्च करने पड़े हैं।

बीएचयू प्रशासन ने स्वीकार किया कि कार्यकारी आदेश (एग्जीक्यूटिव ऑर्डर) के तहत समय-समय पर बाहर से भी वरिष्ठ अधिवक्ताओं को हायर किया गया। विश्वविद्यालय ने यह भी बताया कि इलाहाबाद हाईकोर्ट के लिए 25 स्टैंडिंग काउंसिल अधिवक्ता पहले से ही पैनल में शामिल हैं। हालांकि, आरटीआई में मांगी गई लीगल सेल की प्रगति रिपोर्ट और कुल बजट की जानकारी अब तक सार्वजनिक नहीं की गई है। इससे सवाल उठता है कि आखिर बीएचयू प्रशासन अपने कानूनी खर्चों का पूरा ब्योरा क्यों नहीं दे रहा है? क्या यह धनराशि केवल न्यायिक मामलों में इस्तेमाल की गई है, या फिर इसके जरिए कुछ गिने-चुने प्रभावशाली लोगों को लाभ पहुंचाया गया है?

डॉ. शोभना ने किया था बड़ा संघर्ष

प्रोफेसर अहिरवार का मामला जातिवाद और असमानता से जुड़ा हुआ है। इससे पहले पत्रकारिता विभाग की दलित महिला प्रोफेसर, डॉ. शोभना नार्लीकर को पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के अध्यक्ष पद की कुर्सी लंबे संघर्ष के बाद मिली थी। उन्हें इस पद तक पहुँचने से रोकने के लिए लगातार साजिशें रची गईं और दलित होने के कारण उनका उत्पीड़न भी हुआ। बावजूद इसके, डॉ. शोभना नार्लीकर न केवल डरीं, बल्कि उन्होंने अपने उत्पीड़न के खिलाफ लंबी लड़ाई भी लड़ी।

बीएचयू की शिक्षिका, डॉ. शोभना नार्लीकर, देश की पहली दलित महिला हैं जिन्होंने किसी विश्वविद्यालय के पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग में अध्यक्ष पद की कुर्सी संभाली। शिक्षण के दौरान उनका सफर हमेशा कठिनाइयों से भरा रहा। यह केवल इस तथ्य से समझा जा सकता है कि आज़ादी के 74 साल बाद वे बीएचयू के प्रतिष्ठित पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग की अध्यक्ष बनीं। उनका सफर लगातार चुनौतियों से भरा रहा। इस मुकाम को हासिल करने के लिए डॉ. नार्लीकर ने विश्वविद्यालय में चल रही धांधलियों के खिलाफ न केवल धरना दिया, बल्कि मनुवादी सोच रखने वालों को बुरी तरह झकझोरा और उनसे मुकाबला किया।

वे कहती हैं, “साल 2017 से मेरा प्रमोशन रोका गया। प्रोफेसर बनने के लिए जब भी इंटरव्यू रखा जाता, तो आखिरी समय में उसे रद्द कर दिया जाता। सभी मानकों को पूरा करने के बावजूद मुझे प्रोफेसर नहीं बनाया गया। पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग का अध्यक्ष तब बनाया गया जब उनके सामने दांव-पेंच खेलने का कोई रास्ता नहीं बचा था। हमारी जीत से यह साबित हो गया कि सत्य परेशान हो सकता है, पराजित नहीं। मैं किसान की बेटी हूं और जब से मैंने पढ़ाई में कदम रखा, तब से संघर्ष कर रही हूं। खुद को खड़ा करने के लिए मैंने लंबा संघर्ष किया है।”

“दलित होने के कारण मुझे बार-बार प्रताड़ित किया गया। जब मेरे साथ कोई नहीं था, तब मैंने अकेले लड़ाई लड़ी। मेरे संघर्षों के चलते मुझे परेशान किया गया। हमारा विरोध सिर्फ़ मनुवादी लोग ही कर रहे थे। गैर-मनुवादी ब्राह्मण-ठाकुर पहले भी हमारे साथ थे और आज भी हमारे साथ हैं। इन लोगों ने हर आंदोलन में हमारा समर्थन किया है। बहुत से लोग हमें बेटी-बहन मानते हैं। उनका यह विरोध इसलिए था क्योंकि उनके पास दांव-पेंच खेलने के लिए कोई रास्ता नहीं बचा था। हमारे विभागाध्यक्ष बनने से पहले जिन लोगों ने यहां कार्य किया था, वे पत्रकारिता विभाग को खत्म कर ड्रामा विभाग खोलने में लगे थे। वे पिछले दो दशकों से यहां पत्रकारों को आने से रोक रहे थे। मालवीय जी की पत्रकारिता को बचाने के लिए हमें संघर्ष करना पड़ा।”

अकेले धरना दे रहीं डा,शोभना

काशी हिंदू विश्वविद्यालय के पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग की प्रोफेसर डॉ. शोभना राजेश नार्लीकर ने इंसाफ़ के लिए 2013 से ही मनुवादी सोच वाले लोगों का विरोध किया। न्याय के लिए उन्होंने सात बार धरना दिया। हर बात को साफगोई से कहने वाली इस शिक्षिका को मनुवादियों ने “लड़ाकू महिला” का खिताब दिया था, लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि वे एक समझदार और ईमानदार महिला हैं, जिनका दिल गरीबों और शोषितों के उत्थान के लिए धड़कता है। वे कहती हैं, “मेरा नेता गरीब आदमी है, गांव का आदमी है। गांव में ही मेरी आत्मा बसती है। भूखे-नंगे लोगों की आहें और कराहें हमें सोने नहीं देतीं। जिस दिन यह तबका समाज की मुख्यधारा में शामिल हो जाएगा, तब मैं समझूंगी कि मेरा संघर्ष पूरा हो गया।”

डॉ. शोभना नार्लीकर कहती हैं, “बीएचयू के पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग में मैंने 19 अगस्त 2002 को असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर कार्यभार संभाला था। उस समय मेरे पास पत्रकारिता में पीएचडी की उपाधि थी। बीएचयू में मेरे कार्यभार संभालने के दो दिन बाद ब्राह्मण समुदाय के डॉ. अनुराग दवे ने पत्रकारिता विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर के रूप में ज्वाइन किया था, और उनके पास पीएचडी की उपाधि तक नहीं थी। उसी दौरान शिशिर बासु ने भी प्रोफेसर के रूप में कार्यभार संभाला था। विभागाध्यक्ष प्रो. बलदेव राज गुप्ता के रिटायर होने के बाद, 2003 में वह विभागाध्यक्ष बने और उन्होंने हमारा मानसिक उत्पीड़न शुरू कर दिया।”

मनमानी का लंबा दौर

डॉ. शोभना कहती हैं, “शिशिर बासु 2003 से 2009 तक विभागाध्यक्ष रहे, लेकिन उन्होंने हमें एक भी शोधार्थी आवंटित नहीं किया। सवर्ण शिक्षकों की जातीय गोलबंदी के चलते डॉ. अनुराग दवे ने पीएचडी करानी शुरू की। 2009 में मैं मातृत्व अवकाश पर चली गई। एसोसिएट प्रोफेसर की योग्यता होने के बावजूद जातीय भेदभाव के कारण न मुझे प्रोन्नति दी गई और न ही कोई शोधार्थी आवंटित किया गया। प्रो. बासु का कार्यकाल समाप्त होने पर, पत्रकारिता विभाग के सबसे वरिष्ठ शिक्षक होते हुए भी मुझे विभागाध्यक्ष नहीं बनाया गया। 2009 से 2011 तक विभागाध्यक्ष का प्रभार संकायाध्यक्ष ने अपने पास रखा।”

“2011 से 2013 तक फिर प्रो. शिशिर बासु को विभागाध्यक्ष बना दिया गया। जब उन्हें दोबारा कुर्सी मिली, तो उन्होंने हमें शोधार्थी आवंटित करना बंद कर दिया और जातीय आधार पर भेदभाव शुरू कर दिया। इस दौरान डॉ. अनुराग दवे को पीएचडी की उपाधि मिल गई। 2013 से 2017 तक विभागाध्यक्ष का प्रभार संकायाध्यक्ष के पास चला गया और डॉ. अनुराग दवे को एसोसिएट प्रोफेसर बना दिया गया। हालांकि, उनकी प्रोन्नति एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर नहीं की गई।”

डॉ. शोभना नार्लीकर कहती हैं, “बीएचयू प्रशासन ने हमारे वरिष्ठता क्रम को दरकिनार करते हुए, 2017 में हमसे दो दिन जूनियर डॉ. अनुराग दवे को पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग का विभागाध्यक्ष बना दिया और उन्हें प्रोफेसर पद पर प्रोन्नति भी दे दी। सभी शिक्षकों से अधिक शिक्षित और वरिष्ठ होने के बावजूद हमारी प्रोन्नति को लटकाया गया और हमें विभागाध्यक्ष बनने से रोका गया। डॉ. दवे का कार्यकाल समाप्त होने के बाद, वे विभागाध्यक्ष पद के दावेदार थे, लेकिन सिर्फ़ दलित होने के कारण हमें विभागाध्यक्ष नहीं बनाया गया। इसके बावजूद, विभागाध्यक्ष का प्रभार एक बार फिर संकायाध्यक्ष को सौंप दिया गया। बीएचयू प्रशासन ने बार-बार आपत्तियों के बावजूद मेरे अवकाश और सेवा अवधि के विवाद को हल नहीं किया।”

शिवम सोनकर को नहीं मिला न्याय

बीएचयू के छात्र शिवम सोनकर के शोध में दाखिले का मामला अब तक अनसुलझा है। उन्हें न्याय दिलाने के लिए विरोध प्रदर्शन किए गए, पुतले जलाए गए, नेताओं ने आवाज उठाई, लेकिन शिवम अब भी अपने हक़ का इंतजार कर रहे हैं। बीएचयू में बहुसंख्यकों के बीच दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यक वर्ग के छात्रों का आरोप है कि यहां दाखिला और पढ़ाई अब सहज नहीं रही है। दलित छात्रों का मानना है कि उन्हें धर्म, भाषा, क्षेत्र या जाति के आधार पर भेदभाव का सामना करना पड़ता है।

बीएचयू के कुलपति आवास के बाहर धरने पर बैठे दलित छात्र शिवम सोनकर कहते हैं, “मेरा सपना था कि मैं बीएचयू से पीएचडी करूं। इसके लिए मैंने कड़ी मेहनत की, अच्छे अंक प्राप्त किए, फिर भी मुझे प्रवेश नहीं मिला। दलित होने के कारण मेरे साथ भेदभाव किया गया। मुझे न्याय चाहिए।” उनके हाथों में पंडित मदन मोहन मालवीय, भीमराव अंबेडकर और राम दरबार की तस्वीरें थीं, शायद यह दिखाने के लिए कि ज्ञान के इस मंदिर में अब भी भेदभाव की दीवारें खड़ी हैं।

शिवम सोनकर ने मालवीय सेंटर फॉर पीस रिसर्च में पीएचडी एडमिशन के लिए परीक्षा दी थी, जिसमें सामान्य श्रेणी में उनकी दूसरी रैंक आई थी। इसके बावजूद, उन्हें प्रवेश से वंचित कर दिया गया। विभाग में कुल 7 सीटें थीं, लेकिन केवल 4 छात्रों को प्रवेश दिया गया और 3 सीटें खाली छोड़ दी गईं। जब शिवम ने कारण पूछा, तो विभाग की ओर से कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला। प्रशासनिक अधिकारियों ने उनसे मिलने तक का प्रयास नहीं किया। वह कहते हैं, “आखिर मेरी गलती क्या है? क्या केवल दलित होना ही मेरी गलती है?”

शिवम सोनकर ने 2024-25 सत्र के लिए मालवीय शांति अनुसंधान केंद्र में पीएचडी में प्रवेश के लिए आवेदन किया था। परीक्षा में सामान्य श्रेणी में दूसरा स्थान प्राप्त करने के बावजूद उन्हें प्रवेश नहीं मिला, जबकि विभाग द्वारा सात सीटों पर प्रवेश देना था। हैरानी की बात यह रही कि केवल चार सीटों पर ही प्रवेश दिया गया और तीन सीटें खाली छोड़ दी गईं। नियमानुसार, इन रिक्त सीटों को RET Exempted श्रेणी से RET मोड में बदला जा सकता था, लेकिन विश्वविद्यालय प्रशासन ने ऐसा नहीं किया।

पिछले कुछ वर्षों में बीएचयू परिसर में दलित छात्रों के खिलाफ हिंसा के कई मामले सामने आए हैं। कुछ साल पहले एक दलित छात्र को केवल इस वजह से बुरी तरह पीटा गया क्योंकि उसने सवर्ण छात्रों के पैर नहीं छुए थे। पीड़ित छात्र संतोष, जो स्नातकोत्तर कर रहा था, पर हॉस्टल में रहने वाले सवर्ण जाति के शुभम सिंह और उसके साथियों ने हमला किया। पहले उसे पीटा गया, फिर सिर पर बाल्टी मारी गई और यहां तक कि गला दबाकर हत्या करने का प्रयास किया गया।

जाति ही नहींसांप्रदायिकता का भी खेल

बीएचयू में केवल जाति ही नहीं, बल्कि सांप्रदायिकता के आधार पर भी भेदभाव किया जाता है। नवंबर 2019 में संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय में एक मुस्लिम शिक्षक की नियुक्ति को लेकर विवाद हुआ था। डॉ. फिरोज़ खान को सहायक प्रोफेसर के रूप में नियुक्त किया गया था, लेकिन कुछ छात्रों ने उनका विरोध किया। उनका तर्क था कि एक गैर-हिंदू शिक्षक संस्कृत धर्मशास्त्र का प्रभावी ढंग से शिक्षण नहीं कर सकता।

विश्वविद्यालय प्रशासन ने स्पष्ट किया कि नियुक्ति प्रक्रिया पूरी तरह से पारदर्शी थी और सभी निर्धारित मानकों के अनुसार की गई थी। उन्होंने यह भी बताया कि बीएचयू की स्थापना धर्म, जाति, संप्रदाय और लिंग के आधार पर बिना किसी भेदभाव के सभी को समान अवसर देने के उद्देश्य से की गई थी। अन्य विश्वविद्यालयों में भी ऐसे उदाहरण हैं, जैसे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में संस्कृत विभाग के अध्यक्ष प्रो. मोहम्मद शरीफ हैं और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में डॉ. संजय उर्दू पढ़ाते हैं, जहां इस प्रकार का कोई विवाद नहीं हुआ।

25 दिसंबर 2024 को बीएचयू में ‘मनुस्मृति दहन दिवस’ पर भगतसिंह स्टूडेंट्स मोर्चा द्वारा आयोजित एक चर्चा के दौरान बीएचयू प्रॉक्टोरियल बोर्ड के गार्ड्स ने छात्रों से बदसलूकी की और उन्हें घसीटते हुए प्रॉक्टोरियल बोर्ड ऑफिस ले गए। शाम करीब 7:30 बजे छात्रों को वहां बंद कर दिया गया और 26 दिसंबर 2024 को भगतसिंह स्टूडेंट्स मोर्चा के 13 सदस्यों पर गंभीर धाराओं के तहत एफआईआर दर्ज कर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और 14 दिन की न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया। इस दौरान छात्रों को शारीरिक चोटें पहुंचाई गईं, उनके कपड़े फाड़ दिए गए और चश्मे तक तोड़ दिए गए। जो भी छात्र उनकी मदद के लिए पहुंचे, उन्हें भी धक्का-मुक्की और मारपीट का सामना करना पड़ा।

साल 1927 में डॉ. भीमराव अंबेडकर ने मनुस्मृति को जलाकर जातिवादी और लैंगिक भेदभाव के प्रतीक के रूप में इसे खारिज किया था, लेकिन बीएचयू प्रशासन ने इस चर्चा को दबाने का प्रयास किया। इस दौरान छात्रों को गंभीर चोटें आईं और उन्हें धमकियां दी गईं। गिरफ्तारी के बाद छात्र पुलिस वैन में ठूंसकर थाने ले जाए गए। छात्रों ने “मनुस्मृति मुर्दाबाद” और “इंकलाब जिंदाबाद” के नारे लगाए। गिरफ्तारी में तीन लड़कियां भी थीं, जिन्हें रातभर डिटेन किया गया, जो कानून का उल्लंघन था। छात्र आरोप लगाते हैं कि पुलिस ने उन्हें थाने में भी मारपीट की और उन्हें वकीलों से मिलने तक का अवसर नहीं दिया। पीड़ित छात्र जेल से जमानत पर छोड़े गए।

शोध और शिक्षा पर सत्ता के प्रभाव की छाया

बनारस के वरिष्ठ अधिवक्ता प्रेम प्रकाश यादव का कहना है कि बीएचयू में सब कुछ कानून और नियमों के हिसाब से नहीं, बल्कि सत्ता के इशारों पर होता है। कुछ साल पहले यहां ‘मनुस्मृति’ पर आधारित एक शोध परियोजना शुरू की गई थी, जिसमें दावा किया गया था कि ‘मनु’ नारी और शूद्र विरोधी नहीं थे, जबकि मनुस्मृति में शूद्रों को पढ़ने-लिखने का अधिकार नहीं दिया गया था। यह ग्रंथ जातियों में भेदभाव को बढ़ावा देता है। इसके बाद बीएचयू में मनुस्मृति पर रिसर्च के लिए फेलोशिप भी शुरू कर दी गई। वहीं देशभर में विश्वविद्यालयों के खर्चों में जबर्दस्त कटौती की जा रही है, वहीं आरएसएस और बीजेपी के एजेंडे को आगे बढ़ाने वाली पढ़ाई के लिए टैक्सपेयर का धन बर्बाद किया जा रहा है।

इससे पहले काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ने साल 2021 में परास्नातक (PG) स्तर पर ‘हिन्दू स्टडीज़’ पाठ्यक्रम शुरू किया था। इस कोर्स में हिंदू धर्म, शास्त्रों, प्राचीन इतिहास, संस्कृति, वास्तुकला, युद्ध कलाओं, और संगीत आदि की पढ़ाई शुरू कराने का दावा किया गया था। पाठ्यक्रम के संयोजक प्रो. सदाशिव द्विवेदी के अनुसार, हिंदू परंपराओं की गलत व्याख्याओं को दूर करने और वैश्विक स्तर पर सही उत्तर देने की दृष्टि से यह पहल की गई है। हालांकि, इस कोर्स को लेकर बीएचयू के ही कुछ प्रोफेसरों ने आपत्ति जताई है। उनका मानना है कि इसमें कोई नया विषय नहीं जोड़ा गया, बल्कि यह एक खास विचारधारा को बढ़ावा देने की कोशिश है।

बीएचयू के छात्र अजय कुमार भारती कहते हैं, “बाबा साहेब के हिन्दू धर्म को छोड़ने की सबसे बड़ी वजह मनुस्मृति रही। इतिहास के पन्नों को पलटने से पता चलता है कि महात्मा ज्योतिबा फुले ने सबसे पहले मनुस्मृति को चुनौती दी और खेतिहर किसानों, मजदूरों, वंचित तबके के लोगों की हालत देखकर उन्होंने ब्राह्मणों की आलोचना की। इसके बाद 25 जुलाई, 1927 को बाबा साहेब डा. भीमराव आंबेडकर ने महाराष्ट्र के कोलाबा में मनुस्मृति को जलाया।”

नाटकीय है बीएचयू का महौल

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष रहे अनिल श्रीवास्तव कहते हैं, “बीएचयू का माहौल पिछले कुछ वर्षों में नाटकीय रूप से बदला है। यह विश्वविद्यालय, जो कभी शिक्षा और संस्कृति का प्रतीक हुआ करता था, अब प्रशासनिक, अकादमिक और सामाजिक असंतोष का केंद्र बनता जा रहा है। बीएचयू, जो पहले अपनी उच्च शैक्षणिक गुणवत्ता के लिए देशभर में प्रसिद्ध था, अब अकादमिक दृष्टिकोण से बहुत पीछे खड़ा हो चुका है। इस गिरावट का सबसे बड़ा कारण पिछले कुछ वर्षों में हुई अध्यापकों की नियुक्तियाँ मानी जा रही हैं, जहां योग्यता से अधिक जातीय और राजनीतिक समीकरण हावी रहे हैं। इसके परिणामस्वरूप, विश्वविद्यालय में कई विषयों में न केवल शोध कार्यों की स्थिति खराब हुई है, बल्कि उच्चस्तरीय अध्यापन का स्तर भी प्रभावित हुआ है।”

“पहले जहां बीएचयू के शिक्षकों को उनकी विशेषज्ञता और शोध की गुणवत्ता के आधार पर नियुक्त किया जाता था, वहीं अब यह प्रक्रिया राजनीतिक और जातीय समीकरणों के तहत चलने लगी है। इससे न केवल शिक्षा की गुणवत्ता में कमी आई है, बल्कि छात्रों के भविष्य पर भी असर पड़ा है। शोध और अकादमिक कार्यों में हो रही गिरावट ने विश्वविद्यालय की प्रतिष्ठा को भी नुकसान पहुँचाया है। विश्वविद्यालय में अब जो अध्यापन होता है, वह एक समान मानक पर आधारित नहीं है, और छात्रों को शिक्षा का वास्तविक लाभ नहीं मिल रहा है।”

अनिल यह भी कहते हैं, “बीएचयू को शोध और उन्नत शिक्षा का केंद्र माना जाता था, लेकिन अब शोध कार्यों की गुणवत्ता गिर गई है। शोधार्थियों को अब स्वतंत्रता से काम करने का अवसर नहीं मिल रहा है, और विश्वविद्यालय में प्रशासनिक अड़चनें भी बढ़ गई हैं। शोध की दिशा में निरंतर हो रही गिरावट ने छात्र समुदाय में निराशा की भावना पैदा की है। पहले जहां छात्र और शिक्षक खुले विचारों के साथ शैक्षणिक चर्चाओं में भाग लेते थे, वहीं अब राजनीतिक दबावों और प्रशासनिक हस्तक्षेप ने शिक्षा के स्वतंत्र माहौल को प्रभावित किया है। इसने छात्रों की मानसिकता और विचारधारा पर प्रतिकूल असर डाला है।”

“बीएचयू का अकादमिक माहौल केवल छात्रों के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे शैक्षणिक तंत्र के लिए चिंता का विषय बन चुका है। विश्वविद्यालय में बढ़ती असमानताएं, प्रशासनिक अनदेखी, शोध की गिरती गुणवत्ता, और राजनीतिक हस्तक्षेप ने इस महान संस्थान की साख को नुकसान पहुँचाया है। अब समय आ गया है कि बीएचयू अपने मूल आदर्शों की ओर लौटे और शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार लाए। छात्रों को एक सुरक्षित और श्रेष्ठ शैक्षणिक वातावरण प्रदान करना विश्वविद्यालय का कर्तव्य है और इसे प्राथमिकता के रूप में लेना चाहिए।”

(विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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