सोशल मीडिया पर आज के जमाने के मशहूर फिल्म निर्देशक, अनुराग कश्यप के खिलाफ गंदी-गंदी गालियों की बौछार देखी जा सकती है। इन्स्टाग्राम पर किसी पोस्ट में एक यूजर ने जब अनुराग कश्यप को लिखा कि, “ब्राह्मण तुम्हारे बाप हैं। जितना तुम्हारी उनसे सुल_गी उतना सुल_एंगे।” जिस पर भड़ककर अनुराग कश्यप ने जो टिप्पणी की, वह उनके जी का जंजाल बनता जा रहा है। उनकी गिरफ्तारी की मांग का शोर हर तरफ से सुनाई देने लगा है। कोई इस बात की चिंता नहीं कर रहा कि हिंदी सिनेमा में जनसरोकार से जुड़ी फिल्में बनाने की गुंजाइश किस कदर खत्म होती जा रही है, और यदि आप वर्चस्ववादी सोच के तहत मुस्लिम अल्पसंख्यकों को विलेन या इतिहास में बर्बर स्वरुप में नहीं दिखा सकते तो आपके लिए धीरे-धीरे अपना काम कर पाना संभव नहीं है।
अनुराग कश्यप का जवाब निहायत ही गैर-जिम्मेदार और निंदनीय है, जिसमें उनका कहना था कि , “ब्राह्मण पर मैं मू_गा। कोई प्रॉब्लम?”
यह बात किसी भी जाति विशेष के खिलाफ दी गई टिप्पणी थी, जिसके खिलाफ रोष स्वाभाविक है। लेकिन जान से मारने की धमकी से लेकर परिवार की महिलाओं के साथ बलात्कार की धमकियां देने वाले सोशल मीडिया ट्रोल आर्मी ने सारी हदें पार कर दी हैं। ऊपर से नॉएडा गोदी मीडिया ने भी इसे मुद्दा बनाकर ब्रेकिंग न्यूज़ के तौर पर दिखाना शुरू कर दिया है, जिसमें अनुराग कश्यप को बीमार मानसिकता वाला बताया जा रहा है।
अनुराग कश्यप ने अपने अंदाज में माफ़ी भी मांग ली है, और यह कहते हुए ईमानदारी का भी परिचय दिया है कि मुहं से निकली बात वापस नहीं ली जा सकती। भारत में राजनीतिज्ञों ने तो इसे पेशा ही बना लिया है, कुछ भी बोल दो और बाद में कह देते हैं कि मेरे बयान को तोड़-मोड़कर दिखाया गया, या मैं कहना ये चाहता था, फेक है इत्यादि।
लेकिन गंभीर प्रश्न इस टिप्पणी के पीछे की उस जद्दोजहद में है, जिससे आज संजीदा फिल्म निर्देशक ही नहीं हर आम भारतीय जूझ रहा है। वह है हर भारतीय के मौलिक अधिकारों की रक्षा का, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का। पिछले एक दशक से बीजेपी-संघ पोषित विचारों का चारों तरफ बोलबाला है, जिसका पहलेपहल विरोध साहित्यकारों और लेखकों की ओर से किया गया, जिन्हें लगभग मुर्दा बनाया जा चुका है। मुंबई फिल्म इंडस्ट्री भी इससे अछूती नहीं है। बॉलीवुड तो पहले से कमर्शियल सफलता को अपना मूलमंत्र समझती आई है, इसलिए कॉर्पोरेट की मदद पर पल रहे कलाकारों, निर्देशकों से कोई खास उम्मीद पहले भी नहीं थी।
लेकिन इन्हीं के बीच समानांतर सिनेमा, जिसे एक जमाने में देश की सरकार ही वित्तीय मदद देकर खड़े होने में मदद किया करती थी, उसके लिए तो इधर कुआँ तो उधर खाई वाली स्थिति बन चुकी है। कदम-कदम पर ऐसी फिल्में बनाने वालों के सामने भी अस्तित्व का संकट खड़ा होता जा रहा है। यदि आप “कश्मीर फाइल्स”, “छावा” जैसी फिल्में बनाते हैं, जिनमें इतिहास को इस कदर विकृत कर एक खास धर्म और उसके प्रतीकों को हिंदू समुदाय के विलेन के तौर पर दिखाया जाता है, तो उसके समर्थन में न सिर्फ भाजपा राज्य सरकारें टैक्स फ्री प्रदर्शन की अनुमति देती हैं, बल्कि कई बार तो स्कूली बच्चों तक को सामूहिक रूप से सिनेमाघरों में मुफ्त दर्शन कराए जाते हैं।
और लोगों की तो बात ही छोड़ दें, स्वंय देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सार्वजनिक मंचों से ऐसी फिल्मों का प्रचार करते देखे गये हैं। फिल्म के कलाकारों और निर्देशकों को अपने सोशल मीडिया हैंडल पर फॉलो करने के अलावा उन्हें पार्टी टिकट देकर सांसद या विधायक तक बनाने में बीजेपी कोई गुरेज नहीं करती। ये ही लोग फिर फिल्म इंडस्ट्री में तमाम पदों पर आसीन होने से लेकर दूसरों को कैसी फिल्में बनानी चाहिए या नहीं, का पाठ पढ़ाने लगते हैं। नतीजा, बहुसंख्य कैरियरवादी, अवसरवादी कलाकार, “जैसा देश, वैसा भेष” की मुद्रा अपनाकर अपनी-अपनी गोटी लाल करने के लिए सरकार के हर सही-गलत कदम पर अक्सर एक साथ सोशल मीडिया पर एक ही तरह की पोस्ट डालते देखे गये हैं।
ये सिर्फ फ़िल्मी कलाकार ही नहीं होते, बल्कि क्रिकेट सुपरस्टार्स, बैडमिंटन से लेकर संगीत या स्वघोषित धर्मगुरु, जिनका भी समाज पर प्रभाव होता है, वे सरकार की भाषा बोलने लगते हैं। अब चूँकि हर कोई तो घंटों तथ्यों की पड़ताल करने के लिए समय नहीं खपा सकता, इसलिए सरकार, मीडिया और सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स मिलकर देश के आम लोगों की सोच-समझ को एक निश्चित दिशा देने का काम करते हैं।
लेकिन जैसा हमेशा से होता आया है, नियम का अपवाद भी होता है। देश में आज भी बड़ी संख्या में न सही, लेकिन इसके बावजूद अच्छीखासी तादाद में तर्कशील दिमाग भी हैं, जो सत्ता के द्वारा थोपे जाने वाले हर नैरेटिव को उलट-पलट कर देखते हैं, और कभी-कभी सवाल दागने से भी बाज नहीं आते। अनुराग कश्यप भी उन्हीं में से एक हैं, या यह कहें कि अपने साथ एक छोटा-मोटा हुजूम भी फिल्म इंडस्ट्री में लेकर चलते हैं, तो अतिश्योक्ति नहीं है।
यहां पर भी यदि अनुराग कश्यप ने अपना आपा खोकर एक ऐसी अशोभनीय बात कही है, तो उसके पीछे भी एक लंबी कशमकश है, जिसे इस विवाद में सिरे से अनदेखा किया जा रहा है। उनकी हाल की टिप्पणियों पर गौर करने पर पता चलता है कि वे 11 अप्रैल को रिलीज होने वाली फिल्म “फुले” पर सेंसर बोर्ड की कैंची को लेकर लगातार रोष व्यक्त कर रहे थे। अनुराग कश्यप की विवादित टिप्पणी भी फुले फिल्म के संदर्भ में ही थी।
जिस फिल्म को पहले बीजेपी सरकार द्वारा नियुक्त सेंसर बोर्ड ने जारी करने की अनुमति दे दी थी, उसे ब्राह्मण समाज की आपत्तियों के मद्देनजर ही बाद में दबाव के चलते बोर्ड ने कई जगहों पर संवादों में हेरफेर करने और 11 अप्रैल को फुले की जयंती पर रिलीज न कर अब 25 अप्रैल को रिलीज करने की इजाजत दी है।
इस विवाद से पहले भी अनुराग कश्यप अपनी एक सोशल मीडिया पोस्ट में लिखते हैं, “मेरी जिंदगी का पहला नाटक ज्योतिबा और सावित्रीबाई फुले पर था। भाई अगर जातिवाद नहीं होता इस देश में तो उन्हें लड़ने की क्या जरूरत थी इस देश में। अब ये ब्राह्मण लोगों को शर्म आ रही है या वे शर्म में मरे जा रहे हैं, या फिर एक अलग ब्राह्मण भारत में जी रहे हैं जो हम देख नहीं पा रहे हैं। चू _या कौन है कोई तो समझाये।”
और फिर सबसे बड़ा सवाल तो यह खड़ा होता है कि आज अनुराग कश्यप को घेरकर लिंच करने वाला गोदी मीडिया, जो उनके कमेन्ट पर इतना आहत महसूस कर रहा है, ने मध्यप्रदेश में इसे अंजाम देने वाले एक ब्राह्मण (बीजेपी कार्यकर्ता) के खिलाफ भी इसी तरह का अभियान चलाया था? उल्टा अखिल भारतीय ब्राहमण समाज नामक संगठन ने आरोपी प्रवेश शुक्ल के परिवार को 51,000 रूपये की आर्थिक सहायता राशि प्रदान कर भारत को लोकतांत्रिक देश बनाने के बजाय मनुवादी व्यवस्था को ही सिरे चढ़ाने का काम किया।
सोशल मीडिया में यह भी बताया जा रहा है कि अनुराग कश्यप के पिता क्षत्रिय और माँ ब्राह्मण परिवार से हैं। अनुराग स्वंय को जाति-व्यवस्था के खिलाफ एक प्रगतिशील और रचनात्मक कर्म से जुड़ा संस्कृतिकर्मी मानते हैं, लेकिन उनकी एक गलत टिप्पणी ने जहां उन्हें सत्ता के निशाने पर ला दिया है तो यहीं से उनके लिए एक नए मुकाम तक जाने की राह भी खुलती है।
जिस “छावा” फिल्म को महाराष्ट्र के सिनेमाघरों में दिखाकर किशोर युवाओं के दिलों में दूसरे समुदाय के प्रति नफरत का भाव भरा जा रहा है, और 80 के दशक के आरक्षण विरोधी गुजरात आंदोलन की तरह मराठा आरक्षण की लड़ाई को मुस्लिम अल्पसंख्यकों के खिलाफ मोड़ने की पुरजोर कोशिश है, उसी महाराष्ट्र को फुले के बायोपिक से आपत्ति कैसे हो सकती है? भारत में सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन के मामले में अग्रणी महाराष्ट्र और बंगाल आज भी कई मामलों में शेष भारत से अग्रणी रहे हैं। यह सोच समाज के भीतर से नहीं बल्कि समाज के उन कथित ठेकेदारों के माध्यम से आ रही है, जो राष्ट्र के सांगोपांग नवजागरण को किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं कर सकते।
अनुराग कश्यप को भी समझना होगा कि वे एक स्थापित फिल्म निर्देशक होने के साथ-साथ देश के जिम्मेदार नागरिक भी हैं। लीक से हटकर अपनी फिल्मों को बनाने और व्यवसायिक रूप से सफल बनाने के लिए उन्हें हिंसक और गाली-गलौत वाली भाषा का इस्तेमाल युवा पीढ़ी को आकृष्ट करने के लिए करना पड़ता है। लेकिन सार्वजनिक मंचों पर ट्रोल आर्मी की भाषा का खुद उनके खिलाफ इस्तेमाल, उनके लिए ही घातक साबित हो सकता है। एक बात और, वे आमिर या शाहरुख़ खान की तरह अल्पसंख्यक समाज से नहीं आते, ठेठ यूपी से हैं, जहां से प्रधानमंत्री का ख्वाब रखने वाले हर राजनीतिज्ञ को चुनाव लड़ने की मजबूरी है, इसलिए यह बवेला बहुत ज्यादा दूर नहीं खिंचेगा। अनुराग अपनी रचनात्मकता को और धारदार बनाकर समाज को अभी बहुत कुछ दे सकते हैं।
(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)
+ There are no comments
Add yours