“ज़ख़्म अगर शहर की दीवारों से रिसने लगें, तो समझ लीजिए कोई ख़ामोशी क़त्ल कर दी गई है।”
भारत की सरज़मीं ने आतंकवाद के कई चेहरे देखे हैं- वो चेहरे जो इंसानियत का ख़ून पीते हैं, और हर बार अपने पीछे सिर्फ़ मातम छोड़ जाते हैं। दिल्ली की बसें, मुंबई की लोकल ट्रेनें, उरी की पोस्ट, पुलवामा की सड़कें- और अब पहलगाम का वो इलाक़ा, जहां फ़िज़ाओं में कभी सिर्फ़ बर्फ़ की नर्मी और झीलों की ठंडक घुला करती थी।
लेकिन इस बार पहलगाम की फ़िज़ा में गोलियों की आवाज़ नहीं, इंसानियत की सदा गूंजी। इस बार नज़ारा बदला। नफ़रत का जो स्क्रिप्ट हर बार दोहराया जाता था- “हिंदू बनाम मुस्लिम”, “कश्मीर बनाम भारत”- वो इस बार कश्मीरी अवाम की मुहब्बत और मातम के सामने बेमानी हो गया। घाटी से जो आवाज़ें उठीं, वो ज़ख़्मी भी थीं, ज़मीरदार भी। उन्होंने दहशतगर्दी को सिर्फ़ लानत नहीं भेजी, बल्कि उस टीवीपुरम् को आइना भी दिखाया जो हर मातम को टीआरपी की मंडी में बेचता है।
टीवीपुरम् अब रिपोर्टिंग नहीं करता, सिर्फ़ रचता है- और वो भी बिना जमीर, बिना ज़मीन।
स्टूडियो की रौशनी में बैठे एंकर अब किराए के कलाकारों से कम नहीं लगते, जिनकी स्क्रिप्ट कहीं और से लिखी जाती है। उनका काम सिर्फ़ एक है- ज़हर फैलाना, शक की हवा बनाना, और उस नफ़रत को परोसना जो आज की राजनीति की सबसे सस्ती करेंसी बन चुकी है। पहलगाम के बाद भी यही हुआ- बिना किसी तथ्य, बिना किसी तहकीक़ात, बस वही रटी हुई पंक्तियाँ: “कश्मीर पर सवाल”, “मुस्लिम समुदाय की चुप्पी”, “देशभक्ति का टेस्ट”।
लेकिन सच्चाई ये है कि हर बार देश के खुफ़िया तंत्र की नाकामी भी सामने आती है।
कब तक ये दोहराया जाएगा कि ‘इनपुट था’, लेकिन कार्रवाई नहीं हुई? कब तक हम अपने शहीदों के ख़ून को सिर्फ़ भाषणों में बहाते रहेंगे? और हर बार- हर बार- हमला होने के बाद हम अपने ही देशवासियों पर शक करने लगते हैं। ख़ासकर कश्मीरी मुसलमानों पर, जिनकी आंखों में भी आंसू हैं, जिनके घरों में भी मातम है, और जिनका दिल भी इस मुल्क़ की सलामती चाहता है।
दहशतगर्दी का मुक़ाबला ग़ुस्से से नहीं, होश और हिकमत से होता है।
जो दुश्मन सरहद पार से आता है, उसे नेस्तनाबूद करना हमारी फ़ौज जानती है। लेकिन जो दुश्मन अंदर से हमारी सोच को ज़हरीला करता है, उसे बेनक़ाब करना हमारी ज़िम्मेदारी है। ये ज़हर टीवी के पर्दों से टपकता है, व्हाट्सऐप के फॉरवर्ड्स में पलता है, और हर उस शख़्स की ज़ुबान पर चढ़ता है जिसने अपने तर्कों को किसी और की स्क्रिप्ट में गिरवी रख दिया है।
अब वक़्त है कि हम ‘हिंदू-मुस्लिम’ की ऐनक उतारें और भारत की आंखों से देखें।
कश्मीर सिर्फ़ एक भूगोल नहीं है, वो एक जज़्बा है- एक ऐसा हिस्सा जो हमारे दिल में धड़कता है। अगर हमें वाक़ई आतंकवाद से लड़ना है, तो पहले अपने शक, अपनी सियासत और अपनी संवेदनहीनता से लड़ना होगा। ये लड़ाई बमों से ज़्यादा नज़रों की है- वो नज़र जो हर बार कश्मीर को दुश्मन की तरह नहीं, अपने अज़ीज़ की तरह देखे।
देशभक्ति का मतलब ये नहीं कि हम हर सवाल पूछने वाले को ग़द्दार ठहराएं। देशभक्ति तब होती है जब हम अपने लोगों पर भरोसा करें, और अपने सिस्टम से जवाब मांगें।
अब ज़रूरत है एक नई परिभाषा की- जहां नफ़रत देशभक्ति का पैमाना न हो, और ख़बरें ज़मीर की गवाही दें। पहलगाम की चुप चीख़ इसी का सबूत है- कि इस मुल्क़ के ज़ख़्म अब पट्टी नहीं, इंसाफ़. मांगते हैं।
(जौवाद हसन स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
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