सरकार ने आतंकवाद के खिलाफ सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के गठन के साथ विपक्ष की धार को भोथरा कर दिया

भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध जैसे हालात से लेकर सीजफायर तक के सफर में मोदी सरकार को भले ही कई अनुत्तरित प्रश्नों से जूझना पड़ा हो, लेकिन विश्व में आतंकवाद के खिलाफ जीरो टॉलरेंस की मुहिम के लिए सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल की घोषणा के साथ उसने एक बार फिर साबित कर दिया है कि इंडिया गठबंधन वैचारिक एकता से शून्य, एक जमावड़ा मात्र है।

22 अप्रैल को हुई पहलगाम आतंकी घटना, जिसमें 26 निर्दोष पर्यटकों को आतंकियों का शिकार होना पड़ा, के बाद से ही विपक्ष संसद का विशेष सत्र बुलाने की मांग कर रहा था। इस मांग को ऑपरेशन सिंदूर और इसके चार दिन बाद हुए सीजफायर के बावजूद स्वीकार नहीं किया गया। पाकिस्तान की सीमा के भी personally आतंकी केंद्रों पर हवाई हमलों से लेकर सीजफायर तक, मोदी सरकार ने एकतरफा फैसले लिए। यह अलग बात है कि इस पूरे घटनाक्रम के दौरान भारतीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर के माध्यम से सरकार अमेरिकी विदेश विभाग के संपर्क में रही।

इस पूरे घटनाक्रम में भारत का खुलकर साथ देने वाला एकमात्र देश इजराइल रहा, जिसका वर्तमान में विश्व में मानवता के लिए सबसे बड़े खतरे के रूप में देखा जा रहा है। एक अन्य देश, जिसने हाल ही में भारत की कार्रवाई का समर्थन किया, वह है अफगानिस्तान की तालिबानी सरकार, जिसे भारत ने अभी तक मान्यता नहीं दी है।

हालात यह हैं कि अमेरिका सहित जी-7, जी-20, ब्रिक्स, यहां तक कि सार्क और बिम्सटेक समूह के देशों ने भी पहलगाम आतंकी हमले पर चिंता तो जताई, लेकिन भारत की कार्रवाई का किसी ने खुलकर समर्थन नहीं किया। दूसरी ओर, अमेरिकी राष्ट्रपति पूरी दुनिया में घूम-घूमकर बता रहे हैं कि उनकी वजह से दोनों देशों के बीच परमाणु युद्ध की संभावना टल गई, और वे एक बड़ी वैश्विक विभीषिका को रोकने में सफल रहे।

वास्तव में, ट्रंप यह बता रहे हैं कि दक्षिण एशिया के ये दोनों देश जिम्मेदार नहीं हैं, और दुनिया को इन दोनों देशों के प्रति सोच-समझकर फैसले और निवेश करने चाहिए। एक और बात, भारत की इस पहल के बाद, जिस पाकिस्तान को अभी तक विफल राष्ट्र के रूप में गिना जाता था, उसे आज भारत के साथ बराबरी पर पुकारा जा रहा है। ट्रंप के हर वक्तव्य में साफ सुना जा सकता है कि भारत और पाकिस्तान के नेताओं को ट्रेड डील के प्रस्ताव पर राजी करने में वे सफल रहे। उनके लिए भारत के नेता जितने पक्के दोस्त हैं, उतने ही पाकिस्तान के।

इसके अलावा, भारतीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर का यह बयान बेहद चौंकाने वाला है कि ऑपरेशन सिंदूर को अंजाम देने से पहले ही भारत ने पाकिस्तान सरकार को सूचित कर दिया था कि भारतीय सेना पाकिस्तान स्थित आतंकी ठिकानों पर लक्षित हमले करेगी, लेकिन पाकिस्तानी सैन्य प्रतिष्ठानों पर कोई हमला नहीं करेगी। इस स्वीकारोक्ति के बाद अब यह स्पष्ट हो रहा है कि कैसे भारतीय वायुसेना के हमले पर पाकिस्तानी सेना की जवाबी कार्रवाई संभव हो सकी, जिसके बारे में पश्चिमी मीडिया में एक के बाद एक लेख और खुलासे हो रहे हैं।

अब यदि भारत सरकार यह समझती है कि अमेरिका की तरह हम भी किसी देश की सीमा में आतंकियों के अड्डों को नष्ट कर सकते हैं, और वैश्विक शक्तियां इस पर खामोश रहेंगी, तो शायद हमें वास्तविकता की जांच करने की जरूरत है। कनाडा और संयुक्त राज्य अमेरिका में खालिस्तानी चरमपंथियों पर भाड़े के हत्यारों से हमले के मामले में भारत पर पहले से ही आरोप लगे हुए हैं। घर में घुसकर मारने की छूट अभी तक केवल महाशक्ति अमेरिका के पास थी, और वह दावेदारी भी कमजोर पड़ती जा रही है। भारत सहित तीसरे विश्व के देश इसके खिलाफ खुलकर विरोध करते थे। आज भारतीय विदेश मंत्री स्वयं बता रहे हैं कि उन्होंने एक पड़ोसी संप्रभु देश के भीतर लक्षित हमले की पूर्व सूचना दे दी थी।

ऑपरेशन सिंदूर के बाद जवाबी हमले और उसके पश्चात भारतीय ब्रह्मोस मिसाइल से पाकिस्तानी वायुसेना अड्डे पर हमलों ने निश्चित रूप से एक बड़े युद्ध की रूपरेखा तैयार कर दी थी। भारत समझ रहा था कि ऑपरेशन बालाकोट की तरह इस बार भी पाकिस्तान की ओर से जवाबी हमला नहीं होगा, लेकिन यह 2019 वाला पाकिस्तान नहीं था। अगस्त 2019 में कश्मीर से धारा 370 के निरसन और लद्दाख को केंद्रशासित प्रदेश बनाने की घोषणा के बाद से समूचा परिदृश्य बदल चुका है।

लद्दाख में चीनी सेना की घुसपैठ और 1962 के बाद पहली बार हिंसक टकराव देखने को मिला, जिसे भारत सरकार ने अनदेखा करना बेहतर समझा। पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव और 60 बिलियन डॉलर के निवेश के साथ ही यह तय हो गया था कि भविष्य में यदि पाकिस्तान के साथ तनाव बढ़ता है, तो भारत को पाकिस्तान नहीं, बल्कि चीन से मुकाबला करना होगा। लेकिन इस बार भी हम पाकिस्तान का समर्थन करने वाले किन देशों का बहिष्कार कर रहे हैं? तुर्की और अजरबैजान का।

भाजपा की तिरंगा यात्रा पर आम भारतीयों के ठंडे रिस्पॉन्स और पार्टी नेताओं व मंत्रियों के बेतुके बयानों को देखते हुए मोदी सरकार ने रणनीति बदलते हुए अब विपक्ष को शामिल कर दुनिया में आतंकवाद के खिलाफ मुहिम चलाने का फैसला लिया है। इसके लिए पहले संसद में चर्चा की जरूरत भी नहीं समझी गई, जहां सर्वसम्मति से फैसला लेकर दुनिया को दिखाया जा सकता था कि समूचा देश इस मुद्दे पर एकमत है।

लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि इस बार मोदी सरकार का दांव सटीक बैठा है। सरकार ने प्रतिनिधिमंडल में शामिल होने के लिए विपक्षी दलों से अपने-अपने सांसदों के नाम सुझाने का अनुरोध किया।

कांग्रेस प्रवक्ता जयराम रमेश ने इस संदर्भ में सूचित करते हुए कहा, “कल सुबह संसदीय कार्य मंत्री किरेन रिजिजू ने कांग्रेस अध्यक्ष और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष के साथ बात की थी। कांग्रेस से पाकिस्तान से आतंकवाद पर भारत के रुख को स्पष्ट करने के लिए विदेश भेजे जाने वाले प्रतिनिधिमंडलों के लिए चार सांसदों के नाम प्रस्तुत करने को कहा गया। कल, 16 मई को दोपहर तक, लोकसभा में विपक्ष के नेता ने संसदीय कार्य मंत्री को कांग्रेस की ओर से निम्नलिखित नाम देते हुए पत्र लिखा। ये नाम हैं: 1. श्री आनंद शर्मा, पूर्व केंद्रीय कैबिनेट मंत्री; 2. श्री गौरव गोगोई, विपक्ष के उप-नेता, कांग्रेस लोकसभा; 3. डॉ. सैयद नसीर हुसैन, सांसद, राज्यसभा; 4. श्री राजा बरार, सांसद, लोकसभा।”

लेकिन मोदी सरकार को कांग्रेस की भेजी सूची पसंद नहीं आई, और उन्होंने कांग्रेस के वरिष्ठ सांसद शशि थरूर के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल को अपनी मंजूरी दे दी। शशि थरूर भी सरकार के इस फैसले से उत्साहित हैं। उन्होंने तत्काल सरकारी विज्ञप्ति को टैग कर अपने सोशल मीडिया हैंडल पर स्वीकृति देते हुए लिखा, “मैं हाल की घटनाओं पर हमारे देश का दृष्टिकोण प्रस्तुत करने के लिए पांच प्रमुख राजधानियों में एक सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व करने के लिए भारत सरकार के निमंत्रण से सम्मानित महसूस कर रहा हूं। जब राष्ट्रीय हित का मुद्दा हो और मेरी सेवाओं की जरूरत हो, तो मैं किसी भी सूरत में पीछे नहीं रहूंगा। जय हिंद!”

पिछले कुछ समय से शशि थरूर लगातार भाजपा, विशेषकर पीएम मोदी के नेतृत्व को लेकर चर्चा में रहे हैं। ऑपरेशन सिंदूर को लेकर भी उन्होंने मीडिया साक्षात्कारों में जिस प्रकार से सरकार का बचाव किया, वैसा स्वयं भाजपा के प्रवक्ता भी नहीं कर पाए। कांग्रेस नेता राहुल गांधी के जाति जनगणना के मुद्दे पर मजबूत रुख ने भी उन पुराने कांग्रेसी नेताओं को असहज कर दिया है, जिनमें शशि थरूर को अग्रणी माना जाता है। वैसे भी, वे केरल कांग्रेस की राजनीति में अलग-थलग दिखते थे।

सरकार ने जिन सात सांसदों के नेतृत्व में प्रतिनिधिमंडल को स्वीकृति दी है, उनमें शशि थरूर के अलावा भाजपा से चार सांसद—रविशंकर प्रसाद, बैजयंत पांडा, जेडीयू से संजय कुमार झा, शिवसेना से श्रीकांत शिंदे, एनसीपी से सुप्रिया सुले, और डीएमके से कनिमोझी शामिल हैं। अभी तक केवल एक सांसद, तृणमूल कांग्रेस के सुदीप बंधोपाध्याय ने स्वास्थ्य कारणों का हवाला देते हुए प्रतिनिधिमंडल में शामिल होने में असमर्थता जताई है। उक्त सात सांसदों के अलावा भी कई नामों की चर्चा है, जिनमें असदुद्दीन ओवैसी का नाम सबसे प्रमुख है, और वे लगातार प्रेस को संबोधित भी कर रहे हैं।

लेकिन असल सवाल अभी भी अनुत्तरित है कि ऑपरेशन बालाकोट को अंजाम देने के बाद अब दुनिया के सामने भारतीय प्रतिनिधिमंडल क्या हासिल करना चाहता है। इसी बीच, पाकिस्तान को आईएमएफ की किश्त जारी कर दी गई, जिसे अमेरिका, फ्रांस, और ब्रिटेन आसानी से वीटो कर सकते थे। भारत ने इसका विरोध किया, लेकिन अंत में इन देशों के रुख को देखकर उसने मतदान का बहिष्कार किया।

26/11 के मुंबई आतंकी हमले के बाद पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार ने पाकिस्तान पर हमला करने के बजाय सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल का गठन किया था, जिसने आतंकी हमले के सबूत दुनिया के सामने पेश किए थे। घरेलू मोर्चे पर पाकिस्तान को सबक सिखाने के दबाव के बावजूद, कूटनीतिक दबाव बनाकर पाकिस्तान को वैश्विक मंच पर अलग-थलग करने में सफलता हासिल की थी। नतीजतन, FATF ने पाकिस्तान को ग्रे लिस्ट में डालकर निवेश और आर्थिक प्रतिबंधों के जरिए उसकी मुश्किलें काफी हद तक बढ़ा दी थीं। ऐसा माना जाता है कि 2008 के बाद सीमा पार से आतंकी हमलों में भारी गिरावट देखने को मिली थी।

लेकिन यहां हम पहलगाम हमले के सबूतों और हमलावरों को जिंदा या मुर्दा बरामद किए बिना पहले तो पाकिस्तान की सीमा के भीतर आतंकी ठिकानों पर हमला करते हैं, और फिर दुनिया में आतंकवाद के खिलाफ जीरो टॉलरेंस की मुहिम शुरू करते हैं, जिसे वैश्विक ताकतों ने अपनी प्राथमिकता से बाहर रखा है। आज भूराजनीति बहुध्रुवीय होने के कारण नए तनावों से जूझ रही है।

ट्रेड वॉर आज अमेरिका की पहली प्राथमिकता है, जिसके तहत वह चीन को अलग-थलग करने की रणनीति पर पूरा ध्यान केंद्रित किए हुए है। जी-7 के देश भी इस अंधड़ में अपने लिए नया ठौर-ठिकाना तलाश रहे हैं। ऐसे में, ऑपरेशन सिंदूर और सीजफायर के बाद आतंकवाद पर विश्व जनमत को अपने पक्ष में करना संभव नहीं दिखता। हालांकि, विपक्ष की संसद सत्र की मांग और उनकी एकता को तोड़ने में सरकार को सफलता मिलती दिख रही है।

(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)

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