क्या आरजेडी का कोर वोटर उसे छोड़ रहा है?

पंद्रह साल तक बिहार की सत्ता के केंद्र में रहने के बाद, पिछले 20 वर्षों से लालू प्रसाद का परिवार विपक्ष में है। राज्य में विधानसभा चुनाव होने में अभी छह महीने बाकी हैं, लेकिन राज्य की जनता के वर्तमान रुख को लेकर किया गया एक हालिया अध्ययन बताता है कि लालू-राबड़ी शासनकाल को नीतीश कुमार ने जिस ‘जंगलराज’ के नाम से नवाजा था, जमीन पर वह ‘परसेप्शन’ भले ही थोड़ा कमजोर हुआ हो, लेकिन अभी पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है। भाजपा और नीतीश कुमार, दोनों ने बहुत सचेतन तरीके से इस ‘परसेप्शन’ को बिहार की जनता के बीच जिंदा रखा है, ताकि राज्य सरकार की असफलताओं, घपलों और घोटालों पर उठने वाले हर सवाल को सिस्टम सुधार में लगने वाले समय के नाम पर ‘जस्टिफाई’ किया जा सके।

चुनावी सर्वे से उपजे सवाल

हाल ही में बिहार में 5,000 लोगों पर एक चुनावी सर्वे किया गया। इस सर्वे में सामने आया कि वर्तमान में नीतीश कुमार की सरकार के खिलाफ जनता के पास कोई मजबूत विकल्प नहीं है। लोगों ने स्वीकार किया कि भले ही नीतीश कुमार शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के मोर्चे पर असफल रहे हों, लेकिन इस सरकार का विकल्प अभी तेजस्वी यादव नहीं हो सकते। सर्वे में शामिल लोगों ने इसके पीछे तर्क दिया कि वे पिछले दौर की वापसी नहीं चाहते। इसका मतलब है कि विपक्ष बदलाव की आकांक्षा रखने वाली जनता को अभी आरजेडी से इतर कोई ठोस विकल्प देने की स्थिति में नहीं है।

आरजेडी के कोर समर्थक ‘यादव’ वोटर का भाजपा में शिफ्ट होना

सर्वे में यह बात सामने आई कि बिहार का यादव मतदाता, जिसकी राज्य में लगभग 14% आबादी है और जिसे एक समय लालू यादव के परिवार का कोर समर्थक माना जाता था, उसका 31% अब भाजपा में शिफ्ट हो चुका है। इसके अलावा, राज्य के 19% मुस्लिम मतदाता भी अब भाजपा को वोट देने लगे हैं, जबकि ये दोनों समुदाय पहले लालू परिवार के एकतरफा समर्थक माने जाते थे।

यह सवाल उठता है कि ये यादव मतदाता आरजेडी छोड़ने के बाद भाजपा में ही क्यों गए? इन्होंने नीतीश कुमार को अपना नेता क्यों नहीं चुना? आखिर इन्होंने भाजपा को ही क्यों चुना, जबकि वर्तमान में बिहार भाजपा के पास कोई मजबूत चेहरा भी नहीं है?

इसका सीधा मतलब है कि इन लोगों को हिंदुत्व की राजनीति में अपने लिए स्वाभाविक स्थान दिखा। इसे आरजेडी की विचारधारा-शून्य राजनीति की विडंबना कह सकते हैं, जहां उसका कोर वोटर हिंदुत्व की राजनीति के साथ सहज हो जाता है। इसका यह भी मतलब है कि हिंदुत्व के मुकाबले यादव जातीय अस्मिता कमजोर हुई है। यह दर्शाता है कि लालू प्रसाद यादव की अपने इस जातीय वोटर पर पकड़ ढीली पड़ गई है।

वर्तमान स्थिति में बदलाव के आसार नहीं

सर्वे में शामिल लोगों का मानना है कि यदि आज विधानसभा चुनाव हो, तो बिहार का यादव समुदाय पिछली बार से अधिक वोट भाजपा को देगा। इसका कारण यह धारणा है कि तेजस्वी यादव अब विपक्ष में ही रहेंगे। अगर जाति को राजनीतिक रूप से प्रासंगिक बनाए रखना है, तो भाजपा के सियासी ढांचे में प्रतिनिधित्व या हिस्सेदारी लेनी होगी। लोग मानते हैं कि नीतीश कुमार का स्थान भविष्य में केवल भाजपा ही ले सकती है। इसलिए, प्रदेश के यादव पिछले विधानसभा चुनाव से ही भाजपा में अपने लिए जगह तलाश रहे हैं। कुछ लोगों ने यह भी कहा कि भाजपा ही किसी यादव को मुख्यमंत्री बना सकती है, जबकि नीतीश कुमार की पार्टी में यह संभव नहीं है। इसलिए, आरजेडी से हताश-निराश लोग भाजपा की ओर जा रहे हैं। आरजेडी के पास इन मतदाताओं की वापसी का कोई रोडमैप भी नहीं है।

कुर्मी-कुशवाहा बहुल जेडीयू में भी प्रतिनिधित्व की खोज

पिछले 20 वर्षों में बिहार का कुर्मी-कुशवाहा समुदाय काफी ताकतवर हुआ है। यह समुदाय लगभग 74% तक जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) को वोट दे रहा है। अब यह समुदाय राज्य में बड़े भाई की भूमिका में है, जबकि लालू-राबड़ी के दौर में यह सियासी तौर पर उपेक्षित महसूस करता था। बिहार में कुर्मी-कुशवाहा को दबंग जाति भी नहीं माना जाता। इसलिए, विधानसभा स्तर पर यादव इन दोनों जातियों से थोड़ी दूरी रखते हैं। हालांकि, लोकसभा चुनाव में यादवों ने अपनी जाति का संसद में प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए नीतीश कुमार के यादव प्रत्याशी को खुला समर्थन दिया। बांका लोकसभा से गिरधारी लाल यादव की जीत इसका प्रमाण है। फिर भी, विधानसभा स्तर पर यह समर्थन अभी कम है।

भाजपा के पास मुख्यमंत्री का चेहरा नहीं

वर्तमान में बिहार भाजपा के पास कोई सर्वमान्य नेतृत्व नहीं है। पार्टी में ऐसा कोई चेहरा नहीं है, जिसे आगे करके वह कह सके कि यह विधानसभा चुनाव में उसका मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार है। इसका मतलब है कि जब भाजपा नेतृत्वहीन है और अधिक सीटों के बावजूद सत्ताधारी गठबंधन में नंबर दो की भूमिका में है, तब भी यादव समुदाय भाजपा में अपने लिए जगह तलाश रहा है, क्योंकि यहाँ उन्हें अधिक अवसर दिख रहे हैं। भाजपा ने इस समुदाय को राज्य की राजनीति में स्थान भी दिया है। प्रदेश का यादव वोटर इस पार्टी में अपने लिए अवसर देख रहा है और हिंदुत्व में उसका सहज समायोजन भी हो रहा है। विधानसभा अध्यक्ष नंद किशोर यादव और विधायक नवल किशोर यादव जैसे नेता भाजपा ने यहाँ तैयार किए हैं। यह तेजस्वी यादव को कमजोर करने की भाजपा की दीर्घकालिक रणनीति का हिस्सा है।

कांग्रेस अपने पुराने समर्थक समुदाय को समेट रही है

महागठबंधन के अन्य सहयोगी कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव की जोर-शोर से तैयारी शुरू कर दी है। 2020 के विधानसभा चुनाव में महागठबंधन की हार का सबसे बड़ा आरोप यही था कि कांग्रेस ने भले ही अधिक सीटें लीं, लेकिन उसके पास कई सीटों पर मजबूत प्रत्याशी नहीं थे। कांग्रेस राज्य में लगभग 15% वोट शेयर Oldest share के साथ बिहार में कांग्रेस के पास लगभग 15% वोट शेयर है, जिसे वह जमीनी स्तर पर दलित, मुस्लिम और पिछड़ा समुदाय से संवाद को बेहतर करके मजबूत करने की कोशिश कर रही है। सर्वे में पता चला कि पार्टी की जाति जनगणना की मांग को राज्य में सकारात्मक रूप से लिया गया है, लेकिन यह वोट में बदलेगा, इसमें संदेह है। लोगों की नजर में जाति जनगणना का श्रेय नरेंद्र मोदी को जाएगा।

तेजस्वी को तोड़ना होगा विपक्ष में बने रहने की धारणा

चुनाव पर चर्चा के दौरान एक पत्रकार, जो अपना नाम उजागर नहीं करना चाहते थे, ने कहा कि यदि किसी यादव बहुल सीट पर भाजपा और आरजेडी, दोनों यादव प्रत्याशी दें, तो संभव है कि भाजपा का प्रत्याशी अधिक वोट पाए। इसके पीछे उन्होंने कारण बताया कि पूरे राज्य में यह आम धारणा है कि नीतीश कुमार सत्ता से हटने वाले नहीं हैं। जब तक इस धारणा को नहीं तोड़ा जाएगा, लालू प्रसाद यादव के परिवार के लिए स्थितियाँ अनुकूल नहीं होंगी।

जाति की अस्मिता फासीवाद की वाहक

जिस तरह आरजेडी के जातिगत समर्थक भाजपा में शिफ्ट कर रहे हैं, उसे देखकर यही लगता है कि जाति की राजनीति की अंतिम मंजिल भाजपा ही है। भाजपा जातिगत अस्मिताओं को संतुष्ट कर रही है। उसने लालू परिवार के रहते हुए उसके कोर यादव वोटर में नेतृत्व पैदा करने की कोशिश की है और उन्हें विधायक भी बनाया है। यह लालू परिवार के लिए एक बड़ी चुनौती है।

कुल मिलाकर, महागठबंधन में भले ही लालू प्रसाद यादव का परिवार बड़ा खिलाड़ी हो, लेकिन यह सुखद नहीं है कि उसके कोर समर्थकों का एक हिस्सा विपक्षी पार्टी में जाकर स्थापित हो चुका है। जब तक इसके कारणों का विश्लेषण और समाधान नहीं किया जाएगा, तब तक महागठबंधन को मजबूत करना या इसके सहारे भाजपा जैसी पार्टी को बिहार में हराने की बात बेमानी है। बेहतर होगा कि एनडीए को सियासी तौर पर घेरने की कोशिश की जाए और उसकी असफलताओं पर जनता के बीच चर्चा करके समर्थन माँगा जाए। केवल जातियों को जोड़कर सत्ता में वापसी की राजनीति के दिन अब खत्म हो चुके हैं।

(हरे राम मिश्र स्वतंत्र पत्रकार हैं और प्रयागराज, उत्तर प्रदेश में रहते हैं)

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