अमेरिकी राष्ट्रपति पद के पूरे इतिहास में अक्सर सच को देशहित की आड़ में कुर्बान किया गया है। जहां लोकतांत्रिक आदर्श पारदर्शिता और जवाबदेही की वकालत करते हैं, वहीं सत्ता की हकीकत—खासकर वैश्विक ताकत—अमेरिकी राष्ट्रपतियों को कई बार तथ्यों को छिपाने, वादे तोड़ने और यहाँ तक कि खुलकर झूठ बोलने की ओर ले जाती रही है। ये धोखे हमेशा व्यक्तिगत चरित्र दोष से नहीं उपजते; इन्हें अकसर शासन, रणनीति और कूटनीति के अनिवार्य उपकरणों के रूप में भी प्रस्तुत किया जाता है। लेकिन ऐसे कार्यों के नैतिक और लोकतांत्रिक परिणाम अमेरिका की राजनीतिक विरासत पर आज भी एक काला साया बने हुए हैं।
फ्रैंकलिन डी. रूजवेल्ट और युद्ध की ओर बढ़ता अमेरिका
महामंदी और द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नेतृत्व के लिए प्रशंसा पाने वाले राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी. रूजवेल्ट ने देश को युद्ध में धकेलने के लिए जानबूझकर अस्पष्टता का सहारा लिया। 1940 के दशक की शुरुआत में उन्होंने सार्वजनिक रूप से अमेरिका की तटस्थता की बात की, लेकिन पर्दे के पीछे उन्होंने ब्रिटेन और चीन को चुपचाप सहायता पहुँचाई। आलोचकों का मानना है कि उन्होंने अमेरिकी जनता को धोखे में रखा, क्योंकि वह जानते थे कि जनता युद्ध के खिलाफ है। वहीं उनके समर्थकों के अनुसार, यह तैयारी ज़रूरी थी ताकि देश एक अनिवार्य युद्ध का सामना कर सके।
लिंडन बी. जॉनसन और टोंकिन की खाड़ी की साज़िश
राष्ट्रपति लिंडन बी. जॉनसन के शासनकाल में हुए ‘गल्फ ऑफ टोंकिन’ प्रकरण को राष्ट्रपति स्तर पर सबसे बदनाम धोखों में से एक माना जाता है। 1964 में जॉनसन ने दावा किया कि वियतनामी नौसेना ने अमेरिकी जहाज़ों पर हमला किया, और इसके आधार पर वियतनाम युद्ध में अमेरिका की भागीदारी को तेज़ कर दिया गया। बाद की जांचों से पता चला कि दूसरा हमला शायद कभी हुआ ही नहीं। इस झूठ पर आधारित युद्ध में 58,000 से ज़्यादा अमेरिकी सैनिक मारे गए और दक्षिण-पूर्व एशिया तबाह हो गया। इस घटना ने अमेरिकी जनता का राष्ट्रपति पद पर से भरोसा हमेशा के लिए तोड़ दिया।
रिचर्ड निक्सन और वॉटरगेट कांड
राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन का कार्यकाल राजनीतिक धोखाधड़ी का प्रतीक बन गया। कम्बोडिया पर गुप्त बमबारी से लेकर वॉटरगेट कांड तक, उनके शासन में झूठ ने लोकतांत्रिक संस्थाओं को खोखला कर दिया। वॉटरगेट कांड—जिसमें डेमोक्रेटिक पार्टी के मुख्यालय में सेंध और उसकी साजिश छुपाना शामिल था—सिर्फ चोरी का मामला नहीं था, बल्कि यह सत्ता के सर्वोच्च स्तर पर विश्वासघात और गोपनीयता का अपराध था। 1974 में निक्सन का इस्तीफा केवल एक राजनीतिक कदम नहीं, बल्कि उनके झूठों से जर्जर हो चुके राष्ट्रपति पद की एक त्रासद अंर्तकथा थी।
रोनाल्ड रीगन और ईरान-कॉन्ट्रा मामला
1980 के दशक में राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने अमेरिकियों को आश्वस्त किया था कि “हमने बंधकों के बदले हथियार नहीं दिए।” लेकिन बाद में सामने आया कि उनकी सरकार ने गुप्त रूप से ईरान को हथियार बेचे, जो अमेरिकी कानून का उल्लंघन था, और उससे प्राप्त राशि का उपयोग निकारागुआ में विद्रोही ‘कॉन्ट्रा’ गुट को सहायता देने में किया गया। यह मामला उनके लोकप्रियता को भले ही ज़्यादा नुकसान न पहुँचा सका, लेकिन राष्ट्रपति पद की जवाबदेही और गुप्त संचालन की नैतिकता पर गंभीर प्रश्न जरूर खड़े कर दिए।
जॉर्ज डब्ल्यू बुश और विनाश के हथियार
2000 के दशक की शुरुआत में राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश की सरकार ने इराक पर आक्रमण का कारण ‘विनाश के हथियार’ (WMDs) को बताया। जबकि खुफिया रिपोर्टों में इन हथियारों की मौजूदगी पर संदेह जताया गया था, फिर भी सरकार ने इस झूठे नैरेटिव को आगे बढ़ाया। 2003 में इराक पर हमला हुआ, शासन गिरा, मध्य पूर्व में अस्थिरता बढ़ी, लाखों लोग मारे गए और वैश्विक आतंकवाद में इज़ाफा हुआ—ये सब एक ऐसे बहाने पर हुआ जो बाद में झूठ साबित हुआ। इस युद्ध ने अमेरिका की अंतरराष्ट्रीय साख को गहरी चोट पहुँचाई।
डोनाल्ड ट्रंप और ‘पोस्ट-ट्रुथ’ युग
राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का कार्यकाल उस समय के रूप में याद किया जाएगा जब राष्ट्रपति स्तर पर झूठ बोलना एक सामान्य बात बन गई। शपथ समारोह में भीड़ की संख्या से लेकर कोरोना वायरस महामारी की गंभीरता को नकारने और 2020 के चुनाव में हार को “चोरी” कहने तक, ट्रंप ने तथ्यों ही नहीं, बल्कि सत्य की धारणा को भी चुनौती दी। 6 जनवरी को कैपिटल हिल पर हुआ दंगा इस झूठ की राजनीति का दुखद परिणाम था—जो दर्शाता है कि राष्ट्रपति पद से फैला झूठ लोकतंत्र की जड़ों को हिला सकता है।
धोखे की कीमत
इतिहास बताता है कि राष्ट्रपति स्तर के झूठ कोई इत्तफाक नहीं, बल्कि अमेरिकी शासन प्रणाली का एक दोहराया जाने वाला हिस्सा रहे हैं, जिन्हें अक्सर “राष्ट्रीय हित” के नाम पर जायज़ ठहराया गया। लेकिन झूठ—चाहे देशभक्ति के आवरण में हों—जनता के भरोसे को खत्म करते हैं, लोगों की ज़िंदगी खतरे में डालते हैं और लोकतांत्रिक मूल्यों को नुक़सान पहुँचाते हैं। राष्ट्रपति पद को व्यापक अधिकार प्राप्त हैं, और इसलिए सच की ज़रूरत और ज़्यादा बढ़ जाती है। यदि लोकतंत्र को जीवित और सशक्त रखना है, तो भविष्य के नेताओं को यह समझना होगा कि ईमानदारी कमजोरी नहीं, बल्कि नेतृत्व की सबसे बड़ी ताकत है—और सच वह नींव है, जिस पर स्थायी और सम्मानित नेतृत्व टिका होता है।
(उपेंद्र चौधरी वरिष्ठ पत्रकार हैं।)